सिनेमा
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शॉर्ट फिल्मों के दौर का उर्वर होना
सिनेमा शॉर्ट फिल्मों का यह नया दौर निहायत ही अलग है. पूरी तरह से यह बाजार पर आधारित है. इसमें आैर मुख्यधारा सिनेमा के मध्य कोई खाई नजर नहीं आ रही है, बल्कि आज मुख्यधारा का सिनेमा इसे हाथोंहाथ ले रहा है. सिनेमा के बड़े निर्देशक और अभिनेता भी इसमें काम कर रहे हैं. भारत […]
शॉर्ट फिल्मों का यह नया दौर निहायत ही अलग है. पूरी तरह से यह बाजार पर आधारित है. इसमें आैर मुख्यधारा सिनेमा के मध्य कोई खाई नजर नहीं आ रही है, बल्कि आज मुख्यधारा का सिनेमा इसे हाथोंहाथ ले रहा है. सिनेमा के बड़े निर्देशक और अभिनेता भी इसमें काम कर रहे हैं.
भारत में मुख्यधारा सिनेमा सर्वाइवल के लिए पूर्वनिर्मित आर्थिक तंत्र से इस कदर नाभिनालबद्ध है कि उसे फॉर्मूले में बंधकर सोचना पड़ता है, आैर फॉर्म में प्रयोग की उसे कम ही गुंजाइश मिलती है. ऐसे में शॉर्ट फिल्मों का कभी स्वायत्त बाजार बन ही नहीं पाया. लेकिन, यूट्यूब तथा अन्य निजी स्ट्रीमिंग माध्यमों ने शॉर्ट फिल्मों, खासकर शॉर्ट फिक्शन फिल्मों के लिए एक नया संभावनापूर्ण फाटक खोल दिया है. कई नये खिलाड़ी जैसे ‘लार्ज शॉर्ट फिल्म्स’, ‘टेरिबली टाइनी टेल्स’, ‘हमारा मूवी, ‘पॉकेट फिल्म्स’ लगातार मजेदार कॉन्सेप्ट्स पर खिलंदड़ फिल्में लेकर आ रहे हैं.
इंडस्ट्री भी इस बदलाव को पहचान रही है. पिछले साल ही फिल्मफेयर ने अपने पुरस्कारों में एक नये सेक्शन ‘शॉर्ट फिल्म’ को जोड़ा. यह रेखांकित करने योग्य बदलाव है, क्योंकि अॉस्कर से उलट ये भारतीय फिल्मी पुरस्कार फॉर्म के लेवल पर भिन्नताअों को स्वीकार करने के लिए नहीं जाने गये हैं.
इस साल भी पांच फिल्मफेयर पुरस्कार शॉर्ट फिल्म श्रेणी में दिये गये. इनमें बेस्ट फिल्म का पुरस्कार नीरज घायवान की ‘ज्यूस’ ने जीता. शेफाली शाह की मुख्य भूमिका से रची यह चौदह मिनट की फिल्म हमें भारतीय मध्यमवर्गीय घर के बैठकखाने में ले जाती है, जहां दस्तरखान के सामने घर आैर पास-पड़ोस के पुरुष बैठकर ‘देश-दुनिया’ की समस्याअों पर बातें करते हैं, सिर्फ पुरुष. बच्चों को किसी भीतर के कमरे में छिपा दिया जाता है आैर स्त्रियों की ड्यूटी लगा दी जाती है घर की रसोई में.
रसोईघर स्त्री की घर में पहली आैर अंतिम पनाहगाह. वही रसोई जिसमें आमतौर पर ताजी हवा आने के लिए कोई खुली खिड़की तक नहीं होती. वे दोनों भौगोलिक रूप से एक ही घर की संरचना का हिस्सा हैं, लेकिन ‘ज्यूस’ हमारे घरों के बैठकखानों से रसोई के बीच पसरी सदियों लंबी दूरी की अोर इशारा है. विद्रोह की पहली चिंगारी भी.
आपको वह दौर भी याद होगा, जब सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने के पहले सामाजिक सोद्देश्यता भरी शॉर्ट फिल्में दिखायी जाती थीं. आमतौर पर ये फिल्में ‘फिल्म्स डिवीजन’ नामक संस्था द्वारा निर्मित होती थीं. फिल्म्स डिवीजन का शाॅर्ट फिल्म निर्माण के क्षेत्र में समृद्ध इतिहास रहा है. शॉर्ट फिल्मों का एक हंगामाखेज दौर सत्तर के दशक में भी देखा गया, खासकर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने इन्हें खूब बढ़ावा दिया.
यह वही दौर था, जब सुखदेव, प्रमोद पति आैर एसएनएस शास्त्री जैसे फिल्मकारों ने फिल्म्स डिवीजन में ‘इंडिया 67’, ‘आबिद, ‘नाइन मंथ्स टू फ्रीडम’, ‘खिलौनेवाला’, ‘आईएम 20’ जैसी उम्दा फिल्में बनायीं. कई बार इन पर इंदिरा गांधी की नीतियों को आगे बढ़ानेवाली प्रॉपोगेंडा फिल्में होने का भी आरोप लगा.
शॉर्ट फिल्मों का यह नया दौर निहायत ही अलग है. पूरी तरह से यह बाजार पर आधारित है. इसमें आैर मुख्यधारा सिनेमा के मध्य कोई खाई नजर नहीं आ रही है, बल्कि आज मुख्यधारा का सिनेमा इसे हाथोंहाथ ले रहा है. सिनेमा के बड़े निर्देशक और अभिनेता भी इसमें काम कर रहे हैं. विचार के स्तर पर ये ज्यादा प्रयोगशील हैं.
आप गीतांजली राव की ‘प्रिंटेड रेनबो’ जैसी एनिमेशन फिल्में देखें. आज जब शहरी जीवन समय की तंगी के चलते छोटे मनोरंजन फॉर्मेट की अोर सिमट रहा है, शॉर्ट फिल्में दोबारा लौटकर आयी हैं. फिल्म लेखन अब लिस्टिकल्स में सिमट रहा है. वर्तमान दौर शॉर्ट फिल्मों का उर्वर दौर होना ही है.
मिहिर पंड्या, फिल्म क्रिटिक
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