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रबींद्रनाथ ठाकुर का चित्र ”मां और बच्चा”

पेंटिंग रबींद्रनाथ ठाकुर (1861-1941) को हालांकि सभी एक विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार के रूप में जानते हैं, जिन्होंने उत्कृष्ट कविता, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि रचे. उनकी कृति ‘गीतांजलि’ के लिए उन्हें 1913 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था, पर एक अत्यंत मौलिक चित्रकार के रूप में हम उनकी प्रतिभा और उनके चित्रों से […]

पेंटिंग

रबींद्रनाथ ठाकुर (1861-1941) को हालांकि सभी एक विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार के रूप में जानते हैं, जिन्होंने उत्कृष्ट कविता, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि रचे. उनकी कृति ‘गीतांजलि’ के लिए उन्हें 1913 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था, पर एक अत्यंत मौलिक चित्रकार के रूप में हम उनकी प्रतिभा और उनके चित्रों से कम परिचित हैं. वास्तव में रबींद्रनाथ ठाकुर का चित्रकला में आगमन भारतीय चित्रकला के वर्षों के इतिहास में एक बहुत महत्वपूर्ण घटना है.
रबींद्रनाथ ठाकुर की कला ही नहीं, उनके कला संबंधी विचारों पर अभी तक गंभीर चर्चा नहीं हुई है, जबकि उन्होंने ‘चित्रकला के मायने’ को बेहद सरल और स्पष्ट ढंग से न केवल परिभाषित ही किया, बल्कि चित्रकला संबंधी तमाम भ्रमों को दूर करते हुए अनेक लेख भी लिखे. उनका मानना था कि चित्र, ‘व्याख्या’ की नहीं, बल्कि ‘अनुभव’ करने की वस्तु है!
रबींद्रनाथ ठाकुर 1926 से ही चित्रकला के क्षेत्र में सक्रिय हो सके थे, और अपने जीवन के अंतिम दस वर्षों के दौरान उन्होंने हजारों चित्र बनाये. साल 1930 में फ्रांस, अमेरिका, जर्मनी, रूस, डेनमार्क और स्विट्जरलैंड के प्रसिद्ध कला केंद्रों में उनकी एकल प्रदर्शनियां आयोजित हुईं. भारत में उनकी पहली एकल प्रदर्शनी का आयोजन 1931 में हुआ था.
रबींद्रनाथ ठाकुर ने हालांकि अपने किसी भी चित्र का शीर्षक नहीं दिया था, फिर भी सुविधा के लिए समीक्षकों ने इस चित्र को ‘मां और बच्चा’ नाम दिया है.
रबींद्रनाथ के इस चित्र ‘मां और बच्चा’ की संरचना, इसका रंग और इसकी प्रकाश व्यवस्था अभूतपूर्व है. चित्र में हम स्पष्टतः चार स्वतंत्र हिस्सों को चिह्नित कर पाते हैं. चित्र के केंद्र में (पहला हिस्सा) मां के चहरे और बच्चे को एक-दूसरे से जुड़े पाते हैं. ये दोनों आकृतियां, चित्र में सबसे कोमल रंग से बनी हैं और चित्र की दायीं ओर चित्र के बाहर स्थित प्रकाश श्रोत से; सबसे ज्यादा प्रकाशित हैं.
चित्र में मां की साड़ी (दूसरा हिस्सा), सर के ऊपर से चलकर पीठ पर से होती हुई चित्र की दायीं ओर बाहर चली गयी है. इस साड़ी के आधार को एक सपाट रंग से बनाकर उस पर गहरे रंग की स्याही की कलम से सामानांतर रेखाएं खींची गयी है, जिसके कारण यह साड़ी गहरे रंग की लगती है. इन रेखाओं के कारण ही चित्र के इस अंश में हमें एक प्रवाह और गतिमयता दिखायी देती है.
चित्र में मां और बच्चे को घेरे हुए एक चौड़ी काली पट्टी (तीसरा हिस्सा) जैसी परछाई है, जो चित्र का सबसे साहसिक और आकर्षक संयोजन है. यह काली परछाई जिस दीवार पर बन रही है, वह भी कम आकर्षक नहीं है. यहां (चौथा हिस्सा) रबींद्रनाथ ठाकुर ने एक बार फिर साड़ी पर किये गये ‘कलमकारी’ को दोहराया है, पर यहां उन्होंने इसे लंबवत ऊपर से नीचे की ओर जाती सामानांतर रेखाओं के जरिये एक गहरे हरे रंग की पृष्ठभूमि को रचा है.
भारतीय चित्रकला में ही नहीं, बल्कि विश्व कला के इतिहास में ऐसी सरल सी लगनेवाली कला संरचनाएं कम ही मिलती हैं. इस ‘मां और बच्चा’ चित्र की संपूर्ण योजना, अत्यंत स्वतंत्र और रचनात्मक है, जो हमें मुग्ध करता है. गौर से देखने पर हम बिना किसी व्याख्या के भी मां और बच्चे के कोमल भावों और चित्र के अभिनव कला-गुणों से सहज ही परिचित हो पाते हैं.
भारतीय चित्रकला में ही नहीं, बल्कि विश्व कला के इतिहास में ऐसी सरल-सी लगनेवाली संरचनाएं कम ही मिलती हैं. रबींद्रनाथ के इस चित्र की संपूर्ण योजना, अत्यंत स्वतंत्र और रचनात्मक है, जो हमें मुग्ध करती है.
अशोक भौमिक, पेंटर

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