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नयी किताब : तस्बीह के मनके

उर्दू और फारसी के महानतम शायरों में असदुल्लाह बेग खां ‘गालिब’ का स्थान अप्रतिम है. सूफियाना तबियत के गालिब ने अपने पहले इंतिखाब ‘गुले राना’ की प्रस्तावना में उर्दू और फारसी शायरी के पढ़नेवालों को यह बताया है कि उर्दू और फारसी शायरी एक ही बाग के दो दरवाजे हैं. कुछ ही सालों के बाद […]

उर्दू और फारसी के महानतम शायरों में असदुल्लाह बेग खां ‘गालिब’ का स्थान अप्रतिम है. सूफियाना तबियत के गालिब ने अपने पहले इंतिखाब ‘गुले राना’ की प्रस्तावना में उर्दू और फारसी शायरी के पढ़नेवालों को यह बताया है कि उर्दू और फारसी शायरी एक ही बाग के दो दरवाजे हैं. कुछ ही सालों के बाद उर्दू दीवान की प्रस्तावना में उन्होंने मुख्तलिफ लहजा अख्तियार किया और फारसी भाषा में की गयी शायरी को तरजीह देने लगे. उस समय हिंदुस्तान में फारसी उच्च वर्ग के लोगों की भाषा थी.

बनारस से गालिब इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने फारसी में 108 शेरों का एक मसनवी ‘चिराग-ए-दैर’ नाम से लिखी. मसनवी उर्दू शायरी की एक ऐसी किस्म है, जिसमें कहानी या उपदेश एक वृत्त के घेरे में होता है और उसका एक शेर दूसरे शेर से रदीफ काफिये में नहीं मिलता और हर शेर के दोनों मिसरे सानुप्रास होते हैं. 21 से 91 शेरों में से 87वें और 88वें शे’रों को छोड़ शेष शेरों में वे बनारस को लेकर मानो मुग्धावस्था में थे. पच्चीसवें शेर में गालिब के कहे को अनुवादक सादिक ने सुंदर शब्दों में बांधा है.
वे लिखते हैं- गालिब शुरुआती बारह शेरों में अपनी भावनाओं, विचारों, कल्पनाओं और अनुभवों को पूर्णरूप से व्यक्त नहीं कर सके, लेकिन बाद में बनारस का जादू उन पर ऐसा नाजिल हुआ कि उनकी कल्पनाओं को पर लग गये. उनका अंदाज-ए-बयां तो था ही. उन कल्पनाओं और अंदाज-ए-बयां को ही हिंदी के पाठकों तक सादिक ने सलीके से पहुंचाया है. बनारस-यात्रा का असर गालिब पर ताउम्र रहा. अपने शागिर्द मियां-दाद खां सय्याह को चालीस साल बाद वे लिखते हैं- ओह! बनारस एक अद्भुत शहर है. मैं अपने आखिरी दौर में वहां गया. अगर मैं जवान होता, तो दिल्ली छोड़ वहीं बस जाता.
एक ऐसे समय में, जब सामाजिक तानेबाने पर प्रश्न चिह्न खड़े होते जा रहे हैं, रजा फाउंडेशन और राजकमल प्रकाशन ने ‘चिराग-ए-दैर’ को प्रकाशित कर याददहानी का काम किया है. अंत में, तस्बीह के 108वें मनके (शे’र) की तरह आज इसकी जरूरत है- ‘ला’/ के माने हैं ‘नहीं’/ और अर्थ है / ‘इल्ला’ का ‘किंतु’ या ‘अलावा’/ जोर से / सतनाम बोलो / और / अल्लाह / ईश्वर / परमेश्वर के / है अलावा जो / उसे कर दो स्वाहा…
मनोज मोहन
बनारस-यात्रा का असर गालिब पर ताउम्र रहा. अपने शागिर्द मियां-दाद खां सय्याह को चालीस साल बाद वे लिखते हैं- ओह! बनारस एक अद्भुत शहर है.

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