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अवैध आप्रवासन और राजनीति

दक्षिणपंथी समूह बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे का उपयोग बहुसंख्यक समुदाय में मनोवैज्ञानिक भय उत्पन्न करने और धर्म व राष्ट्रवाद के नाम पर मतदाताओं को लामबंद करने के लिए करते रहे हैं. इसे देश के उन इलाकों में भी फैलाने की कोशिश होती रही है, जहां बांग्लादेशी आप्रवासी नही हैं. ‘अवैध आप्रवासन’ पूवरेत्तर में आप्रवासियों और […]

दक्षिणपंथी समूह बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे का उपयोग बहुसंख्यक समुदाय में मनोवैज्ञानिक भय उत्पन्न करने और धर्म व राष्ट्रवाद के नाम पर मतदाताओं को लामबंद करने के लिए करते रहे हैं. इसे देश के उन इलाकों में भी फैलाने की कोशिश होती रही है, जहां बांग्लादेशी आप्रवासी नही हैं.

‘अवैध आप्रवासन’ पूवरेत्तर में आप्रवासियों और उनके परिवारों के लिए राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विपदा की स्थिति है. भारत में अधिकतर आप्रवासियों को वैमनस्य का सामना करना पड़ता है और कुछ तो क्रूर हिंसा के भी शिकार होते हैं. फिर भी जिंदा रहने की मजबूरी उन्हें यह सब सहने के लिए विवश करती है. आमतौर पर बांग्लादेश की सरकार इस मुद्दे को नजरअंदाज करती रही है, क्योंकि यहां के ज्यादातर प्रवासी उर्दूभाषी ‘बिहारी’ मुसलमान हैं, जिन्हें अपने ही देश में 1971 के बाद से द्वितीय श्रेणी के नागरिक माना जाता है.

भारत में वैध या अवैध आप्रवासियों की निश्चित संख्या का कोई आकलन नहीं है. एक अनुमान के अनुसार, यह संख्या तकरीबन साठ लाख हो सकती है. अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्था कंसर्न यूनिवर्सल का आकलन है कि प्रतिदिन लगभग 50 बांग्लादेशी अवैध रूप से भारत में प्रवेश करते हैं. ये आप्रवासी आमतौर पर रिक्शा चलाने, निर्माण, घर पुताई, माली, दैनिक मजदूरी जैसे कार्यों में लगे हैं. स्थानीय मजदूरों की तुलना में ये लोग खराब हालत और कम मजदूरी में अधिक काम करते हैं. इससे सीमा के दोनों तरफ के मजदूरों में तनाव की स्थिति पैदा होती है. राजनीतिक गुट आप्रवासियों की उपस्थिति से उत्पन्न सामाजिक तनाव का उपयोग अपने स्वार्थ साधने के लिए करने से बाज नहीं आते. इसी पृष्ठभूमि में पिछले कुछ दशकों से असम में बोडो और मुसलिम समुदायों के बीच हिंसक वारदातें होती रहती हैं, जिन्हें कई बार गलत तरीके से हिंदू-मुसलिम दंगों की संज्ञा भी दी जाती है. बोडो समुदाय की 12 फीसदी आबादी ईसाई है और अधिकतर बोडो ब्रह्मा संप्रदाय के अनुयायी हैं और पारंपरिक बाथू धर्म का अनुसरण करते हैं. इनके बीच तनाव का मुख्य कारण आर्थिक है. बोडो समुदाय का आरोप है कि बांग्लादेशी आप्रवासी उनके क्षेत्र में उपजाऊ जमीन पर अतिक्रमण कर रहे हैं.

जीविका की तलाश में भारत में घुसपैठ करनेवाले लोगों के अलावा ऐसे समूह भी हैं जो मानव तस्करी और वस्तुओं को अवैध रूप से लाने-ले जाने के काम में शामिल हैं. भारत में बड़ी संख्या में बांग्लादेशी महिलाएं वेश्यावृत्ति के काम में संलग्न हैं. कई ऐसे मामले सामने आये हैं, जिनमें बेहतर भविष्य का लालच देकर लड़के-लड़कियों को भारत लाकर शरीर बेचने के काम में धकेल दिया जाता है.

बांग्लादेश से भारत में अवैध रूप से आना कोई नयी परिघटना नहीं है और 1971 से पहले भी ऐसा होता रहा था. 1947 का भारत-पाकिस्तान विभाजन सीमावर्ती क्षेत्रों में रह रहे लोगों के बीच के सामाजिक-आर्थिक संबंधों को नहीं तोड़ पाया था. सीमा के पहरेदारों को रिश्वत देकर लोग आते-जाते रहते थे. 1971 की आजादी की लड़ाई के दौरान लाखों बांग्लादेशी पाकिस्तानी सेना के अत्याचार से बचने के लिए भारत की सीमा के भीतर आ गये थे. बांग्लादेश की आजादी के बाद इनमें से कई लोग वापस नहीं गये. ऐसे आप्रवासियों में हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे. इनमें से अधिकतर लोगों ने पश्चिम बंगाल, मेघालय, असम, त्रिपुरा, मिजोरम और मणिपुर में शरण ली. शरणार्थियों में शामिल हिंदुओं में से ज्यादातर को भारत में आधिकारिक रूप से बसने की अनुमति मिल गयी.

आप्रवासन से सामाजिक-आर्थिक तनाव बढ़ने के कारण इंदिरा गांधी की सरकार को 1983 में अवैध आप्रवासन (ट्रिब्यूनल द्वारा निर्धारण) कानून- आइएमडीटी एक्ट- लाना पड़ा. इस कानून का मुख्य उद्देश्य अवैध आप्रवासियों की पहचान कर उन्हें वापस बांग्लादेश भेजना था. लेकिन ऐसा न होकर, यह हुआ कि इस कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल कर अनेक अवैध आप्रवासी मताधिकार के साथ भारतीय नागरिक बन गये. इस कानून में सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि आरोप लगानेवाले या पुलिस को यह साबित करना होता था कि आरोपित नागरिक है या नहीं. यह कानून 1946 के विदेशी नागरिक कानून के स्थान पर लाया गया था. कई स्थानों पर इन नये मतदाताओं ने अपने समर्थक राजनीतिक दलों या नेताओं को चुनाव जीतने में मदद की. राज्य की राजनीति पर पड़ते प्रभाव के कारण कुछ पार्टियों ने इस कानून की मुखालफत की. असम में क्षेत्रीय दल असम गण परिषद का उदय ही अवैध प्रवासियों को बाहर निकालने के एकमात्र मुद्दे पर हुआ था. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी तथा ऑल असम स्टूडेंट यूनियन और ऑल असम गण संग्राम परिषद के बीच 1985 में हुए असम समझौते में यह एक प्रमुख मुद्दा था. भारतीय जनता पार्टी ने भी असम गण परिषद को उसके राजनीतिक उद्देश्य में समर्थन दिया. अवैध आप्रवास कानून के खिलाफ कानूनी लड़ाई का मोरचा भी खोला गया. देश की सर्वोच्च न्यायालय ने 2005 में इस कानून को निरस्त कर दिया.

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से पहले भी देश के दक्षिणपंथी राजनीतिक समूह इस मुद्दे का उपयोग बहुसंख्यक समुदाय में एक मनोवैज्ञानिक भय उत्पन्न करने और धर्म व राष्ट्रवाद के नाम पर मतदाताओं को लामबंद करने के लिए करते रहे हैं. यह भय सिर्फ देश के इसी हिस्से तक सीमित नहीं है, इसे देश के उन इलाकों में भी फैलाने की कोशिश होती रही है, जहां बांग्लादेशी आप्रवासियों की कोई मौजूदगी नहीं है. उन जगहों में असली निशाना आप्रवासी नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय है, जिसके खिलाफ राजनीतिक कारणों से बहुसंख्यक समुदाय का ध्रुवीकरण करने की कोशिशें हो रही हैं.

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