राजनीति में धनबल एवं बाहुबल पर लगाम की तमाम कोशिशों और चुनाव सुधार के लिए समय-समय पर उठाये जा रहे कदमों के बावजूद चुनावी राजनीति में आपराधिक छवि के उम्मीदवारों और धनकुबेरों की मौजूदगी कायम है. इस स्थिति में स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था की उम्मीद टूट जाती है. मौजूदा चुनावों में धनबल और बाहुबल के दखल के बारे में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के प्रमुख अनिल वर्मा से बात की वसीम अकरम ने..
देश में आम चुनाव अपने आखिरी दौर में है. इस चुनाव में भी चुनाव आयोग की अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों और धनबल का मौजूदगी रही है. इन सब से कितना प्रभावित रहा यह चुनाव?
अब तक हमने सभी चरणों (नौ चरण) के चुनाव का जो जायजा लिया है, उसके मुताबिक कुल 8,230 उम्मीदवार लोकसभा 2014 के लिए मैदान में उतरे. इस संख्या में से 8,163 उम्मीदवारों का हमने गहन विश्लेषण किया है, क्योंकि बाकी बचे उम्मीदवारों के हलफनामों में कुछ कमियां रह गयी थीं. 8,163 उम्मीदवारों में से 17 फीसदी यानी 1,398 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं और 11 फीसदी यानी 889 उम्मीदवार ऐसे हैं, जिन पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं. एक दूसरे आंकड़े के मुताबिक, औसतन एक उम्मीदवार की संपत्ति है 4.93 करोड़ रुपये यानी तकरीबन पांच करोड़ रुपये. हालांकि कुछ उम्मीदवारों की संपत्ति लाख रुपये से भी बहुत कम दर्ज की गयी, लेकिन अगर इनके साथ प्रति उम्मीदवार की औसत संपत्ति ही तकरीबन पांच करोड़ है, तो यह जाहिर है कि लाख से नीचे वालों को छोड़ कर बाकियों की संपत्ति तो पांच करोड़ से भी ज्यादा होगी. इसलिए इससे चुनावी नतीजे तो प्रभावित होंगे ही. जाहिर है कि यदि एक व्यक्ति करोड़पति है, लेकिन चुनावी खर्च के हलफनामे में कुछ लाख ही दिखाता है, चाहे वह जितना भी खर्च करे. ऐसे में वह तो पहले अपने खर्च को निकालने की कोशिश करेगा. यही वजह है कि आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोग चुनाव मैदान में उतर पड़ते हैं. हालांकि, आयोग की सख्ती के कारण इस चुनाव में बाहुबल का असर कम है, लेकिन अभी भी धनबल का बोलबाला है, जो चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकता है.
यह तो रही कुल उम्मीदवारों की बात. पार्टियों में जो करोड़पति हैं, चुनावी नतीजों में उनकी क्या भूमिका नजर आती है आपको?
पार्टियों में सबसे ज्यादा डीएमके के पास करोड़पति हैं. डीएमके में 94 प्रतिशत. टीडीपी में 93 प्रतिशत. आरएलडी में 90 प्रतिशत. आरजेडी में 86 प्रतिशत. टीआरएस में 82 प्रतिशत. एआइडीएमके में 80 प्रतिशत. कांग्रेस में 79 प्रतिशत. वाइएसआरसीपी में 79 प्रतिशत. जेडीएस में 73 प्रतिशत. बीजेडी में 71 प्रतिशत. एनसीपी में 63 प्रतिशत. एसपी में 56 प्रतिशत. जेडीयू 49 प्रतिशत. आम आदमी पार्टी में 47 प्रतिशत. इस तरह से पार्टियों में करोड़पतियों का आंकड़ा कम होता जा रहा है. जाहिर है कि सभी पार्टियां पैसे वालों को ही टिकट देना पसंद करती हैं, क्योंकि चुनाव में बहुत खर्च होता है. इससे दो तरह के फायदे होते हैं. पहला- उम्मीदवार पार्टी को पैसा देता है और दूसरा- अपना चुनावी खर्च भी संभालता है. उम्मीदवार जब जीत जाता है तो और भी धन इकट्ठा करने लगता है. इसलिए करोड़पतियों की बड़ी भूमिका होती है चुनावी नतीजों में, जो पार्टियों के लिए काफी फायदेमंद साबित होती है.
ये जो तमाम आंकड़े हैं, पिछले आम चुनाव की तुलना में कम हैं या ज्यादा हैं? चुनाव आयोग के भी अपने चुनाव कराने के खर्च हैं. क्या चुनाव लड़ने के लिए धनबल और बाहुबल के अलावा भी कोई रास्ता बचता है?
अभी इस नतीजे पर पहुंच पाना मुश्किल है, क्योंकि जब तक आखिरी चरण की वोटिंग के बाद चुनाव परिणाम नहीं आ जाता, तब तक हम इसके विश्लेषण में ही लगे रहेंगे. लेकिन इस चुनाव में बाहुबली तो कम हुए, लेकिन धनबल का असर बढ़ गया है. क्योंकि दो ही तरीके से चुनाव प्रभावित हो सकता है- या तो ताकत से या पैसे से. चुनाव आयोग की मानें, तो अब तक 1,100 करोड़ रुपये कैश, ढेरों शराब, ड्रग्स आदि बीते 24 अप्रैल तक आयोग ने जब्त किया है. गौरतलब है कि पिछले आम चुनाव में चुनाव कराने का आयोग का कुल खर्च 1,100 करोड़ रुपये था. वहीं इस बार यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 1,800 से 2,000 करोड़ रुपये तक चुनाव कराने में खर्च होने जा रहा है. जहां तक पार्टियों का अपना खर्च है, उसका अंदाज लगाना मुश्किल है. चुनाव खत्म होने के 30 दिन के भीतर उम्मीदवारों को अपने चुनावी खर्च का लेखा-जोखा चुनाव आयोग और आयकर विभाग में जमा करना पड़ता है और राजनीतिक पार्टियों को तीन महीने के भीतर. तो जब ये लोग खर्च दिखायेंगे, उसे समझना मजे की बात होगी, क्योंकि उम्मीदवार और पार्टियां हमेशा कम खर्च दिखाती हैं. ऐसे में हम कैसे उम्मीद करें कि बहुत कम पैसों में भी चुनाव लड़ा जा सकता है. पारदर्शिता, जवाबदेही, निष्पक्षता आदि की बात तो होती है, लेकिन यह कहीं चुनावी व्यवहार में नहीं आती. यही वजह है कि धनबल और बाहुबल चुनावों में हावी रहते हैं.
ऐसा सुनने में आता है कि जब भी देश में कोई चुनाव आता है, तो बाहरी शक्तियां भी सक्रिय हो जाती हैं और खूब पैसा बहाती हैं. कहां से और कैसे आता है इतना पैसा?
इस आम चुनाव के शुरू होने के दो-तीन महीनों पहले चुनाव में इस्तेमाल करने के लिए बाहर से तकरीबन 1,500 से 5,000 करोड़ रुपये तक का कालाधन भारत में आया. विशेष रूप से चुनावों में झोंकने के लिए इस रकम को स्टॉक मार्केट, सोने की तस्करी और हवाला के जरिये भारत लाया गया. सवाल यह है कि उम्मीदवार और पार्टियां इतना कम खर्च दिखाती हैं, तो आखिर यह पैसा जाता कहां है और इनका कैसे इस्तेमाल होता है. हालांकि आम जनता को खर्चा दिख रहा है- रैलियों, हवाई यात्रओं, पोस्टर-बैनरों आदि पर बहुत पैसा खर्च होता है. जाहिर है कि यह कालाधन ही है. इसलिए यह बहुत ही चिंता का विषय है और हमें इसके बारे में विचार करना चाहिए कि एक लोकतंत्र में कालेधन का जो खेल है, उसे कैसे रोका जाये. जो शक्तियां पैसा खर्च करती हैं, जीते हुए उम्मीदवारों से उससे अपने व्यापारी तौर-तरीकों से वसूल करती हैं, जिसका बोझ, जाहिर है कि जनता पर ही पड़ना है, क्योंकि यहीं से घपलों-घोटालों की शुरुआत होती है.
तो इसका समाधान क्या है? यह प्रवृत्ति क्या लोकतंत्र के लिए खतरनाक नहीं है?
बिल्कुल है. चुनावों के मद्देनजर एक ऐसे कानून की जरूरत है, जिससे उम्मीदवार और पार्टियां वास्तविक चुनाव खर्च दिखाने पर मजबूर हो जायें. उनके इनकम टैक्स को सही तरीके से ऑडिट करने की व्यवस्था बनानी होगी, क्योंकि अब तक ऐसे ही कामचलाऊ ऑडिटिंग होती रही है. एक मिसाल देखिए. 2009 के आम चुनाव में भाजपा ने लेखा-जोखा पेश किया कि चुनाव लड़ने के लिए उसने किसी भी उम्मीदवार को कोई पैसा नहीं दिया. लेकिन उसके कई उम्मीदवारों ने अपने रिटर्न फाइल में दिखाया कि किसी को पार्टी से पांच लाख मिले, किसी को दस लाख मिले. तो इसके लिए जरूरी है कि ईमानदार तरीके से ऑडिटिंग की व्यवस्था हो.