‘किताब में लिखा था कि प्रकाश सीधी रेखा में और तरंग के रूप में चलता है. लेकिन ऐसा हमने देखा नहीं था. लेकिन जब बॉक्स, टॉर्च और फ़ॉग के सहारे प्रयोग किया तो पूरी बात अच्छी तरह से समझ में आ गई.’
बिहार के दरभंगा ज़िले के सिधौली कस्बे में आठवीं कक्षा के छात्र मोहन पासवान ने साइंस प्रैक्टिकल से जुड़े अपने अनुभवों को इन शब्दों में बीबीसी के साथ साझा किया.
इसी स्कूल की सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली स्वाति कुमारी की समझ भी प्रयोग करने के बाद ज़्यादा साफ़ और गहरी हुई है. वह बताती हैं, ‘मैं पढ़कर क्षार और लवण के बारे में नहीं समझ पाती थी. लेकिन जब मैंने लिटमस पेपर के सहारे प्रयोग किया तो अच्छी तरह से समझ गई. प्रयोग के बाद मैंने जाना कि क्षार कहां तक होता है और कहां तक होता है लवण.’
बिहार के सरकारी स्कूलों में आमतौर पर विज्ञान की पढ़ाई और खासकर विज्ञान की प्रयोगशालाओं की स्थिति बहुत बुरी होती है. ऐसे में दरभंगा ज़िले के तीन प्रखंडों के 30 ग्रामीण स्कूलों में वैज्ञानिक मानस बिहारी वर्मा की कोशिशों से स्कूली छात्रों को दो मोबाइल साइंस लैब के ज़रिए विज्ञान से जुड़े मूलभूत प्रयोग करने का मौका मिल रहा है.
रिटायरमेंट के बाद की नई शुरुआत
इस साल जिन विशिष्ट लोगों को पद्म पुरस्कार दिया गया है उनमें वैज्ञानिक मानस बिहारी वर्मा का नाम भी शामिल है. अपने पूरे करियर के दौरान उन्होंने रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन यानी डीआरडीओ में काम किया.
मानस बिहारी वर्मा जुलाई 2005 में भारतीय वायुसेना के बेड़े में शामिल लड़ाकू विमान (लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ़्ट) तेजस के प्रोजेक्ट डायरेक्टर के पद से रिटायर हुए.
मानस बिहारी वर्मा दरभंगा ज़िले के घनश्यामपुर ब्लॉक के बाउर नामक गांव के रहने वाले हैं, वे बताते हैं, ‘रिटायरमेंट के बाद जब मैं बेंगलुरू से गांव वापस आया तो मेरी सोच थी कि निरक्षरों को कम-से-कम साक्षर बनाया जाए. मुझे दो अवॉर्ड्स से जो पैसे मिले थे उसे इस काम में लगाने का फ़ैसला मैंने पहले ही कर लिया था.’
इस काम के लिए मानस ने बिजली की व्यवस्था की, ब्लैक बोर्ड टंगवाया, बिजली लगातार बनी रहे इसके लिए डीज़ल जेनरेटर का इंतज़ाम किया, मनोहर पोथी और स्लेट भी ख़रीदकर बांटे.
पूरी तैयारी के बाद निरक्षरों को पढ़ाने के लिए उन्होंने स्कूली बच्चों से एक घंटे का समय मांगा और उन्हें यह ऑफ़र दिया कि इसके बदले वे अपनी पढ़ाई की परेशानियां पूछ सकते हैं. यह काम कुछ दिनों तक चला.
मानस आगे बताते हैं, ‘बिहार के बच्चे विज्ञान की पढ़ाई पर कई वजहों से ध्यान नहीं दे पाते हैं. ऐेसे में मुझे बच्चों में विज्ञान के प्रति रुचि जगाने की ज़रूरत महसूस हुई. साल 2007 में मैंने छह-सात कंप्यूटर ख़रीदे. सरकारी स्कूल के छात्रों को कंप्यूटर पढ़ाने के लिए चुना. दरभंगा स्थित संस्थान डब्लूआईटी के कुछ आईटी प्रोफ़ेशनल्स की मदद से लड़कियों के दो बैच को एक हफ्ते तक अपने यहां रखकर कंप्यूटर सिखाया.’
यूं हुई मोबाइल सांइस लैब की शुरुआत
मानस बिहारी को लंबे समय तक पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ काम करने का मौका भी मिला.
उन्होंने बताया, ’90 के दशक के शुरुआती वर्षों में उनके साथ मिलकर काम करने का मौका मिला. एलसीए प्रोजेक्ट के लिए हम जो तकनीक विकसित कर रहे थे उसमें डीआरडीएल अहम सहयोग दे रही थी. तब डॉक्टर कलाम इंट्रीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डेवलपमेंट प्रोग्राम और डीआरडीओ के निदेशक थे. बाद के वर्षों में जब वे एलसीए प्रोजेक्ट की समीक्षा के सिलसिले में हर महीने बेंगलुरू आते थे तो उनसे मिलने का मौका ज़्यादा मिलने लगा.’
एपीजे अब्दुल कलाम को जब वर्मा के रिटायरमेंट के बाद की कोशिशों के बारे में पता चला तो उन्होंने वर्मा को अगस्त्य इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन से मोबाइल सांइस लैब मुहैया कराई और अपने संरक्षण में चलने वाले विकसित भारत फ़ाउंडेशन से भी संसाधन मुहैया कराए.
2011 में इस लैब के शुरुआती प्रयासों के सफल रहने के बाद विकसित भारत फ़ाउंडेशन से उन्हें एक फ़ुल-टाइम मोबाइल वैन मिल गई. अभी विकसित भारत और अगस्त्य इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन की तरफ़ से संयुक्त रूप से मिले दो मोबाइल लैब की मदद से उनकी टीम काम करती है.
बच्चे अपने हाथ से कर रहे हैं प्रयोग
मानस वर्मा की टीम के साइंस इंस्ट्रक्टर विज्ञान के विषयों में हाई स्कूल के बच्चों को उनकी किताबों के मुताबिक कम-से-कम दस प्रयोग करके दिखाते हैं. कुछ बच्चों को प्रयोग करने का मौका भी देते हैं.
साथ ही हर बच्चे को तीस-तीस घंटे का कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर का ‘हैंड्स-ऑन एक्सपीरियंस’ भी दिया जाता है. ‘हैंड्स-ऑन-एक्सपीरियंस’ का मतलब है हर बच्चा खुद से लैपटॉप पर काम करके सीखता है. उनके पास अभी तीस लैपटॉप हैं.
कई दूसरे विशेषज्ञों की तरह मानस वर्मा का भी मानना है कि बच्चों में वैज्ञानिक प्रवृति पैदा हो इसके लिए ज़रूरी है कि वे खुद अपने हाथ से प्रयोग करें. वे देखें कि प्रकृति में क्या हो रहा है. वे सवाल करें.
टीम के साइंस इंस्ट्रक्टर फ़वाद ग़ज़ाली के अनुभव इस बात की तस्दीक करते हैं कि मोबाइल साइंस लैब ऐसा करने में कामयाब हो रही है. वे बताते हैं, ‘जब मैं बच्चों के सामने प्रैक्टिकल के सामान खोलता हूं तो उनका कौतुहल जाग जाता है. वे कई सवाल करने लगते हैं. फिर इसके ज़रिए उनमें आत्म-विश्वास पैदा होता है और उनके अंदर नए आइडियाज़ आते हैं. वे नए मॉडल बनाते हैं और उसके बारे में बताते हैं.’
अभी बिहार के सरकारी स्कूलों में विज्ञान की पढ़ाई की हालत ख़स्ता है. ऐेसे में वर्मा इस बात पर ज़ोर देते हैं, ‘स्कूलों में ट्रेंड शिक्षकों को लगाना होगा. साथ ही मौजूदा शिक्षकों को फिर से प्रशिक्षित करने की भी ज़रूरत है क्योंकि उनमें से ज़्यादातर ने बहुत दिनों से वैज्ञानिक उपकरण देखे तक नहीं हैं. साथ ही जिन स्कूलों में प्रयोगशालाएं नहीं हैं वहां मोबाइल साइंस लैब के ज़रिए भी सरकार ख़ुद ऐसा कर सकती है. वैशाली जैसे ज़िलों में सरकार ने ऐसी पहल शुरू की थी फिर बात आगे नहीं बढ़ी.’
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