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विस्थापन का दर्द : नयी किताब

उपन्यास ‘घरवापसी’ चर्चित व्यंग्य ‘बकर पुराण’ के लेखक अजीत भारती की दूसरी किताब है. हिंद युग्म प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास में नब्बे के दशक के एक बच्चे का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और उसके अंतर्द्वंद की गाथा है. कहानी में शहर और गांव के दो पाटों के बीच फंसे विस्थापन का बयान है. बचपन के कई […]

उपन्यास ‘घरवापसी’ चर्चित व्यंग्य ‘बकर पुराण’ के लेखक अजीत भारती की दूसरी किताब है. हिंद युग्म प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास में नब्बे के दशक के एक बच्चे का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और उसके अंतर्द्वंद की गाथा है. कहानी में शहर और गांव के दो पाटों के बीच फंसे विस्थापन का बयान है. बचपन के कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर तलाशता है यह उपन्यास. रिश्तों के उलझे ताने-बाने, मजबूत स्त्री पात्रों की उपस्थिति तथा सामाजिक कुरीतियों व प्रशासनिक बदहाली पर प्रकाश से इसको समसामयिक आवरण मिलता है.

‘घरवापसी’ का मुख्य पात्र रवि है, जो ‘मुझे क्या बनना है’ के उत्तर की तलाश में गांव छोड़ शहर तो बस जाता है, मगर गांव का मोह नहीं त्याग पाता. पेशे से इंजीनियर रवि की पत्नी मंजरी घर और बाहर में अपनी ठोस भूमिका का निर्वाह करती है. दोनों पति-पत्नी कम, दोस्त और प्रेमी अधिक हैं. प्रेम की दार्शनिक समझ रखनेवाला रवि अपनी निजी जिंदगी में प्रतिपल एक निर्वात और मन का काम न कर पाने के मलाल में घुटता रहता है. आइसक्रीम के ठेलेवाले की इतनी हाड़-तोड़ मेहनत को देखकर रवि उसके लिए कुछ करना चाहता है, तो गांव की कच्ची सड़क देखकर उसे चिंता हो जाती है. कविता ‘मेरा गांव नरक का भोजपुरी अनुवाद है’ को देखकर रवि को लगता है कि गांव में कुछ अधूरा है और उसे युवा पीढ़ी को सजाना-संवारना है.
भदेसपन की छौंक से सुवासित उपन्यास की भाषा ने उसे रोचकता के साथ स्वाभाविकता भी प्रदान की है. हिंदी साहित्य के मौजूदा युवा लेखन में इतनी खांटी, अक्खड़ और कुछ-कुछ फक्कड़ भाषा का प्रयोग अनूठा ही है. टंडेली, बरगाही, हुकहुकी, गोतिया, करमथान आदि जैसे शब्द कहीं पीछे छूटते समय को रोकने की जिद मालूम पड़ते हैं. अजीत भारती ने गंवई मुहावरों का भी खूब उपयोग किया है. साहित्य अपने समय के संधान का एक जरिया भी होता है. ‘
घरवापसी’ सामाजिक कुरीतियों और बेमानी प्रथाओं पर प्रहार करता है और मजबूत नारी पात्रों के माध्यम से आधी आबादी के महत्व को रेखांकित करते हुए समाज के उस स्टीरियोटाइप को भी तोड़ता है, जो स्त्री को सिर्फ चूल्हा-चौका और मेंहदी-महावर तक सीमित रखता है. अगर आप पढ़ाई या रोजगार के सिलसिले में अपने गांव को छोड़ आये हैं और उसे याद करते हैं, यह उपन्यास सुकून का एक माध्यम बन सकता है.- संकर्षण शुक्ला
‘घरवापसी’ सामाजिक कुरीतियों और बेमानी प्रथाओं पर प्रहार करता है और मजबूत नारी पात्रों के जरिये स्त्रियों के महत्व को रेखांकित करता है.

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