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बोलने का नहीं करने का वक्त

।। अनुज कुमार सिन्हा।। झारखंड सरकार, यहां के लोग और यहां के अफसर के लिए यह आत्ममंथन का समय है कि कहां खड़ा है झारखंड? यह पटरी पर है या बेपटरी हो चुका है? राज्य की आर्थिक स्थिति कमजोर हो चुकी है. प्रति व्यक्ति आय उस रफ्तार से नहीं बढ़ी, जिस रफ्तार से अन्य राज्यों […]

।। अनुज कुमार सिन्हा।।

झारखंड सरकार, यहां के लोग और यहां के अफसर के लिए यह आत्ममंथन का समय है कि कहां खड़ा है झारखंड? यह पटरी पर है या बेपटरी हो चुका है? राज्य की आर्थिक स्थिति कमजोर हो चुकी है. प्रति व्यक्ति आय उस रफ्तार से नहीं बढ़ी, जिस रफ्तार से अन्य राज्यों की बढ़ी. झारखंड पिछड़ता गया. इसका सीधा-सपाट अर्थ है- झारखंड/यहां रहनेवाले लोगों की संपन्नता नहीं बढ़ी. यह काम तो सरकार को करना था. सिर्फ वर्तमान सरकार ही नहीं, पूर्व की सरकारों की भी यह जिम्मेवारी थी. लेकिन राजनेताओं ने झारखंड का बेड़ा गर्क कर दिया. अभी लोकसभा चुनाव की शोर में सब कुछ दब गयी है, लेकिन हालात छिपे नहीं हैं.झारखंड के लिए यह बहस का विषय नहीं है कि सरकार जा रही है या रह रही है. सवाल विकास का है, सवाल समृद्धि का है, सवाल गुड गवर्नेस का है, सवाल भ्रष्टाचार का है.

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इधर कुछ कड़े फैसले लिये हैं. इनमें दो-दो मंत्रियों (चंद्रशेखर दुबे और साइमन मरांडी) की बरखास्तगी शामिल हैं. ये बड़े फैसले हैं. लेकिन बरखास्तगी के कारण को भी देखना होगा. इन दोनों को बरखास्तगी का आधार इनका सरकार विरोधी बयान देना है. अगर मुख्यमंत्री अपने किसी मंत्री को इस आरोप में बरखास्त करते कि वह काम नहीं कर रहे हैं या भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, तो हेमंत सोरेन का कद कई गुना बढ़ जाता. असली कड़े फैसले वे होते. हां, कोयले की चोरी/तस्करी के मामले की जांच का दायरा वे बढ़ाना चाहते हैं. कोयला चोरी राज्य का बड़ा मुद्दा है. अगर मुख्यमंत्री इसकी गहराई/ईमानदारी से जांच कराते हैं, दोषियों को दंडित करते हैं, तो इससे न सिर्फ उनकी छवि बनेगी, बल्कि उनकी पार्टी भी मजबूत होगी. काम आसान नहीं है, क्योंकि भ्रष्टाचार, कोयले की तस्करी में कुछ वैसे नेताओं के शामिल होने का आरोप है, जो सत्ताधारी दलों के हैं. अपने या अपने समर्थक दलों के खिलाफ कार्रवाई करना आसान नहीं होता. अगर मुख्यमंत्री यह कर पाते हैं, तो इतिहास ही रचेंगे.

राज्य में विधानसभा का चुनाव होना ही है. नवंबर में तो हर हाल में होना है. समय है नहीं. जनता के बीच जाने के पहले झामुमो को मुद्दा तलाशना होगा. अभी तक हेमंत सोरेन की सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया है, जिसके बल पर वह चुनाव में जाये. कम समय में बड़े फैसले लेने होंगे. बहाली हुई नहीं. दर्जनों बार घोषणा हुई, लेकिन शिक्षकों की बहाली नहीं हुई. कभी स्थानीयता तो कभी अन्य मुद्दों के कारण विवाद होता रहा. सरकार इन मुद्दों को सुलझा नहीं सकी. बेरोजगारी बड़ा मुद्दा है. सिर्फ कमेटी बनती रही.

भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लग सका. ट्रांसफर-पोस्टिंग में गड़बड़ी होती रही. सरकार ने सजल चक्रवर्ती को मुख्य सचिव बना कर एक अच्छा काम किया. वे झारखंड को बेहतर समझते हैं. साफ-साफ बोलते हैं, लेकिन सारा कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें काम करने की कितनी आजादी मिलती है. मुख्य सचिव ने कहा है कि ब्यूरोक्रेट्स में भ्रष्टाचार घुस चुका है. वे सालों से एक ही जगह पर जमे हुए हैं. बड़े अफसरों को गांवों में जाना होगा, वहां रात में रहना होगा. कई बार यह घोषणा हुई. लेकिन शायद ही कोई डीसी गांवों में रात में रहे हों. अब समय आ गया है, जब राज्य का पूरा सिस्टम सक्रिय हो. अच्छे अधिकारियों को जो डंप कर दिया गया है, उन्हें सही जगह बैठाया जाये. बेईमान-कामचोर अफसरों को दंडित किया जाये. यह काम किसी भी मुख्यमंत्री या मुख्य सचिव के लिए आसान नहीं होता. अधिकांश अफसरों के राजनीतिक आका हैं, जो उनके बचाव में खड़ा रहते हैं.

राज्य में काम कर दिखाना होगा. इस सरकार के पास अधिकतम चार-पांच माह का समय है. मुख्यमंत्री अगर सही और कड़े फैसले लेने लगें, काम दिखने लगें, तो राज्य पटरी पर आ सकता है. लेकिन दबाव की राजनीति में उन्हें झुकना नहीं होगा. गंठबंधन की सरकार का दबाव अब तक दिखता रहा है. इससे उबरना होगा. जनता बहुत कुछ नहीं चाहती. उसे पानी, बिजली, सड़क चाहिए. रोजगार चाहिए. कानून-व्यवस्था बेहतर चाहिए , ताकि वह सुरक्षित रह सके. राज्य में हाल में कुछ भ्रष्ट कर्मचारी पकड़े गये थे लेकिन वे बड़े अफसर नहीं थे. असली मछली बच जाती है. उस पर कोई हाथ नहीं लगाता. मुख्यमंत्री अगर सच में कोई संदेश देना चाहते हैं, तो बड़े-बड़े भ्रष्ट अफसरों को पकड़ना होगा. जेल भेजना होगा. उनमें डर पैदा करना होगा. कोई मंत्री भी अगर बेईमानी करते पकड़े गये, तो उनके साथ भी नरमी नहीं बरतनी होगी. चाहे अपने दल का हो, करीबी हो, सहयोगी दल का हो, गड़बड़ी करता हो तो उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी होगी. अगर ऐसा कर पाते हैं, तो आगामी चुनाव में बेहतर छवि, काम करनेवाली और फैसला लेनेवाली सरकार के नाम पर उतर सकते हैं. यह सब संभव है, अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, नफा-नुकसान की जगह राज्य हित पहले हो.

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