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भारतीय सिनेमा : बेजुबान किरदार की सिनेमाई आवाज

फिल्म ‘मुक्काबाज’ की बेजुबान लड़की का किरदार एक प्रतीक है, लेकिन ‘बेजुबान’ होने का नहीं, बल्कि इसका कि भाषा-अभिव्यक्ति की समूची संपदा होते हुए भी पुरुषसत्तात्मक समाज कैसे उनसे एक बेजुबान-सा बर्ताव करता आया है. त माम सही आैर गलत कारणों से अपनी गुणवत्ता से कहीं ज्यादा फुटेज हासिल कर चुकी ‘पद्मावत’ में शायर अमीर […]

फिल्म ‘मुक्काबाज’ की बेजुबान लड़की का किरदार एक प्रतीक है, लेकिन ‘बेजुबान’ होने का नहीं, बल्कि इसका कि भाषा-अभिव्यक्ति की समूची संपदा होते हुए भी पुरुषसत्तात्मक समाज कैसे उनसे एक बेजुबान-सा बर्ताव करता आया है.

त माम सही आैर गलत कारणों से अपनी गुणवत्ता से कहीं ज्यादा फुटेज हासिल कर चुकी ‘पद्मावत’ में शायर अमीर खुसरो के किरदार को तकरीबन किसी एक्स्ट्रा की तरह सामने से गुजरता आपने देखा होगा. अफसोस होता है यह सोचकर कि साहित्य से इतर दायरों की खुराक हासिल कर बड़ी हो रही नयी पीढ़ी के लिए भविष्य में यह फिल्म मलिक मोहम्मद जायसी आैर अमीर खुसरो जैसे कवियों के नाम से परिचय का पहला अध्याय बन सकती है.
लोकप्रिय हिंदी सिनेमा गजब की विविधरंगी शय है. यहां ‘पद्मावत’ है, तो यहां ‘मुक्काबाज’ भी है. अनुराग कश्यप की खांटी धरतीपकड़ फिल्म ‘मुक्काबाज’ देखते हुए मुझे करीब सात सौ साल पहले हुए खड़ी बोली हिंदी के पहले अजीम कवि अमीर खुसरो बेहद याद आये.
खुसरो का एक तड़पभरा गीत है ‘काहे को ब्याही बिदेस रे’ जिसमें तरुणा नवब्याहता लड़की अपने पिता से ‘परदेस’ में ब्याहे जाने का दर्द बयां कर रही है. घर-आंगन के तमाम जिंदा बिंबों में समान यही है कि इनमें जीवन का अंश है. सबमें दर्द है आैर उस दर्द की अभिव्यक्ति भी. लेकिन, इनके पास अपनी बात कहने के लिए वह भाषा नहीं है, जो मनुष्य ने अपने लिए रची है. लड़की अपनी तुलना कोयल से, कलियों से, चिड़िया से आैर घर की गाय से करती है. मनुष्य की भाषा में सारे ‘बेजुबान’ प्रतीक. लेकिन, इस तुलना से क्या यह समझा जाये कि मानवीय भाषा का हासिल होते हुए भी हमारे समाज में एक स्त्री की उपस्थिति किसी ‘बेजुबान’ सरीखी है?
अनुराग कश्यप ने एक साक्षात्कार में कहा है कि ‘मुक्काबाज’ की नायिका सुनयना मिश्रा का गूंगा होना कहानी का टूल भर नहीं. यह एक प्रतीक है हमारे समाज में स्त्रियों की दशा का आैर उनके साथ किये जानेवाले बर्ताव का. लेकिन कैसा प्रतीक? प्रतीक उनके ‘बेजुबान’ होने का नहीं, बल्कि इसका कि भाषा-अभिव्यक्ति की समूची संपदा होते हुए भी पुरुषसत्तात्मक समाज कैसे उनसे एक ‘बेजुबान’ सा बरताव करता है.
‘मुक्काबाज’ की नायिका सुनयना बोल नहीं सकती, लेकिन वह फिल्म की सबसे मुखर किरदार है. वह अपनी पसंद को लेकर बहुत स्पष्ट है, और अपने फैसलों को लेकर भी. उसके पास भाषा नहीं, यह भी आप नहीं कह सकते. उसकी भाषा दूसरी है. वह कहानी के नायक श्रवण सिंह से ज्यादा मेच्यौर है, और ज्यादा बेचैन भी. वह रिश्ते में अधिकार की आकांक्षी है, आैर उस अधिकार को वह कहकर हासिल करती है. अपने प्रेमी को अपनी भाषा सीखने पर मजबूर करती है.
आज समय की समझदारी यही है कि भिन्न रूप से सक्षम व्यक्तियों के लिए ‘सुविधा के टापुअों’ की स्थापना समस्या का हल नहीं. हमारे सामान्य सार्वजनिक संसार को ही उनके अनुकूल होना होगा. ठीक इसी तरह, हमारे लोकप्रिय सिनेमा में भी भिन्न रूप से सक्षम किरदार तभी दिखते हैं, जब हम उनका मुद्दा उठाना चाहते हैं. लेकिन, उन्हें होना तो हर जगह चाहिए. बेवजह. प्रेम, जाति से लेकर रोजगार तक की उन्हीं तमाम समस्याअों से जूझते, जो अन्य तथाकथित ‘सामान्य’ इंसानों की हैं.
एेसे में सुनयना मिश्रा का किरदार एक प्रस्थान है. क्योंकि, उसका बोल ना पाना एक तथ्य भर है कहानी के लिए. ‘मुक्काबाज’ शारीरिक विभिन्नता के लिए ना कोई सहानुभूति रचती है, ना कोई विशेष वातावरण. यहां भी फिल्म लोकप्रिय सिनेमा के पुरानी चली आती लीक को तोड़ती है. जाति के बंधनों में उलझी इस ‘स्पोर्ट्स फिल्म’ की नायिका सुनयना मिश्रा का बोल ना पाना, फिल्म की कहानी की मुख्य वजह ना होते हुए भी − बेवजह, एक ऐसा शुभ प्रस्थान है, जिसका अपनी तमाम जटिलताअों के साथ स्वागत किया जाना चाहिए. आैर खुसरो की नायिका जब खुद की तुलना घर के अन्य ‘बेजुबानों’ से करती है, तो उस स्त्री की बोली में छिपा व्यंग्य भी अब तो हमें समझ ही लेना चाहिए.
मिहिर पंड्या, फिल्म क्रिटिक

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