वाराणसी : गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल काशी का नाम सैकड़ों वर्षो से देश और दुनिया में सांस्कृतिक एवं धार्मिक केंद्र के रुप में काफी अदब से लिया जाता रहा है… गंगा नदी, प्रेमचंद्र का गांव लमही, शिक्षा का केंद्र, बुनकरों एवं कारीगरों के हुनर के प्रतीक इस शहर को अब अपनी उसी पुरानी पहचान को वापस पाने का इंतजार है. इसकी अपेक्षा वाराणसी के लोगों को इस चुनाव में हैं जहां से भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल खम ठोंक रहे हैं.
जनवादी लेखक संघ के डा. लाल बहादुर वर्मा ने कहा कि वाराणसी की पहचान के अनेक प्रतीकों में प्रेमचंद्र का नाम प्रमुख है और उनकी जन्मस्थली लमही इसकी आत्मा से कम नहीं है. वैसे जो लमही मन और आत्मा में बास करती थी, उसका स्वरुप अब किसी कोने में भी नहीं दिखाई देता. लमही में अब कोई गांव नहीं बल्कि एक बसता हुआ शहर सांस लेता है.
उन्होंने कहा कि बनारस में गंगा नदी में प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है और लोगों की जीवनधारा मानी जाने वाली यह पवित्र नदी की पीड़ा शायद किसी को नहीं दिखायी दे रही है. जाने माने चिंतक के एन गोविंदाचार्य ने कहा कि अधिसंख्य क्षेत्रों की तरह वाराणसी में होरी, धनिया जैसे पात्र तो हैं लेकिन बाजारवाद के इस युग में इन पर निगाह डालने वाला या सुध लेने वाला कोई नहीं है. आज कथित विकास सरकारी योजना तंत्र का शिकार हो गया है. यह प्राचीनतम शहर काशी इसका जीता जागता उदाहरण है.
सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि वाराणसी से लमही तक आम के घने बागों की छांव की जगह बिल्डरों की धमक है. इनकी सरपरस्ती में खेतों की तेजी से प्लाटिंग हो रही है. गांव की खोल उतारकर कस्बे अब शहर बनने की राह पर है… एक बेतरतीब ढंग से बसते शहर के रुप में. लोगों को ऐसा लगता है कि सब कुछ दरक गया है. बनारसी साडियों के लिए मशहूर यहां के बुनकरों की दशा तो दयनीय है.
गोविंदाचार्य ने कहा कि वाराणसी में गंगा के निर्मलीकरण का मुद्दा हमेशा से राष्ट्रीय स्तर पर छाया रहा. देश में जब भी नई सरकार बनने का दौर आया, गंगा के प्रदूषण का मामला सुर्खियों में रहा. चुनाव बाद शायद यह मुद्दा ही गौण हो गया.
देशी विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र वाराणसी आज समस्याओं के मकडजाल में उलझा हुआ है. गलियों..सडकों की बदहाली, यातायात की जटिल समस्या सिमटने की बजाए फैलती ही जा रही है. पहचान से जुडे बनारसी साडियों के बुनकरों पर संकट, बिजली की समस्या, नया उद्योग नहीं आने से रोजगार का संकट… ऐसे मुद्दे लोगों की जुबान पर रहते हैं लेकिन एक के बाद एक चुनाव के बाद भी इसका कोई समाधान नहीं निकलता है.
वाराणसी के समाजशास्त्री बुद्धिराज मिश्रा ने कहा कि शादियों में बनारसी साडियां परंपरा के तौर पर खरीदी जाती है. लेकिन बनारसी साडी उद्योग अब अपनी चमक खोता जा रहा है, उद्योग संकट में है, बुनकर बदहाल है और अपना पारंपरिक पेशा छोड़ने को मजबूर हो रहा है. चुनाव में वादों की चासनी से अब बुनकर समुदाय उब चुका है.
उन्होंने कहा कि ऐसे में अब यह देखना होगा कि इस बार बनारस के हिस्से में क्या आता है ? क्या परंपराओं को अपनी आंचल में समेटे वाराणसी की झोली में विकास की कुछ बूंदे गिरती है या नहीं ? या फिर चुनावी वादे चुनाव खत्म होने के साथ हवा हो जायेंगी.
गंगा निर्मलीकरण के लिए काम करने वाले स्वामी अवमुक्तेश्वरानंद ने कहा कि गंगा की अविरल एवं निर्मल धारा सुनिश्चित करने का मुद्दा काशी से नहीं उठेगा तो और कहां से उठेगा. चुनाव में इस बार उम्मीदवारों एवं राजनीतिक दलों को गंगा की अविरल एवं निर्मल धारा के संबंध में शपथ लेकर वादा करना होगा.
वाराणसी की स्थिति आज ऐसी हो गई है कि हल्की बारिश में शहर बदहाल हो जाता है. गांव की स्थिति बदली है… अब गांव में पुराने बाग, ट्यूबवेल नहीं मिलेंगे… पुराने कच्चे मकानों के स्थान पर पक्के मकान नजर आते हैं, सरकारी योजनाओं का बोर्ड दिखता है लेकिन कोई भी काम पूरा नहीं दिखा है. गोदान, कर्मभूमि, रंगभूमि, निर्मला जैसे उपन्यासों, पूस की रात, कफन, नमक का दारोगा जैसी कहानियों के पात्र कथित विकास के दावों के बीच आज भी मौजूद है लेकिन आज कोई भी इनकी सुध लेता नहीं दिखाई दे रहा है.
वाराणसी के कारोबारियों की अपनी ही दलील है… उद्योग चलाने के लिए पर्याप्त बिजली नहीं है. इंडस्टरीयल फीडर से भी वे 12-13 घंटे से अधिक बिजली नहीं मिलने की शिकायत करते हैं और वोल्टेज के उतार चढ़ावे से उपकरणों को नुकसान की बात अलावा. मानव संसाधन तो हैं लेकिन माहौल के अभाव में निवेश पर मुनाफा नहीं मिलता.
उम्मीदों के सैलाब के बीच वाराणसी के लोग इस बार राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों से जवाब चाहते हैं जहां से भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी, दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, कांग्रेस के अजय राय समेत कई उम्मीदवार मैदान में हैं.