आम चुनाव में सभी पार्टियां मुसलमानों को रिझाने में जुटी हैं. कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में मुसलमानों को आरक्षण देने का वादा जोड़ा है, तो कुछ नेता नरेंद्र मोदी के नाम पर मुसलमानों को डराने की कोशिश कर रहे हैं. इससे जुड़े मसलों पर इसलामी विद्वान एवं यूपी में इत्तेहाद फ्रंट गठित करनेवाले सियासतदां मौलाना सैयद सलमान हुसैनी नदवी से बात की वसीम अकरम ने..
आम चुनाव, 2014 के बीच में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में बदलाव कर उसमें जोड़ा है कि वह मुसलमानों को आरक्षण देगी. इसकी क्या जरूरत थी और आरक्षण से क्या लाभ होगा?
इसकी बिल्कुल जरूरत नहीं थी. यह महज एक राजनीतिक शगूफा है, जिसे पिछले छह दशकों से छोड़ने-पकड़ने की कवायद बदस्तूर चलती चली आ रही है और अब भी जारी है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस ने ऐसा राजनीतिक शगूफा छोड़ा था, लेकिन उसे क्या मिला, इस बात का अंदाजा सिर्फ कांग्रेस को ही नहीं, बल्कि शायद सभी को होगा. चुनाव के दरम्यान ऐसी कवायद का कोई मतलब नहीं है और न ही मौजूदा सियासत के ऐतबार से इसकी कोई अहमियत है. देश के आधे से ज्यादा हिस्से में जब चुनाव हो चुके हैं, तो फिर इसके क्या मायने समङो जायें! जहां तक आरक्षण की बात है, तो इससे थोड़ा-बहुत फायदा तो मिलता ही है. जैसे दूसरे पिछड़े वर्गो को आरक्षण मिलता है, वैसे ही अगर मुसलमानों को भी मिले तो इसमें हर्ज ही क्या है. लेकिन हां, किसी वर्ग-विशेष को इसी पर पूरी तरह से निर्भर नहीं होना चाहिए.
आम चुनाव को लेकर जिस तरह की चर्चाएं सुनने को मिल रही हैं, उसमें भाजपा का समर्थन ज्यादा है या कांग्रेस का विरोध?
ऐसी कोई बात नहीं है. लोकतांत्रिक प्रकिया वाले देश में कोई भी चुनाव हो या फिर जीत-हार के फैसले वाले मुकाबले, इनमें पार्टियां और लोग तो चुनावी कुश्ती लड़ने के लिए ही आते हैं. अब अगर किसी का पलड़ा भारी होता है, किसी का हलका, तो इसे लहर से तस्दीक करें या किसी और चीज से, क्या फर्क पड़ता है. ज्यादा से ज्यादा वोट पाने के लिए पैंतरेबाजियां स्वाभाविक सी चीज है. वोट जनता को ही देना है और जीत-हार का दारोमदार तो वोट पर ही है.
अरसे से इस देश में मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में समझा जाता रहा है. क्या आपको इस बार भी यही स्थिति दिख रही है?
इस देश में मुसलमान एक बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग है. इनके वोट से ही ज्यादातर सेक्युलर पार्टियां चुनाव जीतती आ रही हैं, इसलिए मुसलमानों का वोट बैंक बनना तो स्वाभाविक है. यही वजह है कि ये पार्टियां मुसलमानों को लुभाती हैं और दूसरी पार्टियों को वोट न देने के लिए भय दिखाती हैं. पर हकीकत यही है कि सेक्युलरिज्म के नाम पर पार्टियां उन्हें चाहे जितना बहका लें, मुसलमान अपने-अपने क्षेत्रों में अपने मन के मुताबिक अलग-अलग पार्टियों को वोट करते आये हैं. हां इनका प्रतिशत कुछ कम होता है, इसलिए इनमें किसी प्रकार की सामूहिकता नहीं है, जैसे बसपा को लेकर दलित समूहों में है.
अल्पसंख्यकों, खास तौर पर मुसलमानों के विकास को लेकर खूब राजनीति होती है. ढेरों योजनाएं चल रही हैं, लेकिन उनकी हालत जस की तस है. कैसे सुधरेगी यह हालत?
देखिए, किसी भी कौम को सिर्फ सरकार पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए, नहीं तो उसे लेकर राजनीति शुरू हो ही जायेगी. इसलिए अल्पसंख्यक वर्गो को चाहिए कि वे शिक्षा हासिल कर खुद अपने पैरों पर खड़े हों. उन्हें चाहिए कि शिक्षा, नौकरी, सियासत, उद्योग आदि में अपनी नुमाइंदगी दर्ज कराने के लिए वे हर मुमकिन कोशिश करें. जो भी योजनाएं हैं, उनके घर तक चल कर नहीं आयेंगी, इसलिए उनके बारे में जानकारी लेकर उसको अमल कराने की पुरजोर कोशिश करनी चाहिए.
वोट बैंक की राजनीति से बचने के लिए मुसलमानों के पास क्या जरिया होना चाहिए, जिससे वे अपनी सियासी दखल रख सकें?
सबसे बेहतरीन तरीका यह है कि मुसलमान वोट बैंक न बनें, बल्कि अपना वोट बैंक बनाएं. इसके साथ ही वे अपनी सियासी दखल मजबूत करने की कोशिश करें और दूसरी मुख्तलिफ पार्टियों से गंठबंधन की बुनियाद पर अपनी पॉलिसी तय करें, क्योंकि सिर्फ वोटर बने रहने से उनकी तरक्की नहीं हो सकती.
राजनीति के साये तले धर्म के नाम पर जो फसादात होते हैं, उससे तो यही लगता है कि चाहे कोई कितना ही बड़ा लोकतांत्रिक देश क्यों न हो, आखिरी सच्चई धर्म ही है. यह वोटों के ध्रुवीकरण का जरिया भी है. इस स्थिति को आप कैसे देखते हैं?
धर्म के नाम पर या किसी और चीज के नाम पर जो भी फसादात होते हैं, वह सिर्फ ताकत दिखाने के लिए होते हैं. वह ताकत चाहे किसी एक आदमी की हो या किसी वर्ग-समूह की या फिर किसी कौम की. लेकिन यह धर्म का गलत इस्तेमाल है. हमारे समाज में जाति, धर्म, वर्ग, भाषा आदि जैसी विभिन्नताएं हैं और यही इस देश की खूबी भी है, जिसे हम अनेकता में एकता कहते हैं. चूंकि लोग अपनी हर चीज को लेकर ज्यादा आस्थावान होते हैं, इसलिए धार्मिक, जातीय और वर्गीय आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण की संभावना ज्यादा रहती है. पर ऐसा नहीं है कि इस देश में सिर्फ धर्म ही एक सच्चई है. राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल गलत है.
इस देश में बहुत से ऐसे हैं, जिन्हें गांधी जी या मौलाना आजाद के बारे में उतना नहीं पता, लेकिन वर्षो पहले किसने सोमनाथ मंदिर तोड़ा या किसने बाबरी मसजिद गिरायी, इसके बारे में लोग तुरंत बता देंगे. क्या ऐसी चीजों से ही सांप्रदायिकता निकलती है?
ऐसा है तो नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि इसमें एक बड़ी भूमिका हमारी शिक्षा व्यवस्था की है. दूसरी बात यह कि देश का मीडिया भी ऐसे मामलों में इतना बचकाना व्यवहार करता है कि लोग छोटी सी बात को भी बड़ी मान बैठते हैं. कोर्स की किताबें जो कहती हैं और मीडिया जो कहता है, लोगों के जेहन में वही बातें नक्श कर जाती हैं. इसलिए इस व्यवस्था की खामियों को हमें समझना होगा और फिर कहीं जाकर इसमें सुधार करना होगा.
पिछले दिनों जमियत उलेमा-ए-हिंद के मौलाना मदनी ने कहा कि मुसलमानों को नरेंद्र मोदी से नहीं डरना चाहिए, जबकि गुजरात के डॉ जेएस बंदूकवाला कहते हैं कि मोदी के पीएम बनने की चर्चा सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. इस पर आपकी राय क्या है?
मौलाना मदनी ही क्या, पूरी दुनिया कहती है कि डरना सिर्फ अल्लाह से चाहिए. दुनिया के तमाम धर्मो में यही बात कही गयी है कि सिर्फ ईश्वर से डरो. किसको किससे डरना चाहिए, किससे नहीं, कौन सी सरकार मुसलमानों का नुकसान करेगी और कौन सी सरकार भला, ये सब सियासी पैंतरेबाजी है. अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं, तो इसमें डरने की क्या बात है? मेरा तो मानना है कि जैसे हमाम में सब नंगे होते हैं, वैसे ही इस वक्त देश की सभी सियासी पार्टियां भी एक जैसी ही हैं.
प्रभात खबर एक अभियान चला रहा है, ‘वोट करें देश गढ़ें’. आपके विचार से वोट देना क्यों जरूरी है और राष्ट्र की मजबूती के लिए अपना वोट देते वक्त मतदाताओं को किन-किन बातों का ख्याल रखना चाहिए?
देश के हर बालिग मर्द-औरत को वोट देना चाहिए. यह एक जिम्मेवारी है और कानूनी हक का इस्तेमाल भी है. यह जिम्मेवारी निभा कर ही अपने कानूनी हक का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है. लोकतंत्र का तकाजा है कि हम अपना नुमाइंदा खुद चुनें और उनसे अपनी परेशानियों का हल निकलवाएं. अगर थोड़ी-थोड़ी ही सही देश के हर हिस्से की तरक्की होगी, तो पूरे देश की तरक्की होगी. लेकिन किसी भी हिस्से की तरक्की उस इलाके के नुमाइंदों पर ही निर्भर करती है. इसलिए हमेशा अच्छे और ईमानदार उम्मीदवारों को ही वोट दें.
सियासत में दखल
लखनऊ में पैदा हुए हदीस के प्रोफेसर ‘अल्लामा सैयद सलमान अल हुसैनी अल नदवी’ इसलामी विद्वान की हैसियत से दुनिया भर में इसलामी शिक्षा देने के लिए जाने जाते हैं. अरबी और उर्दू में कई किताबें लिख चुके मौलाना सलमान लखनऊ के दारुल-उलूम नदवातुल उलेमा मदरसा के फैकल्टी ऑफ शरिया के डीन हैं और सियासत में भी दखल रखते हैं.