पंचातनामा डेस्क
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का एक जुमला आज भी लोग भूले नहीं है. उन्होंने कहा था कि वह दिल्ली से एक रुपये गांव वालों के लिए भेजते हैं, तो उसमें 16 पैसे ही गांव के लोगों तक पहुंच पाता है. गाहे-बगाहे उसकी चर्चा अब भी सत्ता में बैठे लोग से लेकर मंत्री और अधिकारी तक करते हैं. गांव-चौपाल पर भी इसकी चर्चा होते ही रहती है. हाल के सालों में गांव का बजट गुणात्मक रूप से बढ़ा है.
लेकिन गांव की सूरत तुलनात्मक रूप से उस अनुपात में नहीं बदली है. अब भी झारखंड जैसे राज्य में 35 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं. झारखंड के ग्रामीण इलाकों में लोग बीपीएल दज्रे और इंदिरा आवास की जितनी मांग करते हैं, उतनी किसी दूसरी चीज की नहीं. यह मांग ही सामाजिक स्तर की सूचक है. ग्रामीणों को लगता है कि अगर वे बीपीएल के दायरे में आ जायेंगे तो बहुत सारी सरकारी योजनाओं व सुविधाओं का वे लाभ ले सकेंगे. वहीं, अगर लोग इस स्तर से ऊपर आ जायेंगे, तो उनकी मांगों की प्राथमिकता स्वत: बदल जायेगी. तब वे गांव में सड़क, बिजली, पानी और शिक्षा व रोजगार जैसी पांच प्राथमिक चीजों की मांग करने लगेंगे. लेकिन अभी इन मांगों का दर्जा यहां बीपीएल व इंदिरा आवास के बाद ही आता है. बहरहाल, सरकार गांव की सूरत बदलने का ढोल खूब पीटती है. पर, गांव बदले हैं, लेकिन उस स्तर तक नहीं जिस तरह उसे प्रचारित किया जा रहा है.
बजट के अनुपात में नहीं घटती गरीबी
सरकार का ग्रामीण बजट कई गुणा बढ़ा है. गांव के लिए ढेरों योजनाएं शुरू की गयी हैं. लेकिन जिस अनुपात में गरीबी में कमी आनी चाहिए, उस अनुपात में नहीं आयी. प्रो सुरेश डी तेंदुलकर कमेटी के गरीबी मापने के फामरूले के अनुसार, 1993-94 में देश की 50.1 प्रतिशत ग्रामीण आबादी गरीब थी, जो 2011-12 तक आधी यानी 25.7 प्रतिशत हो गयी. शहर में यह प्रतिशत 31.8 था जो 13.7 प्रतिशत हो गया. लेकिन इस आंकड़े को प्रतिशत की जगह संख्या के हिसाब से देखेंगे तो 1993-94 के 40.37 करोड़ गरीबों की तुलना में 2011-12 में देश में 26.93 करोड़ गरीब थे.
इसी अवधि में ग्रामीण गरीबों की संख्या 32.86 करोड़ से घट कर 21.65 करोड़ हुई. यानी गरीबों की कुल संख्या में से एक तिहाई लोगों को हम गरीबी रेखा से बाहर ला पाने में सफल हुए. तेंदुलकर कमेटी के यह अध्ययन में ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 816 रुपये मासिक आय को गरीबी रेखा से बाहर माना गया है, जबकि शहरी क्षेत्र में इसे 1000 रुपये माना गया है. यह भी दिलचस्प है कि शहर की तुलना में गांव में सालाना गरीबी में कमी आने का प्रतिशत ज्यादा है. वह प्रतिशत 2005-06 के बाद और बढ़ा है. यानी साल 2005 के बाद एक साथ शुरू किये गये कई तरह के जनकल्याणकारी कार्यक्रमों ने गांव के लोगों को बड़ा संबल दिया है. इससे उनके अंदर सामाजिक चेतना आयी है, उनकी आवाज मुखर हुई है और वे उन सुविधाओं व सेवाओं का लाभ भी ले रहे हैं, जिससे अबतक वे वंचित रहे हैं. पर, यह उपलब्धि उस अनुपात में नहीं है, जिस अनुपात में बजट आवंटित हुआ है. श्रम अर्थव्यवस्था के जानकार डॉ हरिश्वर दयाल कहते हैं कि योजनाओं-कार्यक्रमों का पूरा लाभ नहीं मिला है, इसके लिए हर स्तर पर लिकेज जिम्मेवार है. वे कहते हैं कि गांव के लिए शुरू की गयी योजनाएं एवं कार्यक्रम जरूरी हैं, लेकिन जो लक्षित समूह है उसके पास उसका उचित लाभ पहुंचाने के लिए इस तरह के लिकेज को रोकना जरूरी है. झारखंड में गरीबी नापने के लिए आय का जो एक निर्धारित स्तर तय किया गया है, वह देश के औसत से भी कम है. यहां 748 रुपये प्रति माह प्रति व्यक्ति के दर से हासिल करने वाले ग्रामीण परिवार को गरीबी रेखा से बाहर माना गया, जबकि शहर के लिए यह सीमा 974 रुपये रखी गयी. यानी झारखंड देश के औसत से भी पीछे चल रहा है.
किस तरह बढ़ा ग्रामीण बजट
जब नरेगा कानून 2005 में बना तब 2006-07 के बजट में इसके लिए 11, 700 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे. वहीं यह राशि सात साल बाद 20013-14 के बजट में तीन गुणा यानी 33 हजार करोड़ रुपये हो गयी. भारत निर्माण के तहत ग्रामीण इलाकों में पेयजल आपूर्ति, गांवों को ग्रामीण सड़क से जोड़ने, सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने जैसे कार्यो के लिए 2005-6 का 12,160 करोड़ का बजट डेढ़ गुणा बढ़ कर 18,696 करोड़ रुपये हो गया. सरकार के आठ फ्लैगशिप कार्यक्रमों का बजट 2005-6 के बजट की तुलना में 2006-7 के बजट में डेढ़ गुणा बढ़ा. यह राशि 34, 927 करोड़ रुपये से बढ़ कर 50, 015 करोड़ रुपये हो गयी. सरकार के इस फ्लैगशिप कार्यक्रम में सर्वशिक्षा अभियान, पूर्वोत्तर का विकास, मिड डे मिल, पेयजल एवं स्वच्छता, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, आइसीडीएस, नरेगा-रोजगार गारंटी योजना, जवाहर लाल रिनुवल इनर्जी, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना, महिला एवं बाल विकास से संबंधित योजनाएं, अनुसूचित जाति-जनजाति का विकास, कस्तूरबा आवासीय छात्रवास एवं अल्पसंख्यक विकास जैसी योजनाएं शामिल हैं.
20012-13 की तुलना में वर्ष 2013-14 के ग्रामीण बजट में 46 प्रतिशत की वृद्धि हुई. मनरेगा का बजट आवंटन 33 हजार करोड़ रुपये, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना का बजट आवंटन 21, 700 करोड़ रुपये, इंदिरा आवास योजना का बजट 15,184 करोड़ रुपये, बीआरजीएफ का 11,500 करोड़ रुपये, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग का बजट 37, 300 करोड़ रुपये हो गया. यह उल्लेखनीय वृद्धि है.
ग्रामीणों को योजनाओं की भी जानकारी नहीं होती
सरकार ने ग्रामीण विकास व ग्रामीणों के कल्याण के लिए दर्जनों योजनाएं संचालित कर रखी हैं. झारखंड जैसे जनजातीय राज्य के परिप्रेक्ष्य में इस तरह की योजनाएं और अधिक हैं. पर, गांव के लोगों को इसकी जानकारी नहीं है. गांव में अबतक ऐसा कोई मैकेनिज्म नहीं विकसित हो चुका है कि ग्रामीणों को इन योजनाओं की स्पष्ट जानकारी मिल सके. ऐसे में इन योजनाओं का लाभ लेने से भी ग्रामीण वंचित रह जाते हैं. केंद्र सरकार पंचायतों को एक मजबूत व स्वायत्त शासन इकाई बनाने के लिए राष्ट्रीय ग्राम स्वरोजगार योजना, बीआरजीएफ, पंचायत महिला एवं शक्ति अभियान, रूरल बिजनेस हब, पंचायत इंपॉवरमेंट एंड एंकाउंटेबिलिटी इंसेंटिव स्कीम जैसे कार्यक्रम चलाती है. लेकिन बहुत सारे ऐसे पंचायत प्रतिनिधि हैं, जिन्हें इसके तकनीकी पक्ष की जानकारियां नहीं है. इस तरह के कार्यक्रमों के बारे में पंचायत स्तर पर प्रशिक्षण के लिए जितने व्यापक ढंग से अभियान चलाने की आवश्यकता है, वह नहीं हो पा रहा है. पंचायती राज के जानकार व प्रशिक्षक डॉ विष्णु राजगढ़िया कहते हैं : जिन चीजों की जिम्मेवारी पंचायत प्रतिनिधियों को दी गयी है, उसकी जानकारी उन्हें है और जिन विषयों की जिम्मेवारी उन्हें सौंपी ही नहीं गयी उन्हें उसकी जानकारी कैसे होगी. वे कहते हैं कि पंचायत प्रतिनिधि मनरेगा, आंगनबाड़ी केंद्र, स्वास्थ्य केंद्र के संचालन-प्रबंधन में अहम भूमिका निभा रहे हैं. डॉ राजगढ़िया के अनुसार, पंचायत प्रतिनिधि जहां पेयजल एवं स्वच्छता विभाग का काम कर रहे हैं, वहां जा कर उसके लाभ को आप देख सकते हैं. उनका काम काफी बढ़िया रहा है. लेकिन जिस काम की जिम्मेवारी उन्हें नहीं देंगे, उसकी जानकारी उन्हें कैसे होगी. वे कहते हैं : अधिकारी भी काम करते हुए सीखते हैं, पहले से सबको जानकारी नहीं होती.
दरअसल, राज्य में पंचायत राज निकायों के गठन के बाद उन्हें जिला स्तर पर स्वयंसेवी संगठनों द्वारा प्रशिक्षण दिलाया गया. राज्य स्तर पर सर्ड व एटीआइ में निरंतर प्रशिक्षण उपलब्ध कराया जाता है. अलग-अलग संगठनों व विभागों की ओर से उनके लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाये जाते हैं. नि:संदेह इसका लाभ भी हुआ है. लेकिन इसे और भी प्रभावी बनाने की जरूरत है. विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह के प्रशिक्षण से विषयों व अपनी जिम्मेवारी के प्रति उनकी जानकारी गहरी होती है, जिसका लाभ जरूरतमंदों तक योजनाओं की प्रभावी पहुंच व ग्रामीण विकास के रूप में दिखता है.