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फिर भी एक संभावना है तीसरा मोरचा

छह साल तक और फिर कांग्रेस ने दस साल तक चखा, उसकी शुरुआत तीसरे मोरचे की ताकतों ने ही की थी. देश को इस बात से लिए उन्हें कोसने की बजाय उनका ऋणी होना चाहिए. तीसरे मोरचे की सबसे बड़ी ताकत यह है कि उसकी नीतियां पूंजी के मुकाबले जनता के ज्यादा करीब हैं. इसके […]

छह साल तक और फिर कांग्रेस ने दस साल तक चखा, उसकी शुरुआत तीसरे मोरचे की ताकतों ने ही की थी. देश को इस बात से लिए उन्हें कोसने की बजाय उनका ऋणी होना चाहिए. तीसरे मोरचे की सबसे बड़ी ताकत यह है कि उसकी नीतियां पूंजी के मुकाबले जनता के ज्यादा करीब हैं. इसके दायरे में जिन दलों के आने की संभावना है, उनके अपने-अपने विकास मॉडल हैं.

उन सभी माडलों की अपनी-अपनी खूबियां और कमजोरियां है, पर कम-से-कम वे सांप्रदायिक तो नहीं ही हैं. कौन नहीं जानता कि केरल का विकास मॉडल मानव विकास सूचकांक के मामले में दुनिया के बेहतरीन मॉडलों में से एक है..

देश में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के खिलाफ बने माहौल को भाजपा अपने पक्ष में लहर बता रही है, जबकि कई राज्यों में इस वक्त क्षेत्रीय दलों की सरकार है. जयललिता, ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, नीतीश कुमार और नवीन पटनायक जैसे नेता यदि अपने-अपने राज्यों में जनाधार बचा पाने में सफल रहे, तो इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि केंद्र में भाजपा और कांग्रेस से इतर एक तीसरे मोरचे की सरकार बनेगी. कुछ दिनों से राजनीतिक हलकों में इसकी चर्चा तेज हो रही है. तीसरे मोरचे की संभावनाओं पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.

यह लोकसभा चुनाव आक्रामकता, अहंकार, भय और भ्रम के लिए जाना जायेगा. आक्रामकता भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और उनके समर्थकों में देखी जा सकती है. उस आक्रामकता को बढ़ाने में अगर समाज का कोई हिस्सा उनका सर्वाधिक साथ दे रहा है, तो वह है मीडिया. मीडिया के सहयोग के कारण उन्हें जिस तरह का अहंकार हुआ है, वैसा अहंकार देश में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेसियों को हुआ करता था. इस आक्रामकता के साथ बहुसंख्यकवाद भी है और तानाशाही का आह्वान भी. लेकिन आपातकाल को छोड़ दिया जाये, तो कांग्रेसियों का इतना भय इस देश की राजनीतिक और गैर-राजनीतिक जमात में कभी नहीं रहा, जितना भाजपा और उसके नेताओं की आक्रामकता को लेकर है.

एक तरफ इस राजनीतिक आक्रामकता को रणनीति के तहत पैदा किया जा रहा है, तो दूसरी तरफ भय और उसके चलते होनेवाली प्रतिक्रियाओं को भी तरजीह दी जा रही है. भावावेश और व्यक्तिगत हमलों में सनी हुई विमर्श की यह शैली जहां एक गंठबंधन को स्पष्ट बहुमत का संकेत दे रही है, वहीं भारी भ्रम का भी संकेत दे रही है. भ्रम की यही स्थिति भारतीय लोकतंत्र और उसकी जनता की ताकत है और इसी से यह विश्वास भी बनता है कि उसे आसानी से बहलाया नहीं जा सकता. अगर कुछ मीडिया हाउस और कुछ सर्वेक्षण संस्थाएं मिल कर ही चुनाव का फैसला कर लेतीं, तो देश के 80 करोड़ मतदाताओं और लाखों सरकारी कर्मचारियों को शामिल करके इतनी बड़ी कवायद की क्या जरूरत थी?

भ्रम की इसी स्थिति में तीसरे मोरचे की संभावना प्रबल होती है. इस संभावना की बात अब कांग्रेस के नेता भी मानने लगे हैं. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, जो एक दिन पहले क्षेत्रीय दलों पर पाबंदी लगाने का जुमला उछाल चुके थे, को भी अगले ही दिन तीसरे मोरचे की संभावना नजर आयी और उसे कांग्रेस के समर्थन का औचित्य भी समझ में आया. यह भी महज संयोग नहीं है कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने दक्षिण भारत में चुनाव प्रचार के दौरान जयललिता के ‘तमिलनाडु मॉडल’ की तारीफ की और उनकी तरफ से ‘गुजरात मॉडल’ की आलोचना को सही बताया. समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव चौतरफा घेराबंदी और अपनी सरकार की खराब छवि के बावजूद तीसरे मोरचे की सरकार की उम्मीद लगाये हुए हैं, तो जरूर कोई जमीनी सच्चाई है, जो उन्हें इस संभावना के प्रति ऊर्जावान बनाये हुए है.

आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल भी अगर यह लगातार कह रहे हैं कि इस लोकसभा चुनाव से जो सरकार निकलेगी, वह स्थायी नहीं होगी और डेढ़ साल बाद फिर से चुनाव कराने की नौबत आयेगी, तो इसमें उनकी अपनी राजनीति के साथ उस राजनीतिक भ्रम की भी भूमिका है, जिसे वे कई स्तर पर महसूस कर रहे हैं. इतना ही नहीं, माकपा के नेता सीताराम येचुरी भी लगातार कह रहे हैं कि चाहे वह 1989 का नेशनल फ्रंट हो, 1996 का यूनाइटेड फ्रंट या 2004 का संयुक्त प्रगतिशील गंठबंधन, वे सभी चुनाव पूर्व के गंठबंधन नहीं थे. उन सभी का संयोजन चुनाव परिणाम आने के बाद ही हुआ था.

यह सही है कि किसी भी राजनीतिक दल और उसके गंठबंधन के प्रति अगर कोई आकर्षण पैदा होता है, तो उसके पीछे प्रतिद्वंद्वी की नकारात्मक बातें और उस दल की अपनी सकारात्मक बातें जिम्मेवार होती हैं. भाजपा और उसके प्रति अगर जनता में आकर्षण पैदा हो रहा है, तो उसके पीछे यूपीए के शासन के भ्रष्टाचार, कांग्रेस का परिवारवाद और ढीले-ढाले नेतृत्व की नकारात्मक बातें जिम्मेवार हैं. दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को आक्रामक हिंदुत्व और उदारीकरण के साथ खड़ी पूंजी शक्ति दे रही है. नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के साथ जुड़ी यही ताकतें उनके प्रति एक भय भी पैदा कर रही हैं और इसी भय में तीसरे मोरचे की प्रासंगिकता बन रही है.

तीसरा मोरचा, जो है भी और नहीं भी, तमाम क्षेत्रीय ताकतों को मिला कर अपनी संरचना तैयार करता है. उसकी वैचारिक धुरी कभी जनता दल या लोकदल जैसी ताकतें बनाती थीं और वामपंथी दल उसे संभालते थे. आज भी यह धुरी वैसी ताकतों के माध्यम से बनेगी. हालांकि इस मोरचे का वैचारिक आधार लगातार बदलता रहा है. अगर 1989 में इसका आधार गैर-कांग्रेसवाद था, तो 1996 में उसने गैर-भाजपावाद का रूप धारण किया.

तीसरे मोरचे की यह प्राथमिकताएं पहले भी बदलती रही हैं और आगे भी बदलेंगी. पर आज उसका आधार मुख्यत: गैर-भाजपावाद हो गया है. इसका मतलब यह नहीं कि गैर-कांग्रेसवाद उसके डीएनए से निकल गया है. गैर-कांग्रेसवाद अब भी देश के तमाम क्षेत्रीय दलों का प्रमुख राजनीतिक मुद्दा है. लेकिन आज जो स्थितियां बन रही हैं, उसमें दलितों, पिछड़ों के मुद्दों और क्षेत्रीयता व स्वायत्तता के आधार पर खड़े दलों को असली खतरा भाजपा के विस्तार और उसके नेता नरेंद्र मोदी से है.

भाजपा के रणनीतिकारों को भले लग रहा हो कि वे चुनाव के बाद तमाम क्षेत्रीय दलों को अपने साथ ले आयेंगे, लेकिन चुनाव के पूर्व कुछ छोटे दलों को छोड़ कर कोई प्रमुख या सत्ताधारी क्षेत्रीय दल उनके साथ आने को तैयार नहीं हुआ है. अगर आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू साथ आये हैं, तो भी उनका गंठबंधन का रिश्ता सहज नहीं है. लाख कोशिशों के बाद भी टीआरएस उसके साथ नहीं आयी. न ही तमिलनाडु में द्रमुक या अन्नाद्रमुक ने उनका प्रस्ताव स्वीकार किया.

कई दलों को एक साथ जोड़ने का संकट तीसरे मोरचे के साथ भी है. वामपंथी दलों के होते हुए तृणमूल कांग्रेस उसमें नहीं आयेगी और समाजवादी पार्टी के होते हुए बहुजन समाज पार्टी उसका हिस्सा नहीं बनना चाहेगी. इसी तरह अन्नाद्रमुक के होते हुए द्रमुक उसमें नहीं आना चाहेगी. इन सबके बावजूद परस्पर विरोधी दलों का किसी सरकार को भीतर या बाहर से समर्थन देने का प्रयोग इस देश में हो चुका है और उसके कारण सरकार की स्थिरता पर फर्क नहीं पड़ा है. यूपीए-2 का कार्यकाल इसका स्पष्ट उदाहरण है.

इस सरकार को समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी बाहर से समर्थन करती रही हैं. साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि गंठबंधन के जिस प्रयोग का फल पहले भाजपा ने छह साल और फिर कांग्रेस ने दस साल चखा, उसकी शुरुआत तीसरे मोरचे की ताकतों ने ही की थी. देश को इस बात से लिए उन्हें कोसने की बजाय उनका ऋणी होना चाहिए.

तीसरे मोरचे की सबसे बड़ी ताकत यह है कि उसकी नीतियां पूंजी के मुकाबले जनता के ज्यादा करीब हैं. इसके दायरे में जिन दलों के आने की संभावना है, उनके अपने-अपने विकास मॉडल हैं. उन सभी माडलों की अपनी-अपनी खूबियां और कमजोरियां है, पर कम-से-कम वे सांप्रदायिक तो नहीं ही हैं. कौन नहीं जानता कि केरल का विकास मॉडल मानव विकास सूचकांक के मामले में दुनिया के बेहतरीन मॉडलों में से एक है. सचमुच वह ऐसा मॉडल है, जिसका श्रेय एक तरफ माकपा भी ले सकती है, तो दूसरी तरफ कांग्रेस भी. इतना ही नहीं, केरल के बेहतरीन विकास का श्रेय वहां के तमाम छोटे-छोटे दल भी ले सकते हैं.

इसी के साथ तीसरे मोरचे के हिमायती यह दावा भी कर सकते हैं कि कई दलों को मिला कर चलनेवाला मॉडल किसी इलाके को तीसरी श्रेणी का ही नहीं बना देता, उसे प्रथम श्रेणी का स्तर भी दे सकता है. केरल ही क्यों, तमिलनाडु का मॉडल भी देश के किसी राज्य की तुलना में बुरा नहीं कहा जा सकता. कम-से-कम औद्योगिक उत्पादन और मानव विकास सूचकांक के मामले में वह गुजरात से कहीं कमजोर नहीं है.

यहां नीतीश कुमार की चर्चा भी अप्रासंगिक नहीं होगी. नोबेल अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन उनके विकास मॉडल की तारीफ कर चुके हैं. बिहार में सवर्ण समाज का जो हिस्सा मोदी-मोदी कर रहा है, वह जब भी ठंडे दिमाग से सोचता है, तो महसूस करता है कि नीतीश बिहार की डूबती कश्ती को तूफान से निकाल कर लाये हैं, जिसे संभाल कर रखना किसी और के लिए आसान नहीं होगा. नीतीश कुमार ने पटरी से एकदम उतर चुके बिहार में एक संभावना पैदा की है और भाजपा की सांप्रदायिकता को लगाम लगायी है, इस तथ्य से इनकार करना कठिन है. सबसे बड़ी बात है कि उनका यह मॉडल पूंजीपतियों की तरफ नहीं, बल्कि आम आदमी और महादलितों की तरफ झुका रहा है. उधर बीजू जनता दल का ओड़िशा मॉडल जरूर विदेशी पूंजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में रहा है, लेकिन उसकी जननीतियां भी प्रभावी रही हैं.

कुल मिला कर तीसरे मोरचे की सबसे बड़ी ताकत उसकी जनसमर्थक और धर्मनिरपेक्ष नीतियां ही हैं. उसकी सबसे बड़ी कमजोरी एक सर्वमान्य नेता का अभाव है. लेकिन अगर गुजरात जैसे छोटे राज्य का मुख्यमंत्री, जो कभी संसद का सदस्य भी नहीं रहा, वह पूरे देश के विकास और गवर्नेस का दावा कर सकता है, तो मुलायम सिंह और नीतीश कुमार जैसे नेताओं ने तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होकर देश का बखूबी संचालन किया है. वे कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों के मंत्री के रूप में अच्छा काम कर चुके हैं. दूसरी तरफ नवीन पटनायक, जयललिता, मायावती और ममता बनर्जी के पास सुशासन और विकास के अपने-अपने अनुभव हैं, जो किसी मामले में मोदी से कमजोर नहीं हैं. देश अकसर विपरीत परिस्थितियों में विकल्प फेंकता है और यही तीसरे मोरचे की सबसे बड़ी संभावना है.

एनडीए पिछड़ा तो तीसरे मोरचे की सरकार संभव

मनीषा प्रियम सहाय

राजनीतिक विश्लेषक

इस लोकसभा चुनाव में मतदान का जो आधार है, वह है कांग्रेस के खिलाफ मतदान. इस माहौल को भुनाने के लिए भाजपा सबसे सक्रिय नजर आ रही है, जिसे उसके पक्ष में एक लहर के रूप में देखा जा रहा है. कांग्रेस इस बात को पुरजोर तरीके से नहीं कह सकती कि वह सरकार बनाने जा रही है. जहां तक भाजपा का सवाल है, हकीकत यह है कि उसकी उपस्थिति कई राज्यों में है ही नहीं. कांग्रेस-विरोधी मतदान के कारण ही तीसरे मोरचे की संभावना को बल मिल रहा है. हालांकि इसकी संभावना बहुत कम लग रही है, फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि अगर कोई संभावना होगी, तो वह किस रूप में होगी? राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो जयललिता तमिलनाडु में बहुत मजबूत मानी जाती हैं. ओड़िशा में नवीन पटनायक मजबूत स्थिति में हैं.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की ताकत से इनकार नहीं किया जा सकता. ममता जी भाजपा का विरोध करती हैं, लेकिन फिलहाल ‘थर्ड फ्रंट’ यानी तीसरे मोरचे जैसी किसी चीज को भी नहीं मानती हैं और उसे ‘डेड फ्रंट’ की संज्ञा देती हैं. फिर भी भारतीय राजनीति में यह कयास तो लगाया ही जा सकता है कि यदि भाजपा को रोकने के लिए किसी तीसरे मोरचे की संभावना बनती है, तो ममता जी कुछ शर्तो के साथ इसमें शामिल हो सकती हैं. ऊपर बताये गये तीनों राज्यों में ये नेता करीब 90 सीटों पर जीत सकते हैं.

इसके बाद नजर डालते हैं बिहार और उत्तर प्रदेश की स्थिति पर. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उत्तर प्रदेश में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह तीसरे मोरचे के पक्ष में हैं. ऐसे में यदि ये दोनों नेता यदि कुल 40 सीटें भी ले आते हैं, तो वाम मोरचे की कुछ सीटों को जोड़ कर यह मोरचा डेढ़ सौ सीटों का आंकड़ा पा सकता है. ऐसे में कांग्रेस के पास इससे बेहतर विकल्प नहीं होगा कि वह तीसरे मोरचे के साथ जुड़ने की बात करे, क्योंकि वह अपने दम पर भाजपा को नहीं रोक पायेगी. दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी कहते हैं कि वे ममता पर कोई ममता नहीं दिखायेंगे. वे नवीन पटनायक से भी लड़ने को तैयार हैं.

जयललिता पहले उनकी मित्र थीं, लेकिन अब उनसे भी मोदी की नहीं पट रही. इसलिए अगर ऐसी कोई संभावना बनती है कि भाजपा के नेतृत्ववाला गंठबंधन बहुमत से दूर रह गया, तब बहुत संभावना इस बात की होगी कि गैर-भाजपा दलों का तीसरा मोरचा बनेगा, जिसके साथ कांग्रेस भी सहयोग करेगी. हालांकि इस तरह के मोरचे की संज्ञा क्या हो, यह अभी कुछ तय नहीं है. फिर भी कांग्रेस नेताओं के इस इशारे के बाद, कि पार्टी तीसरे मोरचे में शामिल हो सकती है, मतदान के बाकी बचे चरणों में तीसरे मोरचे के दलों को लाभ मिल सकता है. फिलहाल चुनाव परिणाम का इंतजार कीजिए, सही तसवीर उसके बाद ही सामने आयेगी.

बातचीत : वसीम अकरम

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