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‘एकांत के सौ वर्ष’ के रचयिता का जाना

‘मौत ने उसे यह नहीं बताया था कि वह कब मरनेवाली थी, बल्कि उसे अगली छह अप्रैल से अपना कफन बुनना शुरू करने का आदेश दिया. उसे इजाजत थी कि वह उसे जितना चाहे जटिल और महीन बना सकती थी, और उसे सचेत किया कि जिस दिन वह खत्म होगा, उस दिन रात ढले बिना […]

‘मौत ने उसे यह नहीं बताया था कि वह कब मरनेवाली थी, बल्कि उसे अगली छह अप्रैल से अपना कफन बुनना शुरू करने का आदेश दिया. उसे इजाजत थी कि वह उसे जितना चाहे जटिल और महीन बना सकती थी, और उसे सचेत किया कि जिस दिन वह खत्म होगा, उस दिन रात ढले बिना किसी पीड़ा या भय या कड़ुवाहट के, उसके प्राण निकल जायेंगे.’

– ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ से.

इस कालजयी उपन्यास के रचयिता गाब्रिएल गार्सिया मार्केज ने इस महीने की 17 तारीख को दुनिया को अलविदा कह दिया. लेकिन इस अलविदा के पीछे ‘हम मिलेंगे’ जैसे अनगिन शब्द रह गये हैं. वह जादुई यथार्थवाद रह गया है, जिसे मार्केज ने 18 महीनों तक लगातार एक कमरे में बैठ कर ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ के रूप में रचा, जो स्पैनिश में बाइबिल के बाद सबसे अधिक बिकनेवाली कृति बन गया और जिसके लिए उन्हें ‘ईश्वर’ के बाद सबसे बड़ा लेखक कहा गया.

इस जादुई यथार्थवाद (मैजिकल रियलिज्म) यानी ऐसी कल्पना की रचना, जिसे बिना किसी शक-शुबहा के सच मान लिया जाये, की नींव तो नाना के घर बीते मार्केज बचपन में ही पड़ चुकी थी. हां, शुरुआत उस पल से हुई जब मार्केज ने फ्रांज काफ्का की कहानी ‘मेटामौर्फिसिस’ की पहली पंक्ति-‘उस सुबह जब ग्रेगरी साम्सा असहज सपने से जागा तो उसने पाया कि वह बिस्तर पर एक बहुत बड़े कीड़े में बदल गया है.’ पढ़ी. ‘इस तरह से भी लिखने की इजाजत है, मुङो यह पता होता तो मैंने बहुत पहले ही लिखना शुरू कर दिया होता.’ इस आभास के साथ मार्केज ने कहानियां लिखना शुरू कर दिया, जिन्हें बौद्धिक कहानियों के रूप में ख्याति मिली.

6 मार्च, 1927 को जन्मे गाब्रिएल गार्सिया मार्केज के बचपन के शुरुआती साल कोलंबिया के उत्तरी तट के कैरिबीयाई क्षेत्र में स्थित अराकाटाका नामक एक छोटे से शहर में बीते, जहां वे अपने नाना-नानी और तीन मौसियों के साथ एकाकी बालक के रूप में बड़े हुए. एकाकीपन की यह भावना उनके लेखन में भी मिलती है. नाना के घर में बीते बचपन ने ही उनके रचना-संसार को संपन्न किया. जहां नाना, कर्नल निकोलास के साथ उनका गहरा संबंध बना और जिनसे उन्होंने ‘सहस्त्रदिवसीय युद्ध’ के सनसनीखेज वृत्तांत सुने. दैवीय चमत्कारों में विश्वास करनेवाली नानी को रोजमर्रा की घटनाओं को तिलिस्म की तरह व्यक्त करते देखा. इसलिए वह हमेशा कहते थे, ‘मैंने लेखन शैली अपनी नानी से सीखी. मेरे जीवन का अन्य कोई अंतराल पहले आठ वर्षों के अनुभव की तुलना में बेहतर नहीं हुआ.’ पेरिस रिव्यू को दिये साक्षात्कार में उन्होंने स्वीकार किया था, ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ की शैली वही है जिसमें मेरी नानी किस्से सुनाया करती थी. वह हर किस्सा परामानवीय तरीके से कहती थी, लेकिन उसमें एक स्वाभाविकता होती थी.’

हालांकि जादुई कल्पना को यथार्थ से जोड़ कर पेश करने के पीछे पत्रकारिता के उनके अनुभव की भी बड़ी भूमिका रही. इस बारे में उनका कहना था-‘पत्रकारिता ने मेरे उपन्यासों की इस तरह मदद की कि उसने मुङो हमेशा यथार्थ के करीब रखा.’ बगोटा के राष्ट्रीय विवि की कानून की पढ़ाई छोड़ मार्केज पत्रकारिता के पेशे से जुड़े और बारांकील्या में बतौर पत्रकार काम करते हुए वे जेम्स जायस और वर्जीनिया वुल्फ जैसे आधुानिक लेखकों की कृतियों से परिचित हुए. इसी दौरान उन्होंने अपना पहला उपन्यास या उपन्यासिका ‘ला ओखारास्का’ (लीफ स्टॉर्म) भी लिखा. मार्केज ने पत्रकार के रूप में तो जल्द ही ख्याति प्राप्त कर ली थी, लेकिन उपन्यासकार के रूप में पहचान बनाने में उन्हें वक्त लगा. मार्केज दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में से एक हैं, दुनिया में इस बात की स्वीकार्यता में ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ की अहम भूमिका रही. इसके लिए मार्केज को 1982 में साहित्य का नोबेल मिला. इस कृति का अब तक 25 से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और पांच करोड़ से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं. यह उपन्यास जब प्रकाशित हुआ, उनकी उम्र चालीस साल थी. हालांकि अपनी इस कृति को मिलनेवाली प्रसिद्धि के बाद मार्केज ने एक साक्षात्कार में कहा था, ‘रचनाकार के लिए प्रसिद्धि किसी भी उम्र में बुरी होती है. मुङो लगता है कि मेरी रचनाएं, मेरी मृत्यु के बाद प्रसिद्ध होतीं, कम से कम पूंजीवादी देशों में, जहां आप एक आप एक तरह से माल में बदल दिये जाते हैं.’

मार्केज ने ताउम्र दृढ़तापूर्वक कहा,‘मानवता का भविष्य समाजवाद से साथ जुड़ा है.’ इस विचारधारा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के चलते 30 वर्ष तक उन्हें अमेरिका में प्रवेश का प्रतिबंध ङोलना पड़ा. फिर भी अपने उपन्यास ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ में अमेरिकी बाजारवाद को मुंह चिढ़ाते हुए उन्होंने उपन्यास के नायक फ्लोरेंतीनों की कम उम्र की नासमझ प्रेयसी का नाम ‘अमेरिका’ रखा था.

मार्खेज के लिए हमेशा उपन्यास का पहला पैराग्राफ लिखना सबसे कठिन रहा. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था,‘मैंने पहला पैराग्राफ लिखने में कई महीने लगाये हैं. एक बार यह कागज पर उतर आये, फिर बाकी का हिस्सा कहीं आसानी से लिख जाता है.’ वे मानते थे कि पहले अनुच्छेद में लेखक उपन्यास की कई समस्याओं को सुलझा लेता है. उपन्यास की थीम साफ हो जाती है. स्टाइल और टोन हाथ आ जाता है.

पिछले कई बरसों से मार्केज एक ऐसी किताब लिखना चाहते थे, जिसका नायक अंत में मर जाता है. 1994 में वे इस किताब को लिखना शुरू भी कर चुके थे, लेकिन हर रोज उन्हें लगता कि जैसे ही वह इस किताब की आखिरी पंक्ति लिखेंगे, वह खुद मर जायेंगे. इस वजह से चार साल में वह उस किताब के महज दो अध्याय लिख पाए और उसे अधूरा छोड़ दिया. लेकिन वह अपनी अमूल्य और यादगार कृति बहुत पहले ही दे चुके थे. उसी कृति की एक पंक्ति-‘कर्नल औरेलियानो बुएनदीया हमारी महान हस्तियों में से एक थे.’ की तरह मार्केज नाम की महान हस्ती हमेशा दुनिया की स्मृति में दर्ज रहेगी. विश्व साहित्य को सबसे अधिक प्रभावित करनेवाले बीसवीं शताब्दी के इस लेखक की लेखकीय बुनावट आनेवाली कई पीढ़ियों को गढ़ती करती रहेगी.

प्रस्तुति : प्रीति सिंह परिहार

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