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पर्यावरण संरक्षण के लिए समर्पित हैं जंगल की बेटी सूर्यमणी भगत

राहुल सिंह प्रकृति में उनकी असीम आस्था है. प्रकृति को ईश्वर से भी जोड़ती हैं और विज्ञान व जैव विविधता से भी. उनके घर न तो चापानल है और न ही कुआं है या पानी का कोई अन्य स्नेत. फिर भी उनके घर स्वच्छ पानी की दिक्कत नहीं होती. वे इसके लिए प्राकृतिक स्नेत पर […]

राहुल सिंह

प्रकृति में उनकी असीम आस्था है. प्रकृति को ईश्वर से भी जोड़ती हैं और विज्ञान व जैव विविधता से भी. उनके घर न तो चापानल है और न ही कुआं है या पानी का कोई अन्य स्नेत. फिर भी उनके घर स्वच्छ पानी की दिक्कत नहीं होती. वे इसके लिए प्राकृतिक स्नेत पर निर्भर हैं. पास के ही एक झरने का पानी उनका परिवार पीता है. हां, घर में शौचालय जरूर है. वह इसलिए क्योंकि घर के आसपास में गंदगी न फैले और स्वच्छता बनी रहे. हम बात कर रहे हैं, रांची के बुढ़मू प्रखंड के घने वन क्षेत्र में नदी के किनारे घर बना कर रहने वाली सूर्यमणी भगत की. सूर्यमणी की पहचान मूल रूप से एक पर्यावरण कार्यकर्ता की है और इस रूप में उन्होंने दुनिया के कई देशों का दौरा भी किया है.

सूर्यमणि के पिता का घर बुढ़मू बाजार से सटे गांव सिदरौल में है. उनका बचपन उतार-चढ़ाव व संघर्ष के बीच बीता. उन्हें पास के जंगल काफी आकर्षित करते थे. जब सूर्यमणी बड़ी हो गयीं और कोटारी के जंगल में ही रहने की इच्छा जाहिर की तो उनके पिता ने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की. पर, वे जंगल में रहने व पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने के अपने फैसले पर अडिग रहीं.

आज वे जिस जगह पर रहती हैं, वहां चारों ओर हरियाली ही हरियाली है. उनका घर भूर नदी के किनारे है. उन्होंने घर के आसपास हरजोरा, छतनीछाल, तुलसी, एलोविरा, सतावर, भुरकून, ईश्वर मूल, पत्थर चट्टा सहित कई तरह के पौधे लगाये हैं. वे नदी से अवैध बालू उठाव को लेकर चिंता प्रकट करते हुए कहती हैं कि उन्होंने अपने घर के आसपास से बालू के उठाव पर रोक लगा दी है. क्योंकि इससे पर्यावरण, नदी को क्षति होती है.

संस्कृत ऑनर्स छात्र की शिक्षिका बनने में नहीं थी रुचि
सूर्यमणी के पास आप बैठेंगे और चर्चा करेंगे तो एक सांस में वे आपको पर्यावरण के खतरे और भविष्य की चुनौतियां के बारे में बतायेंगी. झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन की सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में वे लोगों को पर्यावरण रक्षा के लिए जागरूक करती हैं. गुमला के विशुनपुन स्थित आवासीय विद्यालय से स्कूली शिक्षा पायी सूर्यमणी ने रांची के मारवाड़ी महिला कॉलेज से स्नातक किया. संस्कृत जैसे विषय में बीए ऑनर्स करने वाली सूयर्मणी के सहायक विषय मनोविज्ञान व अर्थशास्त्र थे. संस्कृत की डिग्री पास होने के कारण उनके पास शिक्षिका बनने का प्रस्ताव था, पर उनका उद्देश्य कुछ और ही था. उन्हें पर्यावरण आकर्षित करता था. झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन के अगुवा संजय बसु मल्लिक के संपर्क में आने के बाद उनका आकर्षण वन रक्षा को लेकर और बढ़ा.

सूर्यमणी बताती हैं : मुङो स्कूल टीचर बनने के लिए कहा गया, लेकिन मेरी रुचि समाजसेवा में ही थी और संजय दा (संजय बसु मलिक) से मिलने के बाद इसमें मेरी रुचि और ज्यादा बढ़ गयी. उनके अनुसार, जब वे रांची में कॉलेज में पढ़ाई कर रही थी, तो उसी समय विभिन्न सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से भाग लेने लगीं. इससे उनका दायरा बढ़ा व तरह-तरह के लोगों से उनकी जान-पहचान हुई.

पर्यावरण रक्षा के बारे में देती हैं जानकारी
जंगल के दोहन व कटाई के पीछे सूर्यमणी मूल कारण भूमंडलीकरण को ही मानती हैं. वे कहती हैं, इसके कारण मौसम में बदलाव आ रहा है और अगली पीढ़ियों के लिए संकट बढ़ता जा रहा है. उनके अनुसार, इससे मौसम की अनिश्चितता बढ़ी है, कभी ठंड में बारिश हो जाती है तो कभी समय पर बारिश नहीं होती. वे कहती हैं कि ऐसी परिस्थितियों को रोकने के लिए हमें काम करना होगा. इसके लिए महिलाओं व बच्चों को प्रशिक्षित करना आवश्यक है. वे जीवन रक्षक पेड़ लगाने पर जोर देती हैं. सूर्यमणी विभिन्न स्कूलों में बच्चों को पर्यावरण संबंधी क्लॉस भी देती हैं. इसके लिए अलावा वे पंचायत प्रतिनिधियों को व विभिन्न संस्थानों में पर्यावरण संबंधी जानकारी देने जाती हैं. वनाधिकार अधिनियम के बारे में भी वे लोगों को बताती हैं. कहती हैं पुराने वन कानून में यह व्यवस्था थी कि अगर जंगल से नदी गुजर रही है, तो वहां मछली नहीं मार सकते. बालू-पत्थर नहीं ले सकते हैं. अब ये चीजें बदली हैं. उनके अनुसार, आदिवासियों व गैर आदिवासियों के बीच वनाधिकार को लेकर संशय की स्थिति उत्पन्न की जाती है, जबकि कानून के अनुसार, वन में रहने वाले किसी समुदाय को इस कानून का लाभ दिया जा सकता है.

विदेश के अनुभव से ली सीख
सूर्यमणी ने मलेशिया, इंडोनेशिया, थाइलैंड व दक्षिण अफ्रीका का दौरा किया है. वे कहती हैं कि उन्होंने उस यात्र में देखा कि कैसे वहां के लोग पर्यावरण संकट को लेकर चिंतित हैं और उसके संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं. वहां के अनुभव से उन्होंने सीखा कि जंगल सिर्फ पेड़ का नाम नहीं है, बल्कि यह जीवन का नाम है. मिट्टी में जो जीव हैं, उन्हें बचाने की सीख उन्होंने अपने अनुभव से ली और इसे आसपास के ग्रामीणों से साझा किया. उन्हें उसके संबंध में प्रशिक्षित किया. वे कहती हैं कि कीटनाशक डालने से छोटे-छोटे कीट खत्म हो जाते हैं जो जैव विविधता व संतुलन के लिए बहुत आवश्यक है. मनुष्य के इन मित्र कीटों को बचाने के लिए वे ग्रामीणों को जागरूक करती हैं. इसके लिए प्रशिक्षण भी देती हैं. बुढ़मू के ही दो गांव लोदमबेड़ा व खुटेर में इसको लेकर बेहतर प्रयोग किया गया है.

वे बताती हैं कि गाय के एक लीटर मूत्र में सात लीटर पानी मिला कर उसमें सिंदवार, करंज, बकैन या नीम या फिर वैसे पौधे जो तीते होते हैं, उसकी पत्तियां डालते हैं. फिर इसका छिड़काव फसलों पर किया जाता है, जो काफी अच्छा कीटनाशक होता है. इस कीटनाशक की खूबी यह है कि यह मनुष्य के मित्र कीटों को कोई क्षति नहीं पहुंचाता, सिर्फ हानिकारक कीट ही इससे खत्म होते हैं.

यूनिसेफ ने बनायी फिल्म
यूनिसेफ ने सूर्यमणी पर 2006 में गर्लस्टार नामक डाक्येमेंट्री फिल्म बनायी. 2007 में रिलीज हुई इस लगभग साढ़े पांच मिनट लंबी फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे उनकी रुचि बचपन से ही प्रकृति में थी और कैसे पशु-पक्षी उनसे मैत्री भाव रखते हैं और वे पर्यावरण संरक्षण के लिए किस प्रकार काम करती हैं. सितंबर 2003 में उन्हें मलेशिया जाने का मौका मिला था. दिसंबर 2003 में विजय भगत से उनका विवाह हो गया. विजय उनके काम में पूरा सहयोग करते हैं. उनका एक बेटा अतुल भगत है, जो एक स्कूल में पढ़ाई कर रहा है.

पांचवी के पाठ्यक्रम में है सूर्यमणी पर अध्याय
सीबीएसइ की पांचवी कक्षा के पर्यावरण की किताब में सूर्यमणी भगत पर केंद्रित एक अध्याय है. इसमें बताया गया है कि किस तरह गांव की लड़की बचपन से ही पर्यावरण में रुचि रखती थी और उसके संरक्षण के लिए वे निरंतर पर्यासरत हैं. उन्हें उस पुस्तक में जंगल की बेटी की संज्ञा दी गयी है. तरंग नामक एक संस्था की भी सूर्यमणी ने स्थापना की है. उन्होंने 2010 के पंचायत चुनाव में बुढ़मू पंचायत से मुखिया का चुनाव भी लड़ा था, लेकिन चुनाव हार गयी थीं.

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