चुनाव में जज्बाती मुद्दों पर ज्यादा ध्यान
क्रिस्टॉफ जेफरलॉट सेंटर नेशनल दे ला रिसर्च साइंटिफिक के रिसर्च डायरेक्टर हैं. फ्रांस की राजधानी पेरिस के साइंसज पो में साउथ एशियन पॉलिटिक्स एंड हिस्ट्री में फैकल्टी हैं. द हिंदू नेशनलिस्ट मूवमेंट एंड इंडियन पॉलिटिक्स: 1925 टू द 1990: इंडियाज साइलेंट रिवोल्यूशन नामक पुस्तक के लेखक हैं.
उनका मानना है भारत के आम चुनाव में नीतियों पर कम बात हो रही है, जज्बाती मुद्दों पर चर्चा ज्यादा है. यहां पेश है भारतीय आम चुनाव पर उनका बेबाक नजरिया..
सेंट्रल डेस्क
एक अखबार को इंटरव्यू देते हुए क्रिस्टॉफ ने कहा है कि भारतीय आम चुनाव के अभियान में जज्बाती मुद्दों पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. निजी हमले ज्यादा हो रहे हैं. नीतियों पर बात कम की जा रही है. प्रधानमंत्री पद के एक उम्मीदवार कह रहे हैं कि 100 स्मार्ट सिटी बनायेंगे, पर आप इसे बनायेंगे कैसे, इसके लिए पैसा कहां से आयेगा, क्या यह सिर्फ निजी उद्यमियों और अमीरों के लिए होगा.
न कोई इसे विस्तार से बता पा रहा है और न ही कोई इसके बारे में पूछ रहा है. किसी भी लोकतंत्र में चुनाव ही वह वक्त होता है, जब आप नीतियों के बारे में प्रश्न पूछ सकते हैं. उन्होंने कहा कि इस चुनाव की तुलना अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव से की जा रही है. मेरा मानना है कि यह समानता सिर्फ खर्च की जा रही धनराशि और व्यक्ति केंद्रित चुनाव के बारे में हो सकती है, लेकिन जहां तक मुद्दों और इस पर बहस की बात है तो बहुत पीछे है भारत़
क्या है इस चुनाव में अनूठापन
पहली चीज कि सिर्फ 18 महीने पहले बनी एक पार्टी का एक असर दिखता है. दूसरी चीज है कि इस बार एक मुख्यमंत्री देश का प्रधानमंत्री बन सकता है. एचडी देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के बाद ऐसा फिर होने के आसार हैं. तीसरी बात कि पहली बार कांग्रेस की कमान एक कम अनुभववाले व्यक्ति के पास है.
मुख्य मुद्दों की अनदेखी : एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि भारत के बड़े दलों में से कोई भी अपने चुनाव अभियान के दौरान आर्थिक, ऊर्जा, राजस्व और पर्यावरण जैसे मुख्य मुद्दों पर फोकस नहीं कर रहा है. पानी और हवा की गुणवत्ता भारते के लिए महत्वपूर्ण मुद्दे हैं.
ऐसा हो गया है मानो इन मुद्दों पर ध्यान देने का काम सर्वोच्च न्यायालय का है. किसी भी जनतांत्रिक सरकार में इन पर नीतियां बनाने का काम अदालत का नहीं होता है. ये राजनीतिक दल हैं, जिन्हें नीतियां प्रस्तावित करनी होती है और जनता को इनमें चुनना होता है.
1990 के बाद राजनीति में परिवर्तन : उदारीकरण ने मध्यवर्ग के उभार में मदद की है. यह ज्यादा राजनीतिक हुआ है. भ्रष्टाचार के प्रति लोग ज्यादा संवेदनशील हैं. उन्हें पर्यावरण के मुद्दे नहीं लुभाते हैं. वे उदारवादी आर्थिक नीतियों के पक्षधर बन गया हैं. अब मध्यवर्ग को समाज में बढ़ती असमानता परेशान नहीं करती है. यही नया मध्यवर्ग है, जो कांग्रेस की बजाय भाजपा को सहयोग कर रहा है. वह एक हिंदू के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहता है. अपनी धार्मिकता से बढ़ते उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाना चाहता है.
दिल्ली में सरकार : भाजपा आगे दिख रही है. मगर यह देखा जाना अभी बाकी है कि क्या वह 272 प्लस का जादुई आंकड़ा हासिल कर पायेगी. यह विश्वास कर पाना बहुत मुश्किल है कि वह इतनी लंबी छलांग लगा पायेगी. मात्र पांच वर्ष में अपनी सीटों दोगुनी कर लेना आश्चर्यजनक होगा. गंठबंधन सरकार की संभावना है.
सरकार गठन में क्षेत्रीय दलों की भूमिका : क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी. अगर एनडीए को लगभग 50 सीटों की कमी होगी तो अन्य दलों के साथ की जरूरत होगी. यहीं पर बारगेन शुरू होगा.
मीडिया की भूमिका : मुङो माफ करें, इस चुनाव में मीडिया अपनी भूमिका नहीं अदा कर रहा है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इमेज ड्राइवर बन गया है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग तथ्यगत रिपोर्टिग नहीं कर पा रहे हैं.
सोशल मीडिया पर : इस चुनाव में सोशल मीडिया की भूमिका होगा. मगर मेरी राय में भारत में ‘युवा वोट’ जैसा कुछ नहीं है. शहरी युवा और ग्रामीण युवा दोनों एक ही तरह से नहीं सोचते हैं.
(इनपुट: बिजनेस स्टैंडर्ड)