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चुनाव 2014 : पाकिस्तान की दृष्टि में

भारत में चल रहे चुनावों में पाकिस्तानी प्रबुद्ध वर्ग भी रुचि दिखा रहा है. दोनों देशों की अंदरूनी और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक-दूसरे की मौजूदगी लगातार बनी रहती है. इस चुनाव से पाकिस्तान की उम्मीदों और आशंकाओं के बारे में पाकिस्तान के कुछ प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों से इमेल के जरिये पांच सवाल पूछे प्रकाश कुमार रे […]

भारत में चल रहे चुनावों में पाकिस्तानी प्रबुद्ध वर्ग भी रुचि दिखा रहा है. दोनों देशों की अंदरूनी और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक-दूसरे की मौजूदगी लगातार बनी रहती है. इस चुनाव से पाकिस्तान की उम्मीदों और आशंकाओं के बारे में पाकिस्तान के कुछ प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों से इमेल के जरिये पांच सवाल पूछे प्रकाश कुमार रे ने…

1. भारत में हो रहे आम चुनावों को आप कैसे देखते हैं?

2. अगर नरेंद्र मोदी देश के अगले प्रधानमंत्री बन जाते हैं, तो क्या वे पाकिस्तान के साथ कठोर रुख अख्तियार करेंगे या पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाने की कोशिश करेंगे?

3. आपसी संबंध सुधारने के लिए दोनों देशों को क्या कदम उठाने चाहिए?

4. पाकिस्तानी मीडिया में भारत के चुनावों की कवरेज पर आपकी टिप्पणी क्या है?

5. अमेरिका के नेतृत्ववाली नाटो सेनाओं की वापसी के बाद अफगानिस्तान क्या भारत और पाकिस्तान के लिए एक समस्या बन सकता है?

– पाकिस्तानियों के लिए मोदी अविश्वसनीय

प्रो इश्तियाक अहमद लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंस में विजिटिंग प्रोफेसर और स्वीडेन के स्टॉकहोम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एमिरिटस हैं. भारत-पाकिस्तान विभाजन और पाकिस्तान में सेना के प्रभाव पर लिखी गयी उनकी किताबें महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ हैं.

1. भारतीय चुनाव पाकिस्तान में हमेशा से लोगों का ध्यान खींचते रहे हैं. आम आदमी पार्टी के मैदान में आने से चुनावों को लेकर उत्सुकता और भी बढ़ गयी है. वैसे भी पाकिस्तान में यह धारणा है कि भारत में चुनाव प्रक्रिया बहुत ठोस है और वैधानिक सरकार के गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है.

2. ज्यादातर लोगों को उम्मीद है कि मोदी का पाकिस्तान और मुसलिम-विरोधी सुर नरम होगा. मैंने कुछ लोगों से यह भी सुना है कि कश्मीर सहित लंबित मामलों को हल करने में मोदी अच्छे सहयोगी साबित होंगे. जबकि कुछ लोग यह भी कहते हैं कि उनके आने से यह स्पष्ट हो जायेगा कि चुनाव जीतने के लिए सांप्रदायिकता एक बड़ा आधार है और भारतीय तंत्र पाकिस्तान विरोधी है. मैं व्यक्तिगत तौर पर यह मानता हूं कि 2002 के दंगों में उनकी संलिप्तता की वजह से पाकिस्तानियों की नजर में मोदी अविश्वसनीय बने रहेंगे. यहां पर तो लोग कतई विश्वास नहीं करते कि नरसंहार में उनकी भूमिका नहीं थी.

3. दोनों देशों के कठोर वीजा नियमों को आसान बनाने की जरूरत है. इसके अलावा, दोनों तरफ से संबंधों में सुधार लाने के लिए ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है. नौकरशाही का दखल कम होना चाहिए. पाकिस्तान में यह सोच है कि व्यापार और जल-विवाद आदि मुद्दों पर भारत अपेक्षाकृत अधिक कठोर है.

4. भारतीय चुनाव को पाकिस्तानी मीडिया में समुचित जगह मिल रही है और इससे संबंधित कुछ टीवी शो भी हो रहे हैं. पाकिस्तानी विदेश विभाग ने यह साफ कर दिया है कि पाकिस्तान सरकार भारत की नयी सरकार के साथ काम करने के लिए तैयार है.

5. नाटो सेनाओं की वापसी से यह आशंका है और यदि ऐसा होता है, तो यह बहुत बड़ी त्रासदी होगी. हमें बेहद परिपक्वता और आपसी सहयोग से काम करने की जरूरत है. लेकिन शायद, स्वार्थी तत्व ऐसा नहीं होने देंगे.

– दक्षिणपंथ की तरफ है भारत कारुझान

डॉ आयेशा सिद्दिका अंतरराष्ट्रीय स्तर की ख्यातिप्राप्त राजनीतिक विश्लेषक हैं. पाकिस्तानी सेना की अर्थव्यवस्था और वहां की सरकार व सेना के संबंधों पर उनकी किताब मिलिट्री इंक बहुत चर्चित रही. पूर्ण रूप से लेखन और अध्यापन से जुड़ने से पहले वे पाकिस्तानी नौसेना में शोध निदेशक के पद पर रह चुकी हैं. पाकिस्तानी सेना में ऐसे उच्च ओहदे पर काम करनेवाली वे पहली स्त्री और असैनिक व्यक्ति हैं.

1. ये चुनाव बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनके परिणाम भारतीय राज्य और समाज की प्रवृत्ति को तीव्र व निर्णायक मोड़ देंगे. एक तरफ कांग्रेस से मतदाताओं का मोहभंग वंश-परंपरा पर आधारित इस पुरानी पार्टी की राजनीति को चुनौती दे रहा है, वहीं दूसरी ओर दक्षिण एशिया और दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत कारुझान भी दक्षिणपंथ की तरफ हो रहा है.

2. पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार को भरोसा है कि भाजपा के नेतृत्व वाली पिछली सरकार की तरह वे मोदी के साथ भी काम कर सकेंगे. लेकिन, पाकिस्तानी तंत्र नरेंद्र मोदी को संदेह की निगाह से भी देखता है. वे 2002 में गुजरात नरसंहार के लिए जिम्मेवार हैं. पाकिस्तान के साथ नरेंद्र मोदी के संबंध भारत में सांप्रदायिकता पर उनकी सरकार के रवैये पर निर्भर करेगा. हिंदू और मुसलिम समुदायों के बीच तनाव बढ़ने से दोनों देशों के संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव पडे़गा.

3. भारत और पाकिस्तान को आपसी वाणिज्य-व्यापार और लोगों के बीच परस्पर संपर्क को बढ़ावा देना चाहिए. इस प्रक्रिया का कोई विकल्प नहीं है. अगर हमारी मानसिकता में बदलाव की कोशिशें नहीं हुईं, तो हम एक-दूसरे से और दूर होते जायेंगे.

4. पाकिस्तान में भारत के चुनावों को लेकर दिलचस्पी का अभाव साफ दिखता है. नरेंद्र मोदी या चुनावों के बाद होनेवाले परिवर्तनों की किसी को चिंता नहीं है. यह अरुचि अफसोसनाक है.

5. नाटो सेनाओं के हटने के बाद अफगानिस्तान को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच प्रतिद्वंद्विता बढ़ने के पूरे आसार हैं. दुख की बात यह है कि अब युद्ध छद्म तौर-तरीकों से लड़ा जायेगा, जिससे तनाव बढे़गा.

(पाकिस्तानी पत्रकार मुहम्मद अकबर नोतजई से बातचीत पर आधारित)

– मोदी के आने से दोनों देशों के बीच हालात और खराब हो सकते हैं

फारूक सुलहेरिया

सह-संपादक

व्यू प्वाइंट साप्ताहिक, पाकिस्तान

1. मेरा मानना है कि मोदी का सरकार में आना पाकिस्तान के सैन्य-तंत्र को चिंतित करेगा. पाकिस्तान की अंदरूनी स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि पाकिस्तानी सैन्य-तंत्र में बैठा कोई पागल व्यक्ति (पाकिस्तानी सेना में ऐसे पागलों की बड़ी तादाद है) ही कश्मीर में घुसपैठ या मुंबई हमले जैसी हरकत करने की कोशिश करेगा. लेकिन गैर-राजकीय और उद्दंड ताकतें ऐसा कर सकती हैं. अगर मोदी की सरकार होगी, तो ऐसी स्थिति में हालात बहुत खराब हो सकते हैं. दूसरा, भारतीय पक्ष के उद्दंड तत्व और गुप्तचर विभाग को मोदी के आने से उत्साह मिलेगा. वे बलूचिस्तान में हस्तक्षेप कर या तालिबानी आतंकियों को उकसा सकते हैं. इस तरह की कई डरावनी स्थितियां पैदा हो सकती हैं. जहां तक सरकार का सवाल है, नवाज शरीफ को सत्ता में आने के साथ ही यह अहसास हो गया था कि सेना उन्हें भारत के साथ संबंध नहीं सुधारने देगी. बेहतर रिश्तों के बारे में अपने चुनाव से पहले के भाषणों और रवैये को अब उन्होंने त्याग दिया है.

2. किसी भी अन्य राजनीतिक दल की तरह भाजपा में भी प्रतिस्पर्धी रुझान और परस्पर टकराते स्वार्थ हैं. लेकिन, इस प्रवृत्ति की एक सीमा है. लेकिन भाजपा और उससे संबद्ध संगठनों में आप किसी गांधीवादी या मार्क्सवादी को नहीं पायेंगे. अटल बिहारी वाजपेयी मृदुभाषी फासीवादी थे, जबकि मोदी की अभिव्यक्ति कठोर है. दक्षिणपंथी और फासीवादी रुझान की भाजपा भारत और दक्षिण एशिया की राजनीतिक संस्कृति में जहर घोलनेवाले समूहों में से एक है.

वाजपेयी का लाहौर आना (जो एक साहसी कदम था) या बाद में पाकिस्तान के फौजी तानाशाह जनरल मुशर्रफ से आगरा में बातचीत का एक खास संदर्भ था. भारतीय अर्थव्यवस्था को 1999 के बाद सैनिक तैयारी में थोड़ी राहत की जरूरत थी. लेकिन, अफगानिस्तान में स्थिति के कारण अमेरिकी दबाव में आगरा-वार्ता हुई थी. मुझे आश्चर्य है कि भारतीय वामपंथी पार्टियां भी जनरल मुशर्रफ के शांति-वार्ता के फरेब में आ गयी थीं. वे एक ऐसी संस्था से हैं, जो कभी भी भारत के साथ शांतिपूर्ण संबंध नहीं रखेंगी. वह एक ढोंग भर था.

इसी तरह, मुझे वाजपेयी जैसे नेताओं से भी कोई उम्मीद नहीं रही है. भाजपा और संघ परिवार को उनके सत्ता में रहते हुए शांति के लिए किये गये एक-दो प्रयासों के आधार पर नहीं, बल्कि उनकी उन भूमिकाओं और राजनीति के आधार पर देखा जाना चाहिए, जो वे सत्ता से बाहर रहते हुए करते रहे हैं. अभी भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत खराब है. जब वाजपेयी सत्ता में आये थे, तब ऐसा नहीं था. मेरी आशंका है कि अगर मोदी सरकार बना पाते हैं, तो वे असली मसलों से लोगों का ध्यान हटाने और प्रतिक्रियावादी लोगों में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए उग्र-राजनीति की शरण ले सकते हैं. वे ऐसा इसलिए भी करेंगे कि बहुत जल्दी ही उनसे बंधी उम्मीदें टूटने लगेंगी.

3. दोनों देशों का सत्ता वर्ग परस्पर संबंधों की बेहतरी के लिए कभी कोशिश नहीं करेगा. इसके लिए दोनों तरफ जनांदोलनों की जरूरत है. सरकारों को नहीं, बल्कि हम लोगों, कार्यकर्ताओं और नागरिक संगठनों को शांति के लिए काम करना होगा. एक तरीका तो यह है कि हम अपनी सरकारों पर इसके लिए लगातार दबाव बनायें. और यह क ई तरह से किया जा सकता है.

4. पाकिस्तानी मीडिया ने अभी तक भारत के चुनावों पर अधिक समय नहीं दिया है. इसका एक कारण पाकिस्तान की मौजूदा राजनीतिक स्थिति हो सकती है. सरकार और तालिबान के बीच बातचीत तथा आतंकी घटनाएं मीडिया का ज्यादातर समय ले रही हैं. इनसे फुरसत हो, तो कहीं क्रिकेट मैच चल रहा होता है. वैसे दुनिया भर में मीडिया का स्थानीयकरण और राजनीति का टीवीकरण हो रहा है.

वैसे भारतीय राजनीति में मीडिया की कम रुचि के अन्य कारण भी गिनाये जा सकते हैं. जो भी हो, इन चुनावों में पाकिस्तानियों की विशेष दिलचस्पी मुझे नजर नहीं आती. फिर भी, इससे संबंधित कुछ कवरेज हुए हैं, लेकिन पाकिस्तानी मीडिया में हो रही बहसें भारतीय मीडिया में पहले ही हो चुकी बहसों के आधार पर ही होती हैं. इस कारण, नरेंद्र मोदी, कांग्रेस और कुछ हद तक ह्यआपह्ण की चर्चा हुई है. लेकिन वामपंथियों और क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में कोई बात नहीं होती है. सोशल मीडिया भी राजनीतिक वातावरण को भ्रमित कर रहा है.

5. मुझे लगता है कि नाटो सेना की वापसी के बाद पाकिस्तान पहले की तरह अपनी सेना की तमाम रणनीतियों के बावजूद तालिबान की आड़ में काबुल पर काबिज नहीं हो सकता है. दिल्ली में मोदी की उपस्थिति में ये दोनों देश अफगानिस्तान में अधिक आक्रामकता के साथ प्रतिद्वंद्विता करेंगे. अफगानियों के लिए यह स्थिति बहुत त्रासद होगी. भारत और पाकिस्तान को भी इससे नुकसान ही होगा. हमें यह मांग करनी चहिए कि दोनों देश अफगानिस्तान में टांग अड़ाना बंद करें. अगर ये वहां पर अस्पताल, विद्यालय और उद्योग में सकारात्मक सहयोग नहीं कर सकते, तो उन्हें वहां तनाव बढ़ाने से भी बाज आना चाहिए.

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