।। अजय सिंह ।।
आज भी अवसाद के वातावरण से परदा उठा देती है यहां की सुबह
बनारस एक बार फिर केंद्र बिंदु में है, पर हवा में अजीब-सी विषाक्तता है. वातावरण इस कदर प्रदूषित कि स्कूल जानेवाले बच्चों को सांस की बीमारी हो जाती है. शहर पूरा दिन धूल की गर्त में डूबा रहता है. गंगा की अपवित्रता जीवन का क्षरण करती है. माफिया व बाहुबलियों के चंगुल में है राजनीति. सचमुच स्तब्ध करती है विश्व के प्राचीनतम शहर की यह दुर्दशा.
लखनऊ की नजाकत और नफासत में पला बढ़ा. फिर अचानक स्नातकोत्तर के लिए बीएचयू जाना पड़ा. बनारस के अल्हड़पन का जरा भी एहसास नहीं था. पंडित मदन मोहन मालवीय की हमारी यूनिवर्सिटी एक अद्भुत कृति थी. कम से कम लखनऊ विश्वविद्यालय तो बीएचयू कैंपस के सामने डिब्बे जैसा लगता था, पर लखनऊ की बात ही कुछ और थी.
बनारस समझ में आ ही रहा था कि होली आ गयी. मैं ‘गुटरू’ हॉस्टल में रहता था और सामने ‘भगवानदास’ हॉस्टल था. शाम को सात बजे सामने के हॉस्टल से अचानक शोर उठा. ‘रे दिनेशवा, रे अवधेशवा साले तेरी..’ अचानक भाषा के इस आक्रमण ने मुङो चकित कर दिया. थोड़ी देर में ‘गुटरू’ हॉस्टल के छात्रों ने ‘जवाबी कार्रवाई’ शुरू की. लगभग दो घंटे चले इस ‘मैच’ में हिंदी और भोजपुरी शब्दों का प्रयोग अभूतपूर्व था. सच में मैं नरभसा गया था. कैसे रहेंगे इस जगह? क्या होगा अगर सामने के छात्रावास की एक टोली आकर मुङो गाली देने लगे?
पर कुछ दिन बाद ही समझ में आया कि बनारस के अल्हड़पन की भी अपनी गरिमा है. गाली बराबर वालों और अपनों को ही दी जाती है. लखनऊ वालों को नहीं. यहां से शुरू हुआ बनारस को आत्मसात करने का मेरा सिलसिला. इस कोशिश में मुङो आंशिक सफलता ही मिली. जाहिर है, मुङो इस बात का एहसास काफी देर से हुआ कि बनारस सभ्यता से भी पुरातन है. हिंदू मान्यताओं के हिसाब से यह ब्रह्मंड का केंद्र है. इसका लखनऊ से क्या मुकाबला?
इस तरह ‘गंजिंग’ (लखनऊ के हजरत गंज में घूमना) छोड़ कर मैं ‘लंकैटिंग’ (बीएचयू गेट, लंका पर घूमना) करने लगा. अक्सर लंका के सब्जी मार्केट में विश्व प्रसिद्ध वायलिन वादक डॉ एन राजम मिल जाती थी. साइकिल चलाते कई विश्व प्रसिद्ध प्रोफेसर, डीन व डॉक्टर मिल जाते थे.
पहलवान की लौंगलता, चचिया की चाय और केशव का पान मुंह में घुलने पर ‘ई हो रजा बनारस’ मंत्र का सार भी समझ में आने लगा. बनारस वास्तव में अद्भुत है. हजारों साल की विरासत को सजीव संस्कृति में पिरोने की यह एक अद्भुत मिसाल है.
पत्रकार बनने के बाद बनारस को एक अलग नजर से देखना पड़ा है. 1989-91 के दौरान बनारस में ताबड़तोड़ दंगे हुए. मदनपुरा और सोनारपुरा की तंग गलियों से होते हुए गोदौलिया जाना आसान नहीं था. अफवाहों पर दंगे होने लगे. 1991 के आम चुनाव से कुछ महीने बाद बनारस में इसी तरह का दंगा हुआ. सिनेमा हॉल से निकली भीड़ पर मदनपुरा के पास हमला हुआ. कुछ ही देर में पूरा शहर दंगों की चपेट में था. भाजपा सरकार और पुलिस ने मुसलिम बहुल क्षेत्रों में जम कर जुल्म किया. यह सब बनारस के पत्रकारों और गणमान्य नागरिकों के सामने हुआ. तत्कालीन विश्व हिंदू परिषद नेता और सांसद श्रीशचंद्र दीक्षित के नेतृत्व में यह सब हुआ. बनारस खामोश रहा. उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, डॉ एन राजम, गिरिजा देवी और राजन-साजन मिश्री के इस शहर की खामोशी दुखदायी थी.
बनारस एक नयी संस्कृति के प्रभाव में था. 1992 के बाद धार्मिक उन्माद बढ़ाने की नयी कोशिश हुई. काशी विश्वनाथ के बगल में ज्ञानव्यापी मसजिद की पिछली दीवार पर हिंदू देवी-देवताओं की पूजा का अभियान छेड़ा गया. पर बनारस की धार्मिक जनता इस उन्माद में नहीं बही. लिहाजा, श्रृंगार गौरी का आंदोलन लोगों ने नकार दिया. पिछले दो दशक की राजनीति ने उन्मुक्त और अल्हड़ बनारस की आत्मा को सांप्रदायिकता व जातिवाद में जकड़ लिया. इतिहास और छवि के एकदम विपरीत बनारस की यह नयी वास्तविकता थी. बनारस वास्तव में ऐसी सभ्यता के रूप में जाना जाता है जहां रूढ़िवाद के साथ उदारवाद का सामंजस्य है.
अवधी में तुलसीदास जब रामचरित मानस लिखते हैं तो उन्हें रूढ़िवादी ब्राrाणों का कोपभाजन बनना पड़ता है. लेकिन वहीं, बाद में तुलसीदास को सम्मान भी मिलता है. जहां कबीर जैसे उन्मुक्त और रूढ़िवाद विरोधी स्वर का भी स्थान है. जहां काशी के अस्सी पर चाय की दुकानों पर मार्क्सवादी चिंतकों, लोहिया के लोगों, संघी टोलियों में वाद-विवाद की स्वस्थ परंपरा थी. जहां होली की मदमस्ती में किसी कवि को यह कहने का भी साहस था कि ‘बनते हो भगवान, तेरी.. .’
बनारस एक बार फिर केंद्र बिंदु में है. पर हवा में अजीब-सी विषाक्तता है. वातावरण इतना प्रदूषित है कि स्कूल जानेवाले बच्चों को सांस की बीमारी हो जाती है. शहर पूरा दिन धूल की गर्त में डूबा रहता है. गंगा की अपवित्रता जीवन का क्षरण करती है. माफिया और बाहुबलियों के चंगुल में है राजनीति. विश्व के प्राचीनतम शहर की यह दुर्दशा सचमुच स्तब्ध करती है.
इस सबके बावजूद, बनारस की सुबह आज भी अवसाद के वातावरण से परदा उठा देती है. अस्सी घाट की सुबह आज भी उतनी ही सजीव है. गंदले पानी में नहाते हुए बनारस के निवासी आस्था और विश्वास की नयी अनुभूति करते हैं. यह विश्वास है हजारों साल की सभ्यता की अंतर्निहित शक्ति में. सामाजिक और राजनीतिक जीवन के गंदलेपन से ऊबे बनारस के निवासी एक आधारभूत बदलाव चाहते हैं. भाजपा अब प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी का यहां से चुनाव लड़ना इसी बदलाव की कड़ी के रूप में देखा जा रहा है.
कुछ लोग इसे हिंदू-मुसलमान के ध्रुवीकरण के परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं. हालांकि नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी के चलते मुसलिम और हिंदू दोनों ही तरफ के वोट बैंकों के अरसे पर चले आ रहे जातिगत समीकरण में जम कर टूट-फूट हो रही है. फिलहाल दोनों तरफ विकास के एजेंडे की चर्चा खूब है. ऐसा बदलाव पहले कभी नहीं दिखा.
बनारसी दृष्टि आम से अलग होती है. हजारों साल से संजोई इस शहर की सभ्यता प्रवाहमान है. यही है वह प्रवाह जिसके चलते औरंगजेब भी काशी विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस नहीं कर सका. इसे बदलने की कुव्वत हिंदूवादी ताकतों में भी नहीं है.
(लेखक गवर्नेस नाउ के प्रबंध संपादक हैं)