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किस बदलाव और इंसाफ़ के लिए मीलों साइकिल दौड़ा रहा ये शख्स

हरियाणा के महेंद्रगढ़ का एक गांव. एक रौबदार से दिखने वाले बुजुर्ग घर के बाहर खाट पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं. वो कहते हैं,"आजकल की लड़कियां कितनी बिगड़ गई हैं. बताओ भला, 10-12 साल की बच्चियां भी प्रेग्नेंट हो जा रही हैं!’ दूसरी तरफ़ से तुरंत सवाल आता है,"ताऊ, क्या आपको पता है 10-12 […]

हरियाणा के महेंद्रगढ़ का एक गांव. एक रौबदार से दिखने वाले बुजुर्ग घर के बाहर खाट पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं.

वो कहते हैं,"आजकल की लड़कियां कितनी बिगड़ गई हैं. बताओ भला, 10-12 साल की बच्चियां भी प्रेग्नेंट हो जा रही हैं!’

दूसरी तरफ़ से तुरंत सवाल आता है,"ताऊ, क्या आपको पता है 10-12 साल की बच्ची के साथ ज़बरदस्ती करने वाले मर्द की उम्र कितनी थी?’

’11 साल की उम्र में मेरा यौन उत्पीड़न हुआ’

"यही कोई 40-42 साल.’ थोड़ी देर की चुप्पी के बाद जवाब सुनाई पड़ता है.

‘तो फिर ये बताइए कि क्या 10-12 साल की लड़की ने 40 साल के पुरुष को गुमराह कर दिया या पुरुष ने उसके साथ ग़लत किया?’

44 साल का एक शख़्स देश में घूम-घूमकर लोगों से ऐसे ही सवाल-जवाब कर रहा है और उन्हें समझाने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि उसका मानना है कि इन कोशिशों से हालात बदलेंगे, बेहतरी आएगी.

इस जुनूनी शख़्स का नाम राकेश है. ये ख़ुद को ‘राइडर राकेश’ कहते हैं क्योंकि वो तमाम जगहों पर साइकिल से ही घूमते हैं.

जबरन टैटू गुदवाने को ना कह रहीं भारतीय महिलाएं

बिहार के रहने वाले राकेश अब तक देश के 13 राज्यों का भ्रमण कर चुके हैं और इस दौरान उन्होंने 18,000 किलोमीटर से ज़्यादा की दूरी तय की है.

वो लोगों से लैंगिक भेदभाव और महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के बारे में बात कर रहे हैं. राकेश तमिलनाडु और पुदुचेरी से लेकर ओडिशा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों का दौरा कर चुके हैं.

राकेश लड़कियों के साथ होने वाले छोटे-छोटे भेदभावों से लेकर रेप और यौन उत्पीड़न जैसे तमाम मुद्दों पर बात करते हैं.

ठीक ठाक नौकरी कर रहे राकेश को अचानक ये सब करने की क्यों सूझी?

वो कहते हैं,’ये सब अचानक नहीं हुआ बल्कि यहां तक पहुंचने के लिए मैंने एक लंबा सफ़र तय किया है. मुझे तेज़ाब के हमले की पीड़ित महिलाओं की ज़िंदगी को क़रीब से देखने का मौका मिला. काम करने का ये जुनून मुझमें उनसे मिलने के बाद ही आया.’

राकेश ने देखा कि तेज़ाब के हमले की शिकार महिलाओं को किस तरह की शारीरिक और मानसिक तकलीफ़ से गुजरना पड़ता है.

अगर ये नौ महिलाएं न होती तो…

उन्होंने कहा, ‘इन औरतों के लिए ज़िंदगी और मुश्किल हो जाती है जब उन्हें अलग-थलग कर दिया जाता है. वो आम लोगों की तरह दुकानों में जाकर सामान नहीं खरीद सकतीं, घूम नहीं सकतीं. लोग अपने बच्चों को उनके पास जाने से रोकते हैं ताकि वो उनसे डर न जाएं.’

यही वजह है कि उन्होंने देश के अलग-अलग जगहों पर जाकर लोगों की मानसिकता समझने की कोशिश की.

अपनी बात लोगों तक रखने के लिए वो लोकप्रिय फ़िल्मों और गेम्स का इस्तेमाल करते हैं.

उन्होंने बताया,’फ़िल्म में अगर हीरो, हीरोइन का पीछा करता है या उसकी मर्जी़ के बगैर उसे छूता है तो उसी बहाने मैं ‘सहमति’ और ‘यौन उत्पीड़न’ जैसे मुद्दों पर बात करता हूं.’

राकेश को अब तक के अपने सफ़र में केरल का माहौल सबसे ज़्यादा पसंद आया.

वो कहते हैं,’यहां मैंने औरतों को बड़ी-बड़ी जगहों पर पार्किंग का इंतज़ाम संभालते देखा. एक महिला अकेले हजारों गाड़ियां संभाल रही थी, पूरे अधिकार और मुस्तैदी से. देर रात दुकानों के शटर बंद करते देखा.’

देश के तमाम राज्यों में घूमने के बाद उन्हें यह महसूस हुआ कि लोगों को कोई ऐसा चाहिए जो उनकी परेशानियां, उनकी बातें सुने.

क्या वाकई जैविक कारणों से पीछे हैं महिलाएं?

वो कहते हैं,"मैं जहां भी जाता हूं, लोग मेरे क़रीब आ जाते हैं. वो अपनी व्यक्तिगत समस्याएं भी मुझे बताने लगते हैं. उन्हें बस कोई ऐसा चाहिए जो कम से कम उनकी बात ध्यान से सुने.’

सफ़र के दौरान राकेश या तो किसी दोस्त के घर रुकते हैं. या फिर स्थानीय लोगों में से कोई उनके रुकने का इंतज़ाम कर देता है.

ये सब न हो पाए तो किसी धर्मशाला, मंदिर, पंचायत भवन या स्कूल में ठहर जाते हैं. वो इमरजेंसी के लिए टेंट लगाने का सामान भी साथ लेकर चलते हैं.

साइकिल ही क्यों?

राकेश कहते हैं, "साइकिल चलाते हुए आप अपने आस-पास की हलचल को बेहतर तरीके से देख सकते हैं. हर दो किलोमीटर के बाद रुक सकते हैं, लोगों से बात कर सकते हैं."

साइकिल से यात्रा करने में खर्च भी कम है इसलिए उन्होंने किसी और साधन की बजाय साइकिल चुनी.

उनका ख़र्च कैसे चलता है?

वो जिन जगहों पर जाते हैं, जिन लोगों से मिलते हैं उनसे चंदे की अपील करते हैं. उन्होंने कहा,’मुझ पर पारिवारिक ज़िम्मेदारियां नहीं हैं. ऐसी ज़िंदगी जीते हुए मुझे अपना खर्च निकालने में ज़्यादा परेशानी नहीं होती."

क्या उनकी कोशिशों से कुछ बदला है?

राकेश को लगता है कि जो मानसिकता सैकड़ों सालों से चली आ रही है, उसे अकेले कुछ सालों में बदलने का दावा करना ग़लत होगा.

वो कहते हैं, "छोटे-छोटे बदलाव ज़रूर आए हैं और मुझे उम्मीद है कि यही छोटे-छोटे बदलाव बड़े बदलावों की नींव रख रहे हैं."

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