”पटना में हुए राष्ट्रीय खेल के आयोजन से ठीक पहले हमारी मेडलों और नियुक्ति पर जब महकमे का कोई अधिकारी सवाल खड़ा करे, दोबारा ट्रायल देना पड़े, तो अंदाज़ा लगाएं उन पलों को हमने कैसे जिया होगा. रिंग और सामने वाले का पंच ये नहीं पूछता कि आप किन परेशानियों से गुजरकर आई हैं. टीस गहरी थी, पर मुक्के से ज़्यादा सीने में फ़ौलाद. मैंने गोल्ड मेडल ही जीता.”
एक सांस में यह सब कहती हुई अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाज़ अरुणा मिश्रा क्षण भर के लिए चुप हो जाती हैं. वो कहती हैं कि ’17 सालों में जितने संघर्ष, उलझनों, बाधाओं का सामना किया, हौसले नहीं होते तो शायद टूट कर बिखर जाती. फिर संघर्ष करने का माद्दा हो, तो महिला या उम्र की दहलीज़ आड़े नहीं आती.’
जमशेदपुर में रहने वाली 38 साल की ये महिला झारखंड पुलिस में इंस्पेक्टर पद पर स्पेशल ब्रांच में तैनात हैं. पिछले दिनों पुलिस विभाग के एक खेल अधिकारी के रवैए से अरुणा मिश्रा बेहद परेशान रहीं. बकौल अरुणा वो दौर उन्होंने एक झटके से पीछे छोड़ दिया है.
रात में ही ये महिलाएं क्यों लगाती हैं मार्केट?
69 किलोवर्ग में वर्ल्ड चैंपियन
हाल ही में अमरीका के लॉस एंजिल्स में आयोजित वर्ल्ड पुलिस गेम्स में उन्होंने मुक्केबाज़ी स्पर्धा के 69 किलोग्राम वर्ग में कनाडा की यानिक फ़ोर्टीन को पराजित कर गोल्ड मेडल जीता है. दो साल पर होने वाली इस प्रतियोगिता में उन्होंने 2015 और 2011 में भी गोल्ड मेडल जीता था.
वो बताती हैं कि इस बार विश्व पुलिस चैम्पियनशिप में भाग लेने के लिए ड्यूटी से महज डेढ़ महीने पहले उन्हें छुट्टी मिली. वीज़ा और अन्य विभागीय प्रक्रिया पूरी करने के लिए पंद्रह दिनों तक जमशेदपुर से रांची की दौड़ लगाती रहीं. बमुश्किल 25 दिनों तक मेहनत कर सकीं.
इन्हीं हौसले के बूते लॉस एंजिल्स से पदक लेकर वापस जमशेदपुर लौटीं तो परिजनों, खिलाड़ियों और शहर के लोगों ने खुशियां मनाई. उनका ससुराल बिहार के रोसड़ा में है. लिहाज़ा हर जीत पर वहां भी खुशियां मनाई जाती रही हैं.
‘हमारी जो मर्ज़ी होगी हम वैसे कपड़े पहनेंगे’
दुधमुंही बेटी और रिंग
यह जुनून ही है कि दुधमुंही बेटी के रहते कई दफ़ा वो रिंग में उतरीं और मेडल जीता. 2004-2006 तक तीन बार विश्व महिला मुक्केबाज़ी में गोल्ड मेडल जीत चुकी हैं. एशियन चैंपियन बनने के साथ राष्ट्रीय स्तर पर भी उन्होंने गोल्ड मेडलों की झड़ी लगाई है.
अरुणा कहती हैं कि ओलंपिक का वक्त आया तो पूरे एक साल लगातार उनकी ड्यूटी लगाई गई. ट्रायल से एक दिन पहले उन्हें शिलांग जाने को कहा गया. नहीं जातीं तो विभागीय कार्यवाई का डर था. रातोंरात फ़्लाइट पकड़कर कोलकाता बारास्ता शिलांग पहुंचीं. लेकिन ट्रायल में पिछड़ गईं. तेज़ी से लड़खड़ाना-संभलना आख़िर कब तक- अक्सर ये सवाल-जवाब वो खुद से करती हैं.
फ़ेसबुक पर लड़की की तस्वीर आपकी बपौती नहीं!
स्टील वीमेन
38 साल की ये महिला जब घर पर होती हैं तब आम भारतीय गृहिणी से अलग नहीं होतीं. बेटियों की पसंद का खाना पकाना, उन्हें स्कूल भेजना और अन्य काम संभालना.
दहलीज़ से बाहर कदम रखते ही उनकी भूमिका पूरी तरह बदल जाती है. पुलिस अफ़सर की ड्यूटी में रौबदार अंदाज़ और फिर मैदान में पसीना बहाती, रिंग में मुक्के बरसाती नजर आती हैं.
कुछ यही वजह है कि टाटा स्टील सिटी की इस शख्सियत को लोग प्यार से स्टील वीमेन कहकर भी पुकारते हैं.
टीवी पर क्यों दिखाया जा रहा महिला का ‘निप्पल’?
संघर्ष के 17 साल
साल 2000 में जमशेदपुर से ग्रैजुएशन करने के बाद अरुणा मिश्रा ने मुक्केबाज़ी सीखना शुरू किया. उनकी बड़ी बहन तरुणा मिश्रा और छोटे भाई भी मुक्केबाज़ी करते थे. तरुणा अभी मुक्केबाज़ी की राष्ट्रीय कोच होने के साथ पुलिस की नौकरी में भी हैं.
अरुणा की शादी 2006 में शादी हुई. शादी के बाद ससुराल में दस ही दिन रह सकी थी कि अगले साल होने वाले विश्व चैंपियन में शामिल होने के लिए निकलना पड़ा. लेकिन ससुराल वालों ने उनका हमेशा हौसला बढ़ाया.
अरुणा पहली बार 2001 में पटियाला में होने वाले नेशनल गेम्स में भाग लेने गई थीं. तब उनके हाथों में जख़्म थे. रिंग में ही घाव से खून रिसने लगा था. मणिपुर की एक लड़की से हार गईं और उन्हें सिल्वर मेडल से संतोष करना पड़ा.
अरुणा कहती हैं कि गोल्ड मेडल जीतने वाली लड़की के मुस्कुराने का अंदाज़ उन्हें अच्छा नहीं लगा था. उस वक्त उन्होंने यही सोचा था कि अगली बार उसे ज़रूर हराएंगी.
2001 में दिल्ली में उसी लड़की से सामना हुआ. पहले ही राउंड में उनके ताबड़तोड़ पंच ने उसे पस्त कर दिया था.
ब्रिटेन से ईरान तक की साइकिल यात्रा
हार नहीं पसंद
साल 2003 में भारतीय टीम के कैंप के लिए चयन हुआ तो मां से कहकर निकलीं कि कैंप में शामिल होना मकसद नहीं टीम का हिस्सा बनना लक्ष्य है. संकल्प सच में बदला और उसके बाद लगातार भारतीय टीम के लिए खेलती रहीं.
अरुणा की मां उर्मिला मिश्रा कहती हैं कि बेटियों ने परेशानी और उलझनों की कभी परवाह नहीं की. बड़ी बहन तरुणा के मुताबिक ‘घर में कभी भाई-बहनों को लेकर फ़र्क नहीं हुआ. सबका लाइफ स्टाइल रफ़-टफ़ रहा’.
अरुणा को हार पसंद नहीं, इसलिए वो अलग-अलग प्रतियोगिताओं के लिए अलग-अलग तरीके से तैयारी करती हैं और उनकी ख़ासियत है कि वो हर प्रतियोगिता में मुक्के आज़माने के लिए तैयार रहती हैं.
रात-दिन मर्दों का भेदभाव झेलती हैं महिलाएँ
अरुणा का परिवार
अरुणा की दो बेटियां हैं. पति शिशर झा चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं.
शिशिर बताते हैं, ”साल 2007 और 2012 में बेटियों के जन्म के बाद कुछ-कुछ महीनों के लिए अरुणा ने प्रैक्टिस रोकी. वरना उनके सिर पर मुक्केबाज़ी का धुन सवार होता है. कब खेलना खत्म करेंगी, उनकी मर्जी. हमें तो वो खुशियां ही देती हैं.”
मुक्केबाज़ी में आज लड़के-लड़कियों की कम दिलचस्पी के बारे में वो कहती हैं कि ‘हरियाणा, पंजाब, असम, मणिपुर से लड़कियां-लड़के निकल रहे हैं. दूसरे राज्यों से भी इक्का-दुक्का खिलाड़ी ही सामने आ रहे हैं. इसकी वजह है साधन-सुविधाओं का अभाव और साई (भारतीय खेल प्राधिकरण) सेंटर का नहीं होना.’
अरुणा कहती हैं, ”मुक्केबाज़ी के लिए ज़िद और जुनून चाहिए. मुक्केबाज़ी में अवसर बढ़ाने के लिए सरकारी नीति और नीयत दोनों ज़रूरी हैं. दरअसल साधारण घरों के बच्चों को लगता है कि जब रोज़गार-नौकरी की गारंटी नहीं, तब क्यों घंटों जूझना. ऐसे माहौल में ज़रूरी है कि मुक्केबाज़ी में अवसर बढ़ाने के लिए सरकारी गंभीरता दिखाए.”
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)