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इस बार रोजगार के लिए मतदान

एमजे अकबर यूपीए के दोनों कार्यकाल के दौरान कमान सोनिया के हाथ में यह चुनाव रोजगार, रोजगार, रोजगार- और हर एक के लिए रोजगार के बारे में है. यह ऊपर से नीचे तक विकास के बारे में है. यह राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बचाने के बारे में है, जिसे दो प्रमुखों वाली सरकार और अत्यधिक आत्मविश्वास […]

एमजे अकबर

यूपीए के दोनों कार्यकाल के दौरान कमान सोनिया के हाथ में

यह चुनाव रोजगार, रोजगार, रोजगार- और हर एक के लिए रोजगार के बारे में है. यह ऊपर से नीचे तक विकास के बारे में है. यह राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बचाने के बारे में है, जिसे दो प्रमुखों वाली सरकार और अत्यधिक आत्मविश्वास के बीच राह भटके शासन ने बरबाद कर दिया है.

यूपीए सरकार के साथ गड़बड़ी की शुरुआत आखिर कहां से हुई? अगर राजनीति के चलायमान कारवां में खास क्षण जैसी कोई चीज होती है, तो वह 2009 में जीत के बाद सोनिया गांधी द्वारा लिया गया एक निर्णय था. यूपीए के दोनों कार्यकालों के दौरान कमान श्रीमती गांधी के हाथ में रही है. वे किसी परदे के पीछे नहीं, बल्कि मनमोहन सिंह के सिंहासन के सामने खड़ी ताकत थीं.

उन्होंने प्रधानमंत्री चुना, उन्होंने आदेश दिया कि किसको क्या विभाग दिया जाये, महत्वपूर्ण मामलों पर आखिरी फैसला उनका ही होता था, और जब वरिष्ठ मंत्रियों के बीच तनातनी पैदा हो जाती थी, जो कि हर दरबार में होनेवाला चिर-परिचित प्रतियोगिता नृत्य है, तो निर्णायक की भूमिका भी वही निभाती थीं.

पांच साल विपक्ष में रहने के बाद जब भाजपा की सीटें कम हो गयीं, तब श्रीमती सोनिया गांधी ने यह मान लिया कि भाजपा अब बुरी तरह बरबाद ब्रांड बन कर रह गया है. उन्होंने और उनके सलाहकारों ने सोचा कि कांग्रेस के लिए निकट भविष्य में सत्ता में बने रहने का रास्ता साफ हो गया है. दिल्ली के कांग्रेस हलकों में कुछ महीने पहले तक यूपीए-3 का जिक्र अक्सर होता रहता था.

ऐसे में स्वाभाविक रूप से डॉ मनमोहन सिंह की कुर्सी की ओर राहुल गांधी को ले जाने की जल्दी की जरूरत नहीं थी. वे कुछ साल और मौज-मस्ती के साथ छुट्टी मना सकते थे और 2014 के चुनाव प्रचार के समय आ जाते. यह युवा वारिस तब भी दृश्य से गायब थे, जब दिल्ली में बलात्कार की नृशंस घटना से आक्रोशित देश के युवा सड़कों पर थे.

लेकिन श्रीमती गांधी ने बुद्धिमत्ता दिखाते हुए इस बात को समझा कि विपक्ष की जगह को खाली छोड़ना खतरे से खाली नहीं है. लेकिन यहीं उनसे एक घातक चूक हो गयी. उन्होंने फैसला किया कि वे और कांग्रेस पार्टी विपक्ष की भूमिका निभाने का दिखावा करेंगे, जबकि डॉ सिंह सरकार चलाने का दिखावा करते रहेंगे. दो उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जायेगी.

जब डॉ सिंह ने शिवशंकर मेनन और एमके नारायणन जैसे अधिकारियों के सहयोग और मिलीभगत से 2009 में हुए शर्म-अल-शेख के गुटनिरपेक्ष सम्मेलन के दौरान बलूचिस्तान विद्रोह में भारत की कथित भूमिका पर अनावश्यक रूप से पाकिस्तान की बात मानी, तो श्रीमती गांधी ने अपने द्वारा ही चुने गये प्रधानमंत्री की खुले रूप से आलोचना की.

लेकिन उन्होंने पाकिस्तान के प्रति प्रधानमंत्री की नरम नीति में बदलाव के लिए कुछ भी नहीं किया. दूसरा, लोकसभा में बजट पर चल रही एक बहस में उन्होंने मार्क्‍सवादी सांसद गुरुदास दासगुप्ता के पॉपुलिस्ट भाषण की खूब प्रशंसा की. लेकिन, असली व्यवहार में उन्होंने कुछ नहीं किया.

आप प्रत्यावर्ती वाण को जाते हुए तो देख सकते हैं, लेकिन इसे लौटते हुए शायद ही आप देख पाते हैं. यह द्वैत कारगर नहीं रहा. लेकिन कांग्रेस नेतृत्व दिल्ली की राजनीति के अपने प्रबंधन से इतना आत्मतुष्ट था कि उसने असली चुनौती-नीचे से आ रहा भूकंप, जिसका केंद्र गुजरात था- को या तो कम करके आंका या उसे देख नहीं सका.

नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के नेताओं को परेशान तो किया था, लेकिन उन्होंने समझा कि चरित्र हनन करके इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है. इसलिए हमने बीते दशक में पुलिस, अदालतों, शिक्षण-संस्थाओं, मीडिया और स्वयंसेवी संगठनों द्वारा एक व्यक्ति की ऐसी गहन पड़ताल देखी, जो 1947 से आज तक किसी भी राजनेता के साथ नहीं किया गया था. इन सबका लक्ष्य गुजरात दंगों की सच्चाई को उजागर करना नहीं था, बल्कि किसी तरह यह दिखाना था कि मोदी इसके लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेवार थे. ऐसा उन्माद था कि इसमें सारी विडंबनाएं खो गयीं. शायद हमें ठीक से अंदाजा नहीं है कि कांग्रेस 1984 के दंगों के मुख्य आरोपी सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर जैसे अन्य दोषियों को आज भी संरक्षित और पुरस्कृत करती आ रही है.

यह सारी कोशिश तब असफल हो गयी, जब ऐसा कोई सबूत नहीं मिला जो उनकी व्यक्तिगत जिम्मेवारी को साबित कर सके. लेकिन, इस प्रक्रिया में किसी को बुरा दिखाना एक हथियार बन गया. यही राहुल गांधी के प्रचार अभियान का आधार है और उन्हें इस बात से फर्क भी नहीं पड़ता कि मतदाता इस हवाबाजी को सुनने के लिए तैयार नहीं है. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सौ से अधिक क्षेत्रों में, जहां मतदान हो चुके हैं, कांग्रेस बड़ी पराजय की कगार पर है. मतदाता रोजगार और अर्थव्यवस्था के लिए मोदी द्वारा भविष्य में किये जानेवाले काम की उम्मीद पर निर्णय ले रहा है.

चुनावी हार की संभावना ने भी कांग्रेस की भाषणबाजी को प्रभावित नहीं किया है. जब आपके पास मुद्दे के रूप में एक शादी हो, जिसे किसी जमाने में गरीब माता-पिता ने तय किया हो और जिसमें आपसी सहमति से अलगाव हो गया हो, तो आप व्यक्तिगत स्तर पर नीचे गिर रहे हैं, जिससे भारतीय चुनावी राजनीति ने छह दशकों से अधिक समय से परहेज किया है. कम-से-कम गुजरात के एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने अपनी पार्टी से ऐसे हथकंडों से दूर रहने को कहा है.

यह चुनाव रोजगार, रोजगार, रोजगार- और हर एक के लिए रोजगार के बारे में है. यह ऊपर से नीचे तक विकास के बारे में है. यह राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बचाने के बारे में है, जिसे दो प्रमुखों वाली सरकार और अत्यधिक आत्मविश्वास के बीच राह भटके शासन ने बरबाद कर दिया है. यह युवाओं को विकास के ताकतवर इंजन के रूप में बदलने के बारे में है, न कि उन्हें भटकता छोड़ देने के लिए है. मुंबई की हालिया यात्रा में मेरी कार चला रहे व्यक्ति ने इसे ऐसे अभिव्यक्त किया- ‘अगर शासन और पांच साल तक ऐसे ही चलता रहा तो मुंबई का मध्यवर्ग गायब हो जायेगा.’ वह खुद को मध्यवर्ग मान रहा था और गरीबी की आशंका को सामने देख रहा था. यह चुनाव भारत के पुनर्जागरण के बारे में है. इसीलिए युवा परिवर्तन के लिए मतदान कर रहे हैं.

(लेखक भारतीय जनता पार्टी के सदस्य हैं.) (साभार: संडे गाजिर्यन)

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