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जातिगत राजनीति के बीच बढ़ जाती है आंबेडकर की प्रासंगिकता

14 अप्रैल को भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर का जन्म दिवस है. जातियों में बंटे भारतीय समाज और इस व्यवस्था पर आधारित शोषण-तंत्र के विरुद्ध उनकी लड़ाई लोकतांत्रिक भारत के आज भी प्रतिमान है. बाबा साहेब के जीवन, संघर्ष और संदेश की प्रासंगिकता से संबद्ध कुछ महत्वपूर्ण सवालों पर देश के प्रख्यात राजनीतिक […]

14 अप्रैल को भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर का जन्म दिवस है. जातियों में बंटे भारतीय समाज और इस व्यवस्था पर आधारित शोषण-तंत्र के विरुद्ध उनकी लड़ाई लोकतांत्रिक भारत के आज भी प्रतिमान है. बाबा साहेब के जीवन, संघर्ष और संदेश की प्रासंगिकता से संबद्ध कुछ महत्वपूर्ण सवालों पर देश के प्रख्यात राजनीतिक समाजशास्त्री प्रोफेसर तुलसीराम से बात की वसीम अकरम ने..

डॉ भीम राव आंबेडकर को लेकर राजनीति तो चलती चली आ रही है, लेकिन उनके विचारों को अपने आचरण में उतारने की कहीं कोई कोशिश नहीं दिखती. ऐसे में वर्तमान भारत में उनके विचारों की प्रासंगिकता क्या है?
वर्तमान भारत में बाबा साहेब की प्रासंगिकता के मद्देनजर दो बातें अहम हैं. पहली बात- धार्मिक और सामाजिक शोषण के विरुद्ध उनकी जो सामाजिक न्याय की अवधारणा थी, हमेशा उसकी प्रासंगिकता बनी रहेगी. क्योंकि धर्म-जाति के आधार पर समाज में फैला भेदभाव कभी खत्म नहीं होनेवाला है. उनका पूरा आंदोलन इस भेदभाव को ही लेकर था और इसीलिए उन्होंने 1932 में पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किया था. पूना पैक्ट में था कि जिन जातियों के साथ भेदभाव किया गया, उन्हें सामाजिक न्याय मिलना चाहिए. इसी आधार पर मंडल कमीशन ने भी सामाजिक न्याय की मांग की थी. इसी आधार पर आज दलितों के सामाजिक न्याय की बात की जा रही है. इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि उनकी प्रासंगिकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है.

अब दूसरी बात- संविधान की रचना में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया और राजनीति में धर्म के हस्तक्षेप के लिए कोई जगह नहीं रखी गयी. इसका अर्थ यह नहीं कि डॉ आंबेडकर धर्म के खिलाफ थे, लेकिन हां, राजनीति में धार्मिक हस्तक्षेप को वे उचित नहीं मानते थे, क्योंकि इससे भेदभाव बढ़ने की संभावना रहती है. इसलिए उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की बात की. आज आम चुनाव के इस दौर में इसी धर्मनिरपेक्षता को भाजपा जैसी पार्टियों से खतरा नजर आ रहा है. डॉ आंबेडकर ने इसे पहले ही भांप लिया था. उस वक्त हो रहे हिंदू महिलाओं से भेदभाव को दूर कर उनको समान अधिकार देने के लिए वे हिंदू कोड बिल लाये थे, जिसे पास नहीं होने दिया गया, जिसके विरोध में उन्होंने 1951 में कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था. इसलिए सामाजिक न्याय की जब-जब बात होगी डॉ आंबेडकर हमारे लिए प्रासंगिक होंगे.

लेकिन दलित हितों की बात करनेवाले कई दलित नेता जैसे- रामविलास पासवान, रामदास अठावले, उदित राज आदि आज भाजपा के साथ हैं. इस पर क्या कहेंगे आप?
देश के पहले आम चुनाव में डॉ आंबेडकर ने अपने घोषणापत्र में लिखा था कि दलितों को कभी भी आरएसएस और हिंदू महासभा, इन दो संगठनों से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहिए. लेकिन आज जहां तक कुछ दलित नेताओं के भाजपा में शामिल होने की बात है, तो ये लोग दलित नेता नहीं, बल्कि स्वार्थी नेता हैं. मंत्री पद की लालच में ये लोग दलबदल हो गये.

आप आंबेडकरवादी भी हैं और वामपंथी भी. क्या आपको ऐसा लगता है कि भारत की वामपंथी पाटियों ने बाबा साहेब के विचारों को ग्रहण किया?
भारत की वामपंथी पार्टियां शुरू से ही आंबेडकर विरोधी नीति लेकर चलती चली आ रही हैं. जब स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था, तब राजनीतिक वर्ग और वामपंथियों का बड़ा हिस्सा गांधी जी के साथ था. लेकिन बाद में हिंदू धर्म के सवाल पर गांधी जी से भयंकर मतभेद खड़ा हुआ. आंबेडकर कहते थे कि भारत की जाति-व्यवस्था हिंदू धर्म की देन है, इसलिए जब तक यह मान्यता खत्म नहीं होगी, तब तक जाति-व्यवस्था खत्म नहीं होगी. इस पर गांधीजी ने कहा, जाति-व्यवस्था ईश्वर की देन है, इसे खत्म नहीं किया जा सकता, लेकिन छुआछूत आदमी की देन है, इसके खिलाफ हमें लड़ना चाहिए. जब साइमन कमीशन भारत आया, तो गांधीजी ने उसका बहिष्कार किया, लेकिन आंबेडकर ने साइमन के सामने दलित समस्याओं को उठाया. यहीं से वामपंथी लोग आंबेडकर को ब्रिटिश एजेंट कहने लगे. दरअसल वामपंथी लोग जाति की समस्या को कभी समझ ही नहीं पाये, इसलिए वे आंबेडकर के विचारों को कभी आत्मसात नहीं कर पाये. यह रिकॉर्ड है कि वामपंथियों ने आजादी के इतने वर्षो बाद जाति की समस्या को लेकर आज तक एक भी आंदोलन नहीं किया है.

तो वर्तमान भारत में जाति-व्यवस्था को लेकर जो समस्याएं हैं, उनका समाधान क्या है?
यह बात सोचनेवाली है कि आखिर यूरोपीय समाज क्यों आगे बढ़ गया? चीन और रूस क्यों आगे बढ़ गये? क्योंकि उन समाजों में कोई जाति व्यवस्था नहीं है. वहां जब किसी के उत्थान की बात की जाती है, तो व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि सामूहिक स्तर पर की जाती है. ब्रिटेन का हर व्यक्ति ब्रिटिश कहलाता है और रूस का हर व्यक्ति रशियन. लेकिन वहीं भारत में हर व्यक्ति के लिए जातिगत-संबोधन अलग-अलग है. इसीलिए इतना संसाधन-संपन्न देश आज तक विकसित नहीं हो सका है. जातिगत भेदभाव खत्म न होने के कारण सबको समान अधिकार नहीं मिल पाता है. यह भेदभाव खत्म हो जाये, तो इसका समाधान आसानी से निकल आयेगा.

देश में कई आंबेडकरवादी पार्टियां हैं, जो उनके विचारों को नहीं, बल्कि उन्हें एक ब्रांड के रूप में अपना रही हैं. क्या आपको लगता है कि ये पार्टियां बाबा साहेब के राजनीतिक विचार-दर्शन को आगे बढ़ा रही हैं?
बिल्कुल सही कहा आपने. वर्तमान में कोई भी पार्टी बाबा साहेब के विचारों पर नहीं चल रही है. 2011 की जनगणना के अनुसार देश में करीब 24 फीसदी यानी एक चौथाई आबादी दलितों की है. सामाजिक भेदभाव वाली नीति के खिलाफ अगर ये खड़े हो जायें, तो धर्म-जाति के नाम पर लोगों को बांटनेवाली हिंदू शक्तियां धराशायी हो जायें. आंबेडकर यही चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1927 में मनुस्मृति को जलाया और मंदिरों के बहिष्कार का नारा दिया. देश के सारे नेता घबरा गये और पांच साल बाद पूना पैक्ट में दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर दी गयी. कहने का अर्थ है कि जिस दिन दलित आधारित पार्टियां आंबेडकर के विचारों पर चलने लगेंगी, उस दिन दलित समाज का उत्थान निश्चित है.

जाति को लेकर कुछ बौद्धिक लोग गांधीजी की कड़ी आलोचना करते हैं और आंबेडकर की तारीफ. दोनों महान व्यक्तियों को आमने-सामने रखने के बजाय क्या इनके अच्छे विचारों को ग्रहण करने की जरूरत नहीं है?
हिंदू धर्म एक शोषणकारी धर्म है. भेदभाव करनेवाला यह धर्म कुछ लोगों को अछूत कहता है. इसे गांधी जी सही ठहराते करते थे, इसलिए आंबेडकर ने इसके विरुद्ध आंदोलन किया. हिंदू धर्म कहता है- एक व्यक्ति अपने पूर्व जन्म के पापों को वर्तमान में भोगता है. इसी बात को गांधी जी कहा करते थे कि दलितों ने पूर्व जन्म में खराब काम किया था, इसलिए इस जन्म में वे दलित हुए. यही वजह है कि सामाजिक न्याय की बात करनेवाले गांधी की आलोचना करते हैं और आंबेडकर की प्रशंसा. लेकिन गांधीजी में ढेरों अच्छाइयां थीं. सांप्रदायिकता के सवाल पर वे हिंदुत्ववादियों के बिल्कुल खिलाफ थे. यह उनकी बड़ी विशेषता थी. इसलिए हमें गांधी और आंबेडकर के बारे में उग्रवादी ढंग से नहीं सोचना चाहिए, बल्कि उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए.

प्रभात खबर एक मुहिम चला रहा है-‘वोट करें देश गढ़ें’. सामाजिक न्याय के लिए वोट की भूमिका को लेकर आपकी राय क्या है?
तीन बाते हैं- जाति, धर्म व क्षेत्रीयता. इन्हीं तीन विचारों पर यह देश राजनीतिक रूप से चल रहा है. जब तक ये तीनों पराजित नहीं होती है, तब तक देश का लोकतंत्र कभी मजबूत नहीं हो सकता. यह सामाजिक सच्चई है. आंबेडकर के समय तक दलितों में जाति-विरोधी राजनीति होती थी. आज दलित राजनीति विशुद्ध रूप से जातिगत राजनीति में बदल गयी है. अब पार्टियां सत्ता में नहीं आ रही हैं, बल्कि जातियां सत्ता में आ रही हैं. सामाजिक न्याय के लिए जरूरी है कि इन तीनों विचारधाराओं के खिलाफ जाकर वोटिंग हो तो लोकतंत्र समृद्ध होगा.

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