अनुज कुमार सिन्हा
राजनीति में ऐसा अवसर बहुत कम आता है, जब नैतिकता के आधार पर कोई राजनेता चुनाव लड़ने से इनकार कर देता है. ऐसा ही एक अवसर आया था 1988 में. हेमवती नंदन बहुगुणा ने 1988 में इलाहाबाद का उपचुनाव लड़ने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि जनता ने उन्हें पांच साल के लिए हराया है.
इसलिए उपचुनाव लड़ने की उनकी इच्छा नहीं है. बहुगुणा एक दमदार नेता माने जाते थे, लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उमड़ी सहानुभूति और अमिताभ बच्चन के क्रेज के सामने वे हार गये थे. अमिताभ को राजनीति रास नहीं आयी थी. उनके भाई अजिताभ बच्चन पर स्विटजरलैंड में पैसा जमा करने के आरोप लगे. बाद में खिन्न होकर अमिताभ बच्चन ने सांसद पद से इस्तीफा दे दिया था. कुछ समय पहले ही वीपी सिंह भी कांग्रेस से अलग हो गये थे. जन मोरचा बन चुका था.
अमिताभ के इस्तीफे के बाद उपचुनाव में विपक्ष एकजुट हो चुका था. भले ही 1984 में बहुगुणा हार गये थे, लेकिन 1988 आते-आते ऐसे में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बन चुका था. बोफोर्स का मुद्दा गरम हो चुका था.
विपक्षी दल एकता की ओर बढ़ रहे थे. ऐसे में बहुगुणा की जीत तय थी, लेकिन उन्होंने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था. उनका मानना था कि जब इलाहाबाद की जनता ने उन्हें पांच साल के लिए हरा दिया है, तो उसका सम्मान करना चाहिए. एक-दो साल के लिए सांसद बनने से बेहतर है चुनाव नहीं लड़ना. उन्होंने इसका पालन भी किया. उपचुनाव हुए. विपक्ष ने वीपी सिंह को मैदान में उतारा. कांग्रेस ने लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र सुनील शास्त्री को प्रत्याशी बनाया. इलाहाबाद से ही लाल बहादुर शास्त्री चुनाव जीतते थे, लेकिन उनके पुत्र हार गये. वीपी सिंह ने उन्हें एक लाख दस हजार मतों से हराया था. उपचुनाव लड़ने से इनकार करने के बाद बहुगुणा कभी सांसद भले ही न बन सकें हो, लेकिन उन्होंने राजनीतिज्ञों को नैतिकता का जो संदेश दिया था, उसे आज भी सम्मान के साथ याद किया जाता है.