।। शंकर शरण ।।
रामायण से जो मानवीय मूल्य-दृष्टि सामने आयी, वह देश-काल की सीमाओं से ऊपर उठ गयी है. वह उन तत्वों को प्रतिष्ठित करती है, जिन्हें मानवता ने अपनी लंबी विकास-यात्रा के चरम मूल्य के रूप में पाया है. इसीलिए वह केवल पढ़े-लिखे लोगों की चीज न रह कर लोक मानस का अंग बन सकी. लेकिन आज बचपन से ही शिक्षा का माध्यम अंगरेजी होते जाने से किशोरों, युवाओं के लिए वाल्मीकि या तुलसी को पढ़ना असंभव होता जा रहा है.
कृषि जीवन संकुचित होते जाने और गांव-परिवार के बिखरने से रामायण लोक जीवन से छिनती जा रही है. इसलिए यह प्रश्न विकट रूप में उभरता है कि अब रामायण को कैसे पढ़ें, पढ़ायें? या पढ़ायें ही नहीं? संभवत: इसका उत्तर नये युग में, नयी पीढ़ी स्वयं ढूंढ़ेगी. फिलहाल राम-कथा की सर्वकालिक प्रासंगिकता पर नजर डाल रहा है यह विशेष पेज..
31 वर्ष पहले कवि, चिंतक सच्चिदानंद वात्स्यायन (अ™ोय) ने राम के पदचिह्नें पर एक साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्रा की थी. मकर-संक्राति से आरंभ होकर शिवरात्रि तक चली इस ‘सीय-राममय पथ’ की यात्रा में उनके साथ 15 महत्वपूर्ण लेखक, कवि भी थे. उन्होंने इसे ‘एक जीवित महाकाव्य की शोधयात्रा’ का नाम दिया था. राम-कथा में आये वर्णनों के अनुरूप उन्होंने उन सभी स्थानों की यात्रा थी, जहां-जहां राम के चरण पड़े थे. प्रयत्न अपने ज्ञान-भाव की तुष्टि के लिए तो था ही, उसका उद्देश्य यह समझना भी था कि रामायण क्यों युगों-युगों से भारतीय जनमानस में रचा-बसा है.
अट्ठेय चाहते थे कि उस शोध-यात्रा के प्रसंग से नये लेखक, कवि और पाठक राम-कथा से जुड़ी भारतीय आत्मा को पहचानें. उनकी अनूठी पुस्तक ‘जय जनक जानकी’ उसी यात्रा का आकलन है. उन्होंने पाया था कि रामायण का सत्य, ‘ऐसे विराट सत्य का संकेत दे रहा है, जो ज्ञान-विज्ञान से बड़ा है, जो चेतना के स्तर का सत्य है, जिसकी हमारी पहचान बढ़ती ही जा सकती है, वह मिटने के लिए नहीं है.’ तो क्या है वह सत्य, जो आज भी हमारे लिए ही नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए मूल्यवान है?
राम केवल हिंदुओं के मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं
सदियों पहले से राम-कथा का प्रसार भारत से बाहर कई दूर देशों तक हो चुका है. वह केवल एक कथा या काव्य नहीं, बल्कि युग-युगांतव्यापी मानवीय अनुभव और उन्मेष है, जिसे संस्कृति के रूप में पहचानना चाहिए. राम-चरित की जीवंतता के कई स्तर और पहलू हैं, जिन कारणों से ही वह भारतीय संस्कृति का एक आधार बन गयी. उसी जीवंतता के कारण वह दूर देशों तक फैली और वहां के जन-जीवन में भी गहरे पैठ सकी. इसीलिए राम केवल भारतवासियों या हिंदुओं के मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं, बल्कि बहुतेरे देशों, जातियों के भी मर्यादा-पुरुष हैं, जो भारतीय नहीं. क्योंकि रामायण से जो मानवीय मूल्य-दृष्टि सामने आयी, वह देश-काल की सीमाओं से ऊपर उठ गयी है. वह उन तत्वों को प्रतिष्ठित करती है, जिन्हें मानवता ने अपनी लंबी विकास-यात्रा के चरम मूल्य के रूप में पाया है. इसीलिए वह केवल पढ़े-लिखे लोगों की चीज न रह कर लोक-मानस का अंग बन सकी.
वाल्मीकि रामायण का आरंभ ही एक शाप से होता है. जिस रचना का उद्देश्य मर्यादा-पुरुषोत्तम का चरित्र प्रस्तुत करना हो, उसका ऐसा आरंभ अनायास नहीं. मर्यादा को भंग करनेवाला सदैव दंड का अधिकारी होता है. निषाद को आखेट के लिए नहीं, वरन काम-मोहित अवस्था में क्रौंच पक्षी के आखेट के लिए शाप मिला. स्वयं वाल्मीकि भी क्रोधावेश में शाप देकर मर्यादा भंग करते हैं, तो उसका मार्जन भी हुआ. इसी तरह, पूरी रामायण के विविध प्रसंग मर्यादा-भंग के कुपरिणाम और उसकी पुनप्र्रतिष्ठा का प्रयत्न है. यह एक संपूर्ण सांस्कृतिक दृष्टि प्रस्तुत करती है, जो युगों-युगों से भारत का धर्म बन गया. धर्म अर्थात सदाचरण, न कि रिलीजन. भारत में आचरण ही धर्म है, कोई मत-विश्वास नहीं. इसी रूप में रामायण धर्म-ग्रंथ भी कहा जा सकता है. उसे ‘रिलीजियस बिलीफ’ से कतई नहीं जोड़ना चाहिए. राम-कथा मूलत: और अंतत: सांस्कृतिक मूल्यों की शिक्षा है.
रामायण के प्रसंग आज भी प्रासंगिक
सांस्कृतिक मूल्य आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तनों की तुलना में दीर्घकालीन रूप से अपरिवर्तित रहते हैं. आज भी राम-कथा हमें और दूर देशों के लोगों को भी छूती है, तो इसलिए क्योंकि उसमें सत्य और असत्य की, अच्छाई और बुराई, धर्म और अधर्म की चिरंतन टकराहट की कथा है. वह टकराहट मनुष्य के समक्ष आज भी है. केवल उसका रूप बदला है. इसीलिए रामायण के विभिन्न प्रसंग, पात्र हमारे लोक जीवन (जिस हद तक लोक जीवन बच रहा है) में आज भी प्रासंगिक होते रहते रहते हैं. क्रोध, मोह, लोभ, क्षोभ, शोक, वचन-पालन आदि के प्रसंग तथा भरत, मंथरा, हनुमान, सुग्रीव, रावण, विभीषण आदि कुछ पात्र उदाहरण हैं.
आज भी लोग उस कथा-परिवेश और नाना प्रसंगों से अपने को जोड़ पाते हैं. वाल्मीकि, तुलसी, कंबन आदि से अलग देश-विदेश में असंख्य कवियों ने राम की महिमा अपने-अपने ढंग से गायी है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी विभिन्न देशों के लाखों लोगों ने लीला के रूप में रामायण को बार-बार जिया है और उस से मिलते मूल्य व संस्कार को नवीकृत करते हुए अपनाया है. यह अकारण नहीं कि राम-कथा का प्रचार जब भारत की सामाओं से बाहर होने लगा, तब वहां पात्रों, प्रसंगों को अलग तरह से महत्व दिया गया. उदाहरणार्थ, कंबोडिया और इंडोनेशिया के रामायण में और जन-मानस में हनुमान का चरित्र अधिक केंद्रीय है. संभवत: इसलिए रामायण के सबसे नि:स्वार्थ पात्र हनुमान हैं. उन में निष्काम-कर्मी व्यक्तित्व का रूप निखरा है. आखिर जो निष्काम है, वही सच्चे अर्थो में स्वतंत्र-कर्मी है.
राम-कथा में जीवन-दर्शन का संपूर्ण उत्तर
अत: जो लोग सांस्कृतिक मूल्यों की तुलना में आर्थिक स्वार्थो, मूल्यों को अधिक महत्व देते हैं या सभी मूल्यों को आर्थिक या राजनीतिक संबंधों से निकलता मानते हैं, वे बुनियादी भूल करते हैं. मनुष्य को भी आहार-निद्रा-भय-मैथुन तक सीमित कर देखने या अर्थ-तंत्र की एक वस्तु, ‘रिसोर्स’ बना कर देखने से मानवीय मूल्य की अवधारणा निर्थक हो जाती है.
मानव मूल्य तभी तक सार्थक है, जब तक मानव का आत्म-गौरव बना रहता है. उस गौरव का आधार किसी के पास धन की मात्र या उस का राज्यकर्म में स्थान नहीं है. सोने की लंका और रावण के राज्य को तुच्छ समझने के पीछे जो मूल्य है, उसे न समझने, अथवा महत्व न देनेवाले ही देशी-विदेशी दाताओं के एजेंट बन कर तरह-तरह के अनुचित काम करते हैं. देर-सवेर उन्हें लगता है कि उन्होंने आत्म-गौरव का सौदा किया. अतएव, स्वतंत्र कर्म और आत्म-गौरव का मोल समझनेवालों को रामायण सदैव अनुप्राणित करता है, करता रहेगा.
यदि उक्त बातों में संशय हो, तो एक बार ध्यानपूर्वक रामायण पढ़ें. वह स्वत: मिट जायेगा. जैसा तुलसीदास ने लिखा, ‘रामकथा सुंदर करतारी, संशय विहग उड़ावन हारी.’ वाल्मीकि या तुलसी लिखित पूरी कथा पढ़ लेने मात्र से जीवन-दर्शन का संपूर्ण उत्तर मिल सकता है. श्रद्धावान के लिए वह धर्म-कथा है, साहित्य-कला प्रेमी के लिए वह क्लासिक साहित्य भी है, किंतु दर्शन, राजनीति, नैतिकता और सामंजस्यपूर्ण व्यवहार के सूत्र खोजनेवाले बुद्धिवादी के लिए भी रामायण में प्रचुर सामग्री है.
आज भी सभी के लिए सर्वोत्तम आदर्श हैं राम
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम् झषाणां मकरश्चास्मि स्त्रोतसामस्मि जाह्न्वी.’ (10/ 31) अर्थात् मैं पवित्र करनेवालों में वायु और शस्त्रधारियों में राम हूं, मछलियों में मगरमच्छ और नदियों में श्रीभागीरथी गंगा हूं. अत: जैसे वायु, मगरमच्छ और महान नदियों का महत्व मानवमात्र के जीवन के लिए यथावत है, उसी तरह आज भी शस्त्रधारियों, वीरों, राजपुरुषों के सर्वोत्तम आदर्श राम ही हैं. गीता के कर्मयोग को व्यवहारिक जीवन-दर्शन, यहां तक कि कुछ संस्थानों में मैनेजमेंट के एक टेक्स्ट के रूप में भी प्रतिष्ठा मिली हुई है. इसलिए शासन, अनुशासन और रक्षकों के लिए राम का आदर्श आज भी प्रासंगिक है. तुलना में ज्ञात इतिहास में सदियों तक पीछे देख लीजिए: किस शासक, महासचिव, प्रेसिडेंट, वायसराय, बादशाह, सुलतान या राजा को प्रस्तुत कर सकते हैं?
यदि रामायण को काल्पनिक कथा कह कर उड़ाना चाहें, जैसा मार्क्सवादी इतिहासकारों से लेकर अभी वेंडी डोनिगर जैसे ‘इंडोलॉजिस्टों’ की जिद है, तो उनमें भी अंतर्विरोध है. पहले तो उसे काल्पनिक कहना ही बताता है कि राम-कथा को यथार्थ मानने पर उस से उभरते मूल्यों को आदर्श माना जायेगा. दूसरी ओर, वही लोग हिंदू धर्म और समाज की निंदा करने में रामायण के ही उदाहरणों को सामने रखते हैं. जैसे, शंबूक-वध या सीता का परित्याग आदि. अर्थात यदि हिंदू धर्म, इतिहास के लिए रामायण में प्रशंसनीय तत्व मिलें, तो काल्पनिक पर निंदनीय चरचा के लिए उसे वास्तविक मानकर तर्क -वितर्क किया जाता है.
इस में खुली राजनीतिक प्रेरणा है, जो ऐसे विविध विमर्शो में झलकती है. किंतु ऐसे शक्तिशाली बौद्धिक-राजनीतिक गुटों को आज भी राम-कथा पर आक्षेप करना, उसे अपदस्थ करना जरूरी लगता है. वेंडी डोनिगर ने अपनी लगभग 800 पृष्ठों वाली भारी-भरकम पुस्तक ‘द हिंदूज : एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ के पचीसों अध्याय में आदि से अंत तक यह किया है. इस पुस्तक में राम और रामायण इस तरह केंद्र में हैं, जैसे वह हिंदुओं के इतिहास और वर्तमान से अभिन्न हो! चाहे शत्रुता-भाव से ही सही, यह परोक्ष रूप से रामायण की प्रासंगिकता की स्वीकृति है.
एक सूत्र में जोड़ते हैं रामायण-महाभारत
जिस तरह वेंडी डोनिगर की पुस्तक के पक्ष में हमारे देश के कुछ विशेष वैचारिक हल्कों, देशी-विदेशी दोनों, की तरफ से जम कर अभियान चला, वह पूरे प्रसंग का राजनीतिक महत्व भी दिखाता है. राम-कथा और कृष्ण-कथा, रामायण और महाभारत, संपूर्ण भारत को एक ऐसे सूत्र में जोड़ते हैं, जैसा कुछ और नहीं जोड़ता. जैसा रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था, शताब्दियों पर शताब्दियां बीतती गयीं, लेकिन भारत में रामायण-महाभारत का स्नेत तनिक भी नहीं सूखा. प्रतिदिन गांव-गांव, घर-घर, पंसारी की दुकान से लेकर बड़े महलों तक राम-नाम पर एक सी श्रद्धा है. निर्मल वर्मा ने तो भारतीय जन-जीवन को भी एक अदृश्य महाकाव्य के रूप में देखा था, जो रामायण और महाभारत से अविभाज्य है.
इसीलिए राजनीतिक, मजहबी या विचारधारात्मक, जिस भी रूप से, जब भी, जिसने भी, भारत को तोड़ने, बाल्कनाइज करने या मतांतरित करने का अभियान चलाया, उसे राम और कृष्ण के आदर्श पर, उनकी कथाओं पर, उनके प्रति श्रद्धा पर कुठाराघात करना जरूरी होता है. क्योंकि श्रीनगर के राम-वन, तुलसी-वन से लेकर रामेश्वरम तक, तथा द्वारका के द्वारकाधीश से इंफाल के गोविंद-मंदिर तक, जो भारत को ह्दय से जोड़ता है, वही हमारी मूल एकता है. अतएव इसका राष्ट्रीय महत्व भी है.
घटना का नायक नहीं, वरन नियति-पुरुष
आज हमारी शिक्षा दिनों-दिन पूर्णत: अंगरेजी, विदेशी रूप ले रही है, इसलिए अधिकतर बौद्धिक चर्चा पश्चिमी अवधारणाओं के चौखटे में होती है. उसमें श्रद्धा और बुद्धि को अलग-अलग करके देखने का चलन है. इसलिए जो बुद्धिजीवी वेंडी डोनिगर या मार्क्सवादियों की तरह राजनीति-ग्रस्त नहीं हैं, वे भी रामायण को पश्चिम के ‘एपिक’ की अवधारणा से देखते हैं. भारतीय शिक्षा-संस्कारों से पूरी तरह टूट जाने के कारण वे विवेकानंद, श्रीअरविंद या महाकवि निराला जैसे आधुनिक भारतीय मनीषियों की बातें समझने में कठिनाई महसूस करते हैं.
हालांकि, उन जैसे बुद्धिवादी संदेह को ही संबोधित करते हुए ही निराला ने लिखा था, ‘पूछा जग ने, वह राम कौन? बोली विशुद्धि जो रही मौन, वह जिसके दून न ड्योढ़-पौन, जो वेदों में है सत्य, साम.’ पर जिनके लिए विशुद्धि की अवधारणा ही अबूझ हो चुकी, वे इन पंक्तियों का मर्म कैसे समङों!
फिर भी, स्वर-सिद्ध निराला की प्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ आधुनिक भाषा में राम-कथा की प्रासंगिकता दिखाने में समर्थ है. जीवन में घोर संकट (है अमानिशा, उगलता गगन घन अंधकार), निराशा (असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार हार), क्षोभ (धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध), दुविधा (रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर), मित्र-लाभ (सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय), उपाय (आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर), शक्ति-संधान (छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनंदन!), संकल्प (रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त, तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त) और कर्तव्य के लिए सब कुछ समर्पित करने की भावना (तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर)- यह सब निराला की इस आधुनिक कविता में जीवंत हो उठता है. क्या हर मनुष्य इन भावों को अपने जीवन में नहीं जीता?
इसलिए, ‘एपिक’ केवल जीवन-गाथा ही नहीं होती. जैसा अ™ोय ने समझाया है, वह जिस वीरत्व का वृत्तांत कहता है, उस का एक मार्मिक पक्ष यह भी है कि ऐसे वीर को इसकी पहचान होती है कि वह केवल घटना का नायक ही नहीं है, वरन उसका नियति-पुरुष है. उसके कर्म में केवल घटना नहीं घट रही, बल्कि नियति (डेस्टिनी) घटमान हो रही है. उसके माध्यम से विधि का विधान संपन्न हो रहा है. काल के इस आयाम के गहरे बोध के बिना कोई एपिक का एपिक-चरित्र नहीं बनता. उसका महत्व और समूची जातीय संस्कृति के लिए उसका सबसे गहरा अर्थ इसी आयाम की पहचान है. वह घटना को ऐतिहासिक हेतुमत्ता से ऊपर उठा कर उस आयाम में रख देता है, जिसमें नियति अपना काम करती है.
इसलिए एपिक जातीय महाकाव्य होते हैं. पूरी जातियां और संस्कृतियां उसमें अपनी नियति पहचानती हैं. यह तुलसी से अधिक वाल्मीकि रामायण में अधिक प्रखर होकर उभरा है. उसमें भारत की सांस्कृतिक परंपरा, उस का आत्मबोध साकार हो उठता है. इसी अर्थ में अ™ोय ने रामायण को ‘जीवित महाकाव्य’ कहा है. निस्संदेह, यह जीवंतता आज दुर्बल हुई है, बल्कि दिनों-दिन दुर्बल हो रही है. किंतु अब भी यह मरी नहीं है.
अंगरेजी शिक्षा के दौर में लोक-जीवन से दूर होती राम-कथा
समझने की बात यह है कि इस ‘जीवित महाकाव्य’ की जीवंतता कम होना हमारा आत्मवान मनुष्य के रूप में कम होना है. अब रामलीलाएं उस रूप में नहीं होतीं, जैसे पहले होती थी. पहले उसे ‘जिया’ जाता था, अब उसे ‘देखा’ जाने लगा है. वह भी संक्षिप्त रूप, महज मनोरंजन के लिए. पहले रामायण पढ़ना या मौखिक कंठस्थ करना हमारी शिक्षा का एक अनिवार्य, सहज अंग था. सन् 1947 से पहले तक यह स्थिति थी. स्वतंत्र भारत की राजकीय-नीति ने इसे बिना घोषित किये, एक झटके से खत्म कर दिया. इस तरह कि हमें पता भी न चला! आर्थिक जीवन ही मूल, बल्कि संपूर्ण जीवन मान लिया गया.
तदनुरूप कल-कारखाने, ‘नये मंदिर,’ संविधान-कानून नये धर्मग्रंथ, ‘सेक्यूलरिज्म’ नया धर्म-बीज बन गये. पहले संस्कृत, फिर हिंदी पढ़ना अनर्गल होता गया. आज मेधावी छात्र भी निराला या अ™ोय के अनमोल साहित्य से अनजान हैं. यह अंगरेजों के समय भी नहीं हुआ था. इसीलिए आज के संजीदा माता-पिता, बुद्धिजीवी भी सोच में पड़ जाते हैं कि रामायण को कैसे पढ़ें? इसके बारे में बच्चों को क्या बतायें? अब आधी-अधूरी शिक्षा के कारण कोई रामायण को पुरावशेष मानता है, तो कोई रूपक, कोई निरी भक्ति, तो कोई एक गल्प मात्र. इनमें से किसी का खंडन या विरोध करना जरूरी नहीं है. मगर जब बच्चे पूछते हैं, ‘क्या राम भगवान थे?’ तो क्या उत्तर दें!
बचपन से ही शिक्षा का माध्यम अंगरेजी होते जाने से किशोरों, युवाओं का स्वयं वाल्मीकि या तुलसी को पढ़ना असंभव होता जा रहा है. कृषि-जीवन संकुचित होते जाने, गांव-परिवार के बिखरने से रामायण लोक-जीवन से छिनती जा रही है. इसलिए प्रश्न और विकट रूप में उभरता है. अब रामायण को कैसे पढ़ें, पढायें? या पढ़ायें ही नहीं? संभवत: इस का उत्तर नये युग में, नयी पीढ़ी स्वयं ढूंढ़ेगी. आवश्यकता यह है कि वह अपनी भाषा से न टूटे. महज बोल-चाल की भाषा नहीं, बल्कि साहित्य की, सुसंस्कृत भाषा. जिस गंभीरता और सावधानी से हम अंगरेजी सीखते हैं, उसी सावधानी से हिंदी, बंगला या तमिल भी बच्चों को अवश्य पढ़ायें. जब अपनी भाषा जानना गौरवपूर्ण रहेगा, तो उपयरुक्त प्रश्न का उत्तर नये देश-काल में स्वयं उपलब्ध हो जायेगा. संस्कृति का मूल-निवास भाषा में होता है. आज हमारे देश की अनेक समस्याओं, उलझनों के बढ़ने और मर्यादाओं के टूटने की कुंजी इसी बात में है.