राजस्थान में लड़कियों की शिक्षा
दिव्या आर्य, बीबीसी संवाददाता, बाड़मेर (राजस्थान)
बीए तक की पढ़ाई कर चुकीं सरोज चौधरी की उम्र 22 साल है और उन्होंने सीनियर टिचिंग सर्टिफिकेट भी हासिल किया है. वे जाट समुदाय के गांव डुंगेरों का तला, बाड़मेर, राजस्थान की रहने वाली हैं. सरोज की चार बहनें हैं, जिनमें एक पुलिस कांस्टेबल, एक स्वास्थ्य केंद्र में एएनएम और एक वन-विभाग में काम करती हैं. सरोज की एक बहन बीएड भी कर रही हैं.
सरोज भी शिक्षिका की सरकारी नौकरी की तलाश में हैं, कहती हैं मैं पढ़-लिख गयी हूं तो घर में मन नहीं लगता. पढ़ाई की भी इसीलिए थी कि कुछ बनकर दिखाऊं. अब तो बच्चों को पढ़ाने का मन करता है.
बाड़मेर में लिंगानुपात कम है. यहाँ 1,000 लड़कों के बनिस्बत 930 लड़कियां हैं. जाट समुदाय में लड़के और लड़कियों के बीच भेदभाव भी किया जाता रहा है तो इन लड़कियों की पढ़ाई को इतना बढ़ावा कैसे दिया गया? 30 साल तक डुंगेरों का तला के सरपंच रहे किस्तूरा राम चौधरी का जवाब हैरान कर देता है. वो बताते हैं कि ये फैसला दरअसल खाप पंचायतों का था.
लड़कियां पढ़ें पर लड़कों के साथ नहीं
लेकिन इस सबकी शुरुआत किस्तूरा राम चौधरी ने अपनी और अपने भाई की बेटियों को स्कूल भेजकर की. वो बताते हैं, गांव में बच्चियों को पांचवी तक ही पढ़ाया जाता था, ना तो किसी की बहुत इच्छा थी और एक वजह यह भी थी कि सीनियर सेकेंडरी स्कूल पांच किलोमीटर दूर के गांव में था. चौधरी के परिवार की बेटियां वहां गयीं और पढ़ाई पूरी कर एएनएम की सरकारी नौकरी में लग गयीं. इसी के बाद उन्होंने पंचायत के सामने ये उदाहरण रखा.
चौधरी बताते हैं, ये साल 1991 में हुआ, सबको मेरी बात सही लगी और फ़ैसला किया गया कि हर परिवार अपनी बेटियों को पढ़ाएगा, और अगर ऐसा नहीं करेगा तो उसपर जुर्माना लगाया जाएगा, और सब मान गए, किसी पर आज तक जुर्माना नहीं लगा और अब यहां सब बच्चियां पढ़ रही हैं.
लेकिन लड़के और लड़कियों के साथ पढ़ने पर चौधरी को आपत्ति है. वो पांचवी के बाद लड़के और लड़कियों के अलग पढ़ने की पैरवी करते हैं. वो कहते हैं, जहां बड़े लड़के बैठते हैं, वहां लड़कियों का बैठना ठीक नहीं है, अब वातावरण बदल गया है, सभी परिवार लड़कियों को अपनी इज्जत समझते हैं और अब माहौल ठीक नहीं है.
वहीं सरोज कहती हैं कि ये मानिसकता तभी बदलेगी जब हर घर में लड़कों को सही आचरण सिखाया जाएगा, अब जैसा बाप करते आए हैं, बेटे भी तो वैसा ही करेंगे, उन्हें नहीं सुधारा तो लड़कियां आगे नहीं बढ़ पाएंगीं, मेरे बेटे ने तो जब पहली ही गलती की, मैं उसी दिन उसे पीटूंगी ताकि आगे वो सुधर जाए.
लड़कियों के स्कूल-कॉलेजों की कमी
चौधरी के मुताबिक उनके गांव के उदाहरण से प्रेरित हो, पिछले 20 सालों में आसपास के दर्जनों गांवों ने अपनी लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया. लेकिन गांवों से केवल लड़कियों के लिए बने स्कूल-कॉलेजों की दूरी अब भी रास्ते का रोड़ा बनी हुई है. सर्व शिक्षा अभियान में असिस्टेंट प्रोजेक्ट को-ऑर्डिनेटर तेजस हिरानी भी इस बात से इत्तफाक रखते हैं. वो बताते हैं कि, बाड़मेर में दसवीं तक के 300 सेकेंडरी स्कूल हैं, लेकिन इनमें से केवल 20 स्कूल लड़कियों के लिए हैं. बाड़मेर में बारहवीं तक की पढ़ाई के लिए सिर्फ लड़कियों के दो स्कूल हैं और एक गल्र्स कॉलेज है. तेजस कहते हैं, यहां जब विकास ही किसी नेता की प्राथमिकताओं में नहीं है, तो शिक्षा वो भी लड़कियों की पर काम होने में बहुत समय लगता है, ज़रूरत है पढ़ाई कर रही लड़कियों के हॉस्टल्स, पॉलिटेक्निक और वर्किग वुमेन हॉस्टल्स की. हालांकि वो ये भी बताते हैं कि बाड़मेर के आठ ब्लॉक में से छह ब्लॉक में छठीं से आठवीं तक की पढ़ाई कर रही लड़कियों के लिए छह छात्रवास बनाए हैं.
10 प्रतिशत लड़कियां नौकरी में
किस्तुरा राम चौधरी की छोटी बहू चम्पा, पुलिस में कॉन्स्टेबल हैं. वो बताती हैं कि इस जिले में अब पढ़ाई के बाद करीब 10 प्रतिशत लड़कियां नौकरी करने लगी हैं. इनमें से •यादातर सरकारी नौकरी ही ढूंढती हैं, चाहे वो स्वास्थ्य केंद्रों में हो, आंगनबाड़ी, पुलिस, सरकारी विभाग या शिक्षा के क्षेत्र में. चम्पा कहती हैं, नौकरी करने से गांव में बहुत सम्मान मिलता है, सब कहते हैं उनकी बहू नौकरीवाली है, लोगों से मिलने का उठने-बैठने का तरीका समझ आता है, फिर और लड़कियों के मन की शंकाएं भी मिटा पाती हूं. इन गांवों में चंपा और सरोज से पिछली पीढ़ी की महिलाओं को शिक्षित होने का अवसर नहीं मिला. सरोज की सास मीरा से मैंने पूछा कि अपनी बेटी और बहू को देख क्या मन में पढ़ने की लालसा उठती है, तो बोलीं, बिल्कुल उठती है, मैं सोचती हूं कि मैं पढ़ जाती तो आज मुख्यमंत्री बन के दिखाती. (बीबीसी हिंदी वेबसाइट से साभार)