-ऐसे ‘शब्द’ जिनसे जीतता उम्मीदवार हार गया-
।।के विक्रम राव।।
चुनाव के माहौल में जुबान का फिसलना कभी-कभी घातक हो जाता है. जीतता हुआ जननेता चुनाव हार जाता है, तो हारने वाला विजय का वरण करता है. 16वीं लोकसभा के लिए हो आम चुनाव में इस बार आये दिन नेताओं की जुबान फिसल रही है. वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव ने विगत में हुए चुनावों का विश्लेषण करते अपनी इस टिप्पणी में लिखा है कि कैसे इसी जुबान के चलते बडे-बडे नेता चुनाव हार गये और हार रहे नेताओं को जनता ने भारी मतों से विजयी बनाया.
चुनाव में बडे-बडे मुद्दे, गंभीर बहस, गाढी विचारबद्घता वगैरह तो अपनी भूमिका निभाते ही हैं. पर अक्सर अभियानकर्ताओं की उक्तियां जो सूक्तियां बन जाती हैं, शब्द शक्ति का आकार लेकर जीत रहे प्रत्याशी को भी पराजित करा देती हैं. गिरते को उठा देती हैं. गत 15 आम चुनावों के ऐसे प्रकरण मिले जब अभिधा, लक्षणा तथा व्यंजना वाली शब्द-शक्ति ने मतदान की दिशा बदल दी. नतीजा उलट दिया. तंज और तल्ख टिप्पणियों ने राजनेताओं को डुला दिया.
मसलन, नवीं लोकसभा (सितंबर, 1999) के रायबरेली चुनाव अभियान पर नजर डालें. इंदिरा गांधी के भतीजे अरुण नेहरू दल-बदल कर भाजपा के टिकट पर अपने पुरखों की सीट पर हावी थे. नंबर एक पर थे. कांग्रेस प्रत्याशी और राजीव गांधी के सखा कैप्टन सतीश शर्मा सबसे नीचे, चौथे पायदान पर थे. समाजवादी पार्टी के गजाधर सिंह बीच में थे.
पिछले (सातवें और आठवें : 1996 तथा 1998) निर्वाचनों में इंदिरा गांधी की ममेरी बहन दीपा कौल तथा उसके पूर्व उन्हीं के भाई विक्रम कौल भी हार चुके थे. रायबरेली की परिवार वाली सीट पर नेहरू परिवार की जडें उखड. चुकी थीं. पाला पलटू अरुण नेहरू का कमल खिल रहा था. तभी 26 साल की, नव विवाहिता प्रियंका वाड्रा रायबरेली पहुंचीं.
55 वर्षीय चाचा अरुण नेहरू की आलोचना में केवल एक सवाल प्रियंका ने किया श्रोताओं से. आप इस प्रत्याशी को लोकसभा में भेजेंगे जिसने मेरे पिता के साथ दगा किया. उनकी पीठ पर छुरा मारा. परिणाम आया. पहले से चौथे पायदान पर अरुण नेहरू आ गये. उनसे ऊपर थे समाजवादी पार्टी के गजाधर सिंह. प्रियंका का वाक्य मारक मंत्र बन गया.
इसी संदर्भ में उस फिल्मी अदाकार के संवाद लेखन और बोलने का असर भी माप लें. किस भांति समूचे आंध्रप्रदेश में 1982 के विधान सभा और डेढ. वर्ष बाद हुए लोकसभाई निर्वाचन में नंदमूरि तारक रामाराव ने 37 वषों से राज कर रही कांग्रेस का सिंहासन पलट दिया, यह एक अजूबा है. बस नौ महीने हुए थे तेलुगु देशम् पार्टी को जन्मे.
कृष्णा-गोदावरी तट पर बसे सतवाहन और काकतीय सम्राटों के इस प्रदेश में कांग्रेस सभी 46 लोकसभा सीटों पर सात आम चुनावों में जीतती रहीं. उन्हीं दिनों इंदिरा गांधी ने अपने प्रधानमंत्री आवास से विधवा बहू मेनका गांधी को बेदखल कर दिया था. वरुण गांधी तब डेढ. वर्ष का था. एनटी रामाराव का चुनावी भाषण था, चल्लटि अर्धरात्रि लो, पसि बिड्ड सहा, कोडलु नी इंदिरा अत्ता इण्टि निंची गेन्टे सिन्दी. (सर्द आंधी रात को बहू मेनका को इंदिरा सास ने नन्हे शिशु (वरुण) के साथ घर से खदेड दिया.) फिर क्या था पूरे आंध्र की महिलाएं और युवजन जो इंदिरा गांधी को तब तक अम्मा मान कर पूजते थे, रातों रात उन्हें निर्मम सास मानने लगे. चुनाव का नतीजा आया. ढाई सौ दिन पुरानी तेलुगु देशम पार्टी को 62 प्रतिशत वोट और 294-सदस्यों वाली विधानसभा में तीन चौथाई सीटें मिली. एक ही वाक्य में प्यारी मां को रामाराव ने जुगुप्तित सास का रूप धारण करा दिया. रामाराव का यह उद्गार उत्तेजक नहीं वरन हृतंत्री को निनादित, मर्म को स्पर्श करने वाला था.
अब तल्ख तथा तंज टिप्पणी भी देख लें. कटाक्ष गुदगुदाता है. चुभता नहीं है. यही अनुभव रहा कानपुर का, जब कांग्रेसी प्रचारक और अपनी युवावस्था में लोहियावादी रहे श्याम मिश्र और जनता दल के मंत्री-नेता गणोशदत्त (दद्दू) वाजपेयी वाली घटना से. एक पार्टी कार्यकर्ता ने कहा, दद्दू कल घंटाघर की सभा में श्याम मिश्र आपको गंदी गालियां दे रहा था. वाजपेयी जी ने सौम्यता से उत्तर दिया, जाने भी दो. श्याम मिश्र की मां मुङो जीजा कहती हैं. आज के अपशब्दों के संदर्भ में यह एक अनूठी बात लगती है.
मगर वस्तुत: असभ्य और अमानुशिक वारदात थी, गुजरात चुनाव की. यह इमरजेंसी लगने के कुछ महीनों पूर्व की बात है. नवनिर्माण संघर्ष के परिणाम में गुजरात विधानसभा भंग हो गयी थी. मोरारजी देसाई के अनशन से घबरा कर इंदिरा गांधी ने गुजरात विधानसभा का नया चुनाव घोषित कर दिया. वड.ोदरा नगर जहां आज नरेंद्र दामोदर दास मोदी चुनाव लड. रहे है, से कांग्रेसी महापौर तथा पूर्व काबीना मंत्री डॉ ठाकोर भाई पटेल दुबारा चुनाव लड. रहे थे. उनके सामने थे समाजवादी श्रमिक पुरोधा जीजी पराडकर. असमान प्रतिस्पर्धा थी. मधु लिमये और जॉर्ज फर्नांडीस आये थे पराडकर के लिए. मधु ने मुझसे पूछा कि यह कैसा लेबर लीडर है. यह तो भाषण ही नहीं दे पाता. मैं वहां टाइम्स ऑफ इंडिया का संवाददाता था और पराडकर की निष्ठा और कार्यक्षमता को जानता था. मैंने कहा मधु लिमये से कि पराडकर कुशल कार्यकर्ता हैं, भले ही धाराप्रवाह वक्ता न हों. तभी कुछ मलयाली पत्रकार केरल से चुनाव की रिपोर्टिंग करने मेरे घर आये. मैने उन्हें ठाकोर भाई पटेल के पास भेजा. उनमें से एक पत्रकार ने पूछा कि जीत के आसार कितने है? गर्वीले, दबंग ठाकोर भाई पटेल ने कह दिया, मेरा यह अलसेशियन कुत्ता भी पराडकर को शिकस्त दे सकता है. मैंने इन मलयाली पत्रकारों से गुजराती संवाददाताओं की भेंट करा दी. खबर सुर्खियों में आ गयी. जार्ज फर्नांडीस ने कुत्ते की समता सोशलिस्ट पराडकर से करने वाली उक्ति पर जनता का निर्णय मांगा. अजेय ठाकोर भाई पटेल बुरी तरह पराजित हो गये. विश्वास नहीं हो रहा था.
कुछ चुनावी मनोविज्ञान ऐसा होता है कि महान व्यक्ति को भी फिसला कर ओछी स्थिति पर ला देता है. राममनोहर लोहिया वाराणसी के समीप चंदौली से दूसरी लोकसभा (1957) का चुनाव लड.े. विरोध में थे कांग्रेस के त्रिभुवन नारायण सिंह जो बाद में संविद (1969) के मुख्यमंत्री बने और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी. तभी जवाहरलाल नेहरू विशेषकर वाराणसी आये. बेनियाबाग पार्क में कांग्रेस ने जनसभा की. नेहरू ने जनता से सवाल किया कि लोहिया ने मुङो चौकीदार का पोता बताया है. क्या आप उनके पक्षधर बनेंगे? तब तक लोहिया की जीत निश्चित थी. पर व्यवहार नीति का मुद्दा उठा कर नेहरू ने पासा पलट दिया. लोहिया हार गये. हालांकि डेढ. वर्षों बाद उपचुनाव में चंदौली से समाजवादी प्रभु नारायण सिंह ने चालीस हजार वोटों से कांग्रेस के जेएन दुबे को हराया. नेहरू ने संदर्भ तोड. कर, तथ्यों को मरोड. कर लोहिया पर विषाक्त बात कही थी. हैदराबाद से प्रकाशित अंगरेजी मासिक ‘मैनकाइंड’ में सम्पादकीय टिप्पणी में लोहिया ने लिखा था कि, नेहरू प्रचार करा रहें है कि वे रईस खानदान के हैं, चांदी का चम्मच मुंह में लिये जन्मे हैं. लोहिया का तर्क था कि ऐसी बात कह कर नेहरू हर गरीब को निरूत्साहित करना चाहते हैं कि प्रधानमंत्री पद केवल रईसजादा ही पा सकता है. जबकि इतिहास के प्रमाण देकर लोहिया ने सिद्घ कर दिया था कि जवाहरलाल के दादा पंडित गंगाधर नेहरू लाल किले में चौकीदार थे और जागते रहो की आवाज बुलंद करते थे. लोहिया का मानना था कि सच्चाई बताने से भारत का हर गरीब (चौकीदार) सीना तान कर कह सकेगा, सपना देखेगा कि एक दिन उसका पोता प्रधानमंत्री पद हासिल कर सकता है. मसलन आज के भारत में देख लें. भारत के सबसे अमीर आदमी का पिता बस चार दशक पूर्व खाड.ी द्वीप अदन में पेट्रोल भरता था और मोटरकार की सफाई करता था.
लेकिन समतामूलक का समाज का सूत्र रटनेवाले नेहरू को नागवार गुजरी कि कोई उन्हें चौकीदार का पोता कहे, जो वे वास्तविकता में थे. लेकिन लोहिया उस वक्त हार गये क्योंकि नाग को भी दूध पिलानेवाला यह देश कथित शाब्दिक हिंसा भी बर्दाश्त नहीं कर सकता.