रवि दत्त बाजपेयी
डॉ मोहम्मद मोसदेघ
भारत बहुत ही मुश्किल दौर से गुजर रहा है. इसे एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो देश को चौतरफा संकट से बाहर निकाल सके. इतिहास में कई ऐसे नेताओं के उदाहरण हैं, जिन्होंने अपने देश-समाज की तत्कालीन समस्याओं को सुलझाने और आम लोगों को मानवीय-राजनीतिक-सामाजिक स्वतंत्रता देने या जागरूकता फैलाने के प्रयास किये. इस श्रृंखला में आप पढ़ेंगे ऐसे नेताओं के बारे में, जिन्होंने अपने निर्णायक और प्रभावशाली नेतृत्व से संकटों का सामना किया. आज पढ़िए इसकी दूसरी कड़ी.
अरब देशों में लोकतंत्र की दुहाई देने का मूलमंत्र राजनीति का वैश्वीकरण बताया जाता है,जब नागरिक अधिकारों की लड़ाई किसी देश की भौगोलिक सीमाओं के बाहर से प्रभावित या निर्देशित की जा सके. इसका दूसरा पक्ष वैश्वीकरण की राजनीति भी है, जब किसी देश की भौगोलिक सीमाओं में स्थित प्राकृतिक संसाधनों को वहां से बाहर पहुंचाया जा सके और वैश्विक बाजार के लिए नयी दुकानें लगायी जा सकें. वैश्वीकरण की राजनीति और राजनीति के वैश्वीकरण ने ही आज ब्रिटेन तथा अमेरिका को ईरान में नागरिक अधिकारों और लोकतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई का सबसे बड़ा प्रायोजक बनाया है, लेकिन 61 साल पहले यही दोनों देश ईरान के लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री डॉ मोहम्मद मोसादेघ के तख्ता पलट के सबसे बड़े आयोजक थे. ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के आदर्श विंस्टन चर्चिल ने मोसादेघ की लंबी नाक पर व्यंग्य-स्वरूप उन्हें मुस्सी बतख का नाम दिया था, महात्मा गांधी को भी चर्चिल ने ‘अधनंगा फकीर’ कहा था, आखिर मोहम्मद मोसादेघ ने ऐसा क्या किया कि चर्चिल व्यक्तिगत अपमान पर उतर आये.
एशिया में अपने वर्चस्व के लिए लड़ रहे रूस और ब्रिटेन ने लंबे समय तक ईरान को अपना मोहरा बनाने का प्रयास किया, 1901 में ईरान के कमजोर शासकों ने एक ब्रिटिश निजी कंपनी ‘एंग्लो पर्शियन ऑयल’ को अपने देश के समूचे प्राकृतिक तेल और गैस के दोहन का एकाधिकार दे दिया, कंपनी ने ईरान को अपने फायदे से 16 प्रतिशत अंश देने का वायदा किया. पहले विश्व युद्ध से कुछ पहले ‘फस्र्ट लार्ड ऑफएडमिरलिटी’ विंस्टन चर्चिल की निगरानी में इस कंपनी का बड़ा हिस्सा ब्रिटिश सरकार ने खरीद लिया, अब कंपनी सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन हो गयी. अगले 35 सालों तक ईरान से बेहिसाब तेल निकाला गया, ईरान को इस कंपनी के खाता बही जांचने का अधिकार नहीं था.
तेल उत्पादन में कार्यरत ईरानी मजदूरों ने अपने शोषण के खिलाफ सन 1946 में अबादान शहर में हड़ताल कर दी, हड़ताल तोड़ने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों ने ईरानी मजदूरों पर अरब व अन्य कबीले के लोगों से मिल कर हिंसा की, इस हिंसा में सैकड़ों मजदूर मारे गये.
वैसे तो ईरान की संसद (मजलिस) 1906 में स्थापित हुई थी, लेकिन इस संस्था का कोई राजनीतिक-प्रशासनिक वजूद नहीं था. ईरानी मजदूरों पर हुई हिंसा के बाद मजलिस ने पहली बार कड़े तेवर दिखाये. मजलिस ने ईरानी सरकार को भविष्य में विदेशी कंपनियों को रियायत देने से मना किया और एंग्लो ईरानियन ऑयल कंपनी से चले आ रहे करार को रद्द करने का निर्देश दिया. मजलिस में यह प्रस्ताव लिखने और उसे पारित करवाने में सबसे अग्रणी भूमिका में मोहम्मद मोसादेघ थे.
1882 में जन्मे मोहम्मद मोसादेघ ईरान के एक प्रभावशाली परिवार से थे, 1913 में स्विट्जरलैंड से डॉक्टर ऑफलॉ की उपाधि पानेवाले पहले ईरानी व्यक्ति थे. ईरान वापस लौट कर मोसादेघ मजलिस के सदस्य चुने गये, रजा शाह पहलवी के समय सरकार में मंत्री बनाये गये, लेकिन रजा शाह का विरोध करने के बाद उन्हें सार्वजनिक जीवन से हट जाना पड़ा. 1941 में अहमद रजा पहलवी अपने पिता को अपदस्थ कर ईरान के शाह बने, जिसके बाद मोसादेघ दोबारा सक्रि य राजनीति में लौटे और 1944 में मजलिस के लिए निर्वाचित हुए.
मार्च 1951 में मोहम्मद मोसादेघ ने ईरानी मजलिस में ईरानी तेल के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव रखा और अप्रैल 1951 में मजलिस के 90 प्रतिशत सदस्यों ने मोसादेघ को ईरान का प्रधानमंत्री मनोनीत किया. 1951 में ही ब्रिटेन के आम चुनावों में विंस्टन चर्चिल दोबारा प्रधानमंत्री चुने गये थे और चर्चिल किसी भी तरह से ईरान के तेल को अपने नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देना चाहते थे, ब्रिटेन ने ईरान द्वारा अपनी तेल संपदा के राष्ट्रीयकरण को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् और हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में चुनौती दी.
मोहम्मद मोसादेघ ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ईरान का पक्ष रखा, इन दोनों ही अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी ईरानी तेल पर ब्रिटेन के स्वामित्व को निरस्त कर दिया. शीत युद्ध में वास्तविक गुटनिरपेक्षता दिखाते हुए मोहम्मद मोसादेघ ने रूस को भी ईरान के तेल का अधिकार देने से इनकार कर दिया. ईरान के तेल प्रतिष्ठानों से ब्रिटिश अधिकारी वापस लौट गये और बिना वैकल्पिक व्यवस्था के ईरान का तेल उत्पादन लगभग शून्य पर पहुंच गया. ईरान में आर्थिक मंदी फैलने लगी और ब्रिटेन ने ईरान के शाह, जमींदार, धार्मिक नेताओं के जरिये असंतोष और हिंसक प्रदर्शन शुरू करवाये.
साम्यवादी रूस से अमेरिका के भय का ब्रिटेन ने भरपूर दोहन किया और ईरान को रूस के प्रभाव से मुक्त रखने के नाम पर अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआइए ने मोहम्मद मोसादेघ के तख्ता पलट की योजना को कार्य-रूप दिया. सत्ता पलट के बाद मोहम्मद मोसादेघ को गिरफ्तार किया गया, सबसे अचंभे की बात यह है कि अपने संसाधनों के राष्ट्रीयकरण के हिमायती मोहम्मद मोसादेघ पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया गया, उन्हें तीन साल के लिए एकांत कारावास और फिर नजरबंदी की सजा दी गयी, पांच मार्च 1967 को अपने पैतृक गांव अहमद आबाद में मोहम्मद मोसादेघ का निधन हो गया.
सैन्य अदालत में अपने मुकदमे के सुनवाई के दौरान मोहम्मद मोसादेघ ने कहा-‘ मेरा एकमात्र अपराध ईरानी तेल का राष्ट्रीयकरण करना है, जिससे इस देश को दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य के आर्थिक व राजनीतिक चंगुल से छुड़ाया जा सके.’
आज ईरान के कट्टर इसलामी निजाम की आलोचना करने वाले अखबारों ने लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेघ के तख्ता पलट पर क्या कहा, न्यूयॉर्क टाइम्स के संपादकीय से ‘ प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण अल्प विकसित देशों के लिए यह एक ऐसा सबक है कि यदि वे अपने अतिशय उन्मादी राष्ट्रवाद अपनायेंगे, तो उन्हें कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.’ मोहम्मद मोसादेघ ने जो भी कीमत चुकायी हो, लेकिन वे आज भी ईरानी राष्ट्रीयता का गौरव माने जाते हैं.