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भाजपा के साथ गठबंधन की दूसरी पारी में नीतीश कुमार का क़द घटेगा?

26 जुलाई को इस्तीफ़ा देने के महज पंद्रह घंटों बाद नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. यह नीतीश की भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन में दूसरी पारी है. पहली पारी में उन्होंने 17 वर्षों के बाद 2013 में खुद ही गठबंधन तोड़ लिया था. […]

26 जुलाई को इस्तीफ़ा देने के महज पंद्रह घंटों बाद नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री बन गए.

यह नीतीश की भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन में दूसरी पारी है. पहली पारी में उन्होंने 17 वर्षों के बाद 2013 में खुद ही गठबंधन तोड़ लिया था.

भाजपा के साथ गठबंधन की नीतीश कुमार की दूसरी पारी पर कई सवाल खड़े किए जा रहे हैं. इस बहाने गठबंधन में एक सवाल नीतीश कुमार के राजनीतिक क़द को लेकर भी है. क्या इस दूसरी पारी में गठबंधन में नीतीश का रुतबा और उस पर दबदबा 2013 के पहले की तरह ही रहेगा?

एनडीए के साथ पहली पारी में राजनीति से लेकर शासन तक के मुद्दों पर उनका दबदबा साफ दिखाई देता था. नरेंद्र मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार के लिए नहीं आने देना इसके सबसे बड़े उदाहरणों में से हैं.

इतना ही नहीं, बताया जाता है कि तब आडवाणी, जो उस वक़्त बहुत कद्दावर नेता थे, भी बिहार आने पर नीतीश कुमार के एजेंडा की ही बात करते थे, भाजपा के कोर एजेंडा की नहीं.

नीतीश का क़द

माना जाता है कि 2005 से 2013 के बीच नीतीश ने भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों के खुले-दबे विरोध के बाद भी मुसलमानों के बेहतरी की कई योजनाओं को शुरू किया. इनमें मुस्लिम छात्रों के लिए स्कॉलरशिप, कब्रिस्तान की घेराबंदी जैसी योजनाएं शामिल हैं.

दूसरी ओर उन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के विरोध के बावजूद बिहार में अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के बिहार सेंटर के प्रस्ताव को आगे बढ़ाया. नीतीश ने भागलपुर दंगा पीड़ितों को न्याय और मुआवज़ा दिलाने के लिए एक नया आयोग बनाया था.

लेकिन 2017 में हालात दूसरे हैं और जानकारों का मानना है कि गठबंधन में नीतीश की हैसियत अब पहले वाली नहीं हो सकती. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन इसकी दो बड़ी वजह बताते हैं, ‘2013 में जो नीतीश का क़द और रसूख़ था वह 2017 में नहीं होने वाला. इसकी वजह 2014 के बाद पूरे देश में भाजपा की हैरान कर देने वाली कामयाबी और उसकी वैचारिक-राजनीतिक मुखरता है.’

इम्तिहान

वहीं वरिष्ठ पत्रकार सुरुर अहमद बताते हैं कि अभी ऐसा समझा जा रहा है कि 1996 के मुकाबले 2017 में नीतीश ने भाजपा की शर्तों पर गठबंधन किया है. ऐसे में अभी उनके इम्तिहान का वक़्त है.

सुरुर कहते हैं, ‘नीतीश भाजपा के सबसे पुराने धर्मनिरपेक्ष सहयोगी हैं. उन्हें भाजपा के साथ डील करने का तरीका पता है. अगर वे विवादास्पद मुद्दों पर भाजपा को बिहार में पहले की तरह मुखर न होने दें. साथ ही आने वाले महीनों में वे अगर क़ानून-व्यवस्था को बेहतर कर सकें, रोजमर्रा के सरकारी काम-काज में भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सकें और विकास के पैमानों पर अपनी पुरानी लक़ीर से बड़ी एक लक़ीर खींच पाएं तो वे एनडीए में अपने पहले के रुतबे को फिर से हासिल कर सकते हैं.’

लेकिन सुरुर ये भी कहते हैं कि नई पारी में गौरक्षा के नाम पर होने वाली हिंसा की चुनौती भी नीतीश के सामने आ सकती है.

लेकिन जदूय इससे इंकार करता है कि एनडीए में उनके नेता का क़द घटा है. पार्टी प्रवक्ता नीरज कुमार का कहना है कि नीतीश अपने कार्यशैली से अपनी हैसियत बरक़रार रखेंगे. नीरज कहते हैं, ‘नीतीश का चेहरा विकास का, सद्भाव का चेहरा है. बिना तनाव पैदा किए समाज के सभी तबकों के विकास का मॉडल नीतीश के गर्वनेंस का हिस्सा है. इसके दम पर उनका कद पहले की तरह ही बना रहेगा.’

दूसरी ओर नीतीश को उनके पार्टी नेता से लेकर कार्यकर्ता तक मौका-बेमौका ‘पीएम मटीरियल’ बताया करते थे. ख़ुद नीतीश ने 2014 में कहा था कि प्रधानमंत्री पद की इच्छा रखना गुनाह नहीं है.

बदले राजनीतिक हालात में क्या नीतीश अब ‘पीएम मटीरियल’ नहीं रहे? इस सवाल के जवाब में नीरज कुमार कहते हैं, ‘राजनीतिक ईर्ष्या रखने वाले इसको प्रचारित करते थे कि नीतीश कुमार 2019 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं.’ साथ ही वे यह भी दोहराते हैं कि नीतीश कुमार की सोच राष्ट्रीय है और एनडीए में उनकी राष्ट्रीय स्तर पर उपयोगिता बनी रहेगी.

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