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काश! नेता सच समझ पाते

-मतदाता की समझदारी का अपमान बड़ी गलती है- हमारे देश में 60 साल से ज्यादा समय से आम जनता चुनाव देख रही है और लगातार उनसे सीख रही है. वह अब इस राजनीतिक खेल में अनाड़ी नहीं है. लेकिन, कुछ राज नेताओं की अब भी यही धारणा है कि चुनाव में जबरदस्त प्रचार और छल-प्रपंच […]

-मतदाता की समझदारी का अपमान बड़ी गलती है-

हमारे देश में 60 साल से ज्यादा समय से आम जनता चुनाव देख रही है और लगातार उनसे सीख रही है. वह अब इस राजनीतिक खेल में अनाड़ी नहीं है. लेकिन, कुछ राज नेताओं की अब भी यही धारणा है कि चुनाव में जबरदस्त प्रचार और छल-प्रपंच के बूते मतदाताओं को भरमाया जा सकता है. इस गलतफहमी की शिकार राजनीतिक बिरादरी पर पढ़िए, पवन के वर्मा की टिप्पणी. अब से हर रविवार को वह प्रभात खबर के अभिमत पóो पर चाणक्य मंत्र नाम से स्तंभ लिखेंगे.

पवन के वर्मा संत स्टीफंस कॉलेज से ग्रेजुएशन के बाद 1976 में भारतीय विदेश सेवा में आये. अमेरिका और रूस समेत कई देशों में राजनयिक रहे. संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी मिशन में रहे. जी-77 के चेयरमैन के कार्यकारी सहायक रहे. भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के महानिदेशक रहे. कई किताबें लिखी हैं- व्हेन लॉस इज गेन, द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास, बीइंग इंडियन : द ट्रथ अबाउट व्हाइ द ट्वेंटी फस्र्ट सेंचुरी विल बी इंडियाज, बिकमिंग इंडियन : द अनफिनिश्ड रेवोल्यूशन ऑफ कल्चर एंड आइडेंटिटी.

क्या चुनावों में मतदाताओं की बुद्धि को कम आंकने की प्रवृत्ति होती है? राजनीतिक जंग जीतने के उन्माद में, अपने नेताओं और राजनीतिक दलों की तिकड़मबाजियों को देखते हुए यह सवाल अहम है. झूठा प्रचार, बेसिर-पैर के वादे, घटिया समझौते, और खुल्लम-खुल्ला जोड़-तोड़ के लिए सिद्धांतों का हवाला देना रोजमर्रा की चीज हो जाती हैं. नेता विशुद्ध अवसरवादी कारणों से एक दल छोड़ कर दूसरे दल में शामिल होते हैं और ऐसा करने के लिए बड़े-बड़े सिद्धांतों की बात करते हैं. जो दल अपनी विचारधारा की शुचिता की कसमें खाते हैं, वही दल ऐसे दलबदलुओं को शामिल करते हैं, जो उनकी विचारधारा को सरेआम गाली दे चुके हैं.

सारहीनता को ढंकने के लिए बड़ी चतुराई से नारे गढ़े जाते हैं. विभिन्न विषयों को स्याह या फिर सफेद बना दिया जाता है. जटिल मुद्दों को सरलीकृत उलटबांसी में तब्दील कर दिया जाता है. अभिव्यक्तियां सायास ढंग से भड़काऊ हो जाती हैं. रवैया कुछ ऐसा हो जाता है – जो मैं कहूं वह सही है और जो तुम सोचते हो वह गलत. झूठ, अनैतिक नहीं रह जाते हैं. हकीकत में, झांसा देने की जितनी ज्यादा क्षमता, उतना ही ‘सही’ उनका चाल-चलन. यह अतिशयोक्ति और लाग-लपेट का, मिथकीय प्रस्तुति का बेढब मौसम है.

इन सबके बीच, मतदाता सबसे ज्यादा मांग में रहनेवाली ‘जिन्स’ होता है. वह सत्ता की वेदी के लिए बलि का बकरा हो जाता है. इसके लिए मतदाता को चमकीले रंगों से ललचाना सबसे बड़ा औजार होता है. सार, सत्य और सौम्यता त्याज्य हो जाते हैं.

जीवन से बड़ी दिखनेवाली इस जंग में कुछ मौकों पर विचित्र चीजें घटित होती हैं. कुछ नेता और राजनीतिक दल अपने राजनीतिक संदेश को ही सत्य समझने की गलती कर बैठते हैं. वह अपने ही प्रचार (प्रोपगंडा) में यकीन करने लगते हैं. उन पर विफलता और त्रुटि से परे होने का बोध हावी हो जाता है. वह अपनी ही मुहिम के शिकार हो जाते हैं. यह खतरनाक बिंदु है, जब संतुलन और सद्बुद्धि स्थायी रूप से महत्वाकांक्षा और रणनीति के हाथों बंधक हो जाते हैं.

सच यह है कि मतदाताओं की समझदारी को अपमानित करना बड़ी गलती है. वह इस राजनीतिक खेल में अनाड़ी नहीं है. अतीत में वह जाति और फिरके के नाम पर बेवकूफ बन चुका है. वह अब भी बहक सकता है, पर लोकतंत्र एक सीखने की प्रक्रिया भी है और वह अब इस पूरे खेल को जानता है. नेता उसके सवालों का जवाब देने से मना कर सकते हैं, लेकिन अब भी उसके पास पूछने के लिए सवाल हैं. वह जानना चाहता है कि कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के आरोप में सजायाफ्ता और जेल जा चुके लालू प्रसाद के साथ गंठबंधन क्यों किया, जबकि कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की प्रतिज्ञा की है.यही सवाल वह भाजपा से भी पूछना चाहता है, जो कांग्रेस में भ्रष्टाचार की भर्त्सना करती है, पर खुद कर्नाटक में येदियुरप्पा और दागी बेल्लारी बंधुओं को साथ ले आयी है. वे शासन के तथाकथित ‘गुजरात मॉडल’ पर बड़बोले भाषणों को धीरज से सुनते हैं, पर यह पूछना चाहते हैं कि क्यों अपेक्षाकृत विकसित राज्य गुजरात का अपने नागरिकों को स्वास्थ्य और शिक्षा मुहैया कराने में इतना फीका रिकॉर्ड है.

वे समझना चाहते हैं कि क्यों गुजरात में कुल निवेश का 42 फीसद केवल पेट्रो-रसायन क्षेत्र में है. वे जानना चाहते हैं कि वो मुट्ठीभर कारोबारी कौन हैं जिन्हें इस एकतरफा निवेश से अंधाधुंध मुनाफा हुआ है. उनकी जिज्ञासा है कि क्यों गुजरात में किसान विरोध कर रहे हैं और क्यों कुछ चुनिंदा उद्योगों के लाभ के लिए ली गयी उनकी जमीन का इतना खराब मुआवजा दिया गया. वे पूछना चाहते हैं कि क्यों 15 साल से कम के तकरीबन दो लाख बच्चे खतरनाक बीटी कपास के खेतों में काम कर रहे हैं जबकि उन्हें स्कूलों में होना चाहिए. वे जानना चाहते हैं कि गुजरात में सरकारी कर्ज इतना ज्यादा क्यों है और इस उधार के पैसे से किसे फायदा पहुंचाया गया. वे पूछना चाहते हैं कि कुछ राजनीतिक दलों के पास खर्च करने के लिए यह बेशुमार पैसा कहां से आ रहा है.

ऐसे अनेक सवाल है, पर इनका कोई जवाब नहीं दे रहा. क्या भाजपा के नारे ‘इंडिया फस्र्ट’ का मतलब है, अंध-राष्ट्रवाद के चंदोवे के तले भारत की वैभवशाली विविधता और गूढ़ जटिलताओं को निष्प्राण ढंग से समेट लेना? क्या राष्ट्रवाद की सर्वोच्चता और भारत में मौजूद विभिन्न आस्थाओं को दिये जानेवाले सम्मान के बीच कोई अंतर्विरोध है? क्या शासन के लक्ष्य को सामाजिक और धार्मिक समरसता की अनिवार्यता के विपरीत ध्रुव के रूप में ही खड़ा किया जाना चाहिए? इन्हें क्यों एक दूसरे से अलग होना चाहिए? क्या दूसरे को सुनिश्चित किये बिना पहला काम संभव है? ये वो सवाल हैं जिनका सभी भारतीयों की जिंदगी से सीधा वास्ता है. मतदाता जानते हैं कि अगर कहीं सांप्रदायिक अविश्वास और फसाद हैं, तो सुशासन असंभव होगा. वे जानते हैं कि जो नेता सभी भारतीयों को उनकी आस्था को अलग रखते हुए साथ नहीं ले चल सकता, अंतत: किसी को साथ नहीं ले चल पायेगा, यहां तक कि अपनी पार्टी को भी नहीं. हमारा देश एक आस्था, एक संस्कृति, एक नारे और एक मॉडल के कृत्रिम सरलीकरण में नहीं समेटा जा सकता.

तुरुप का पत्ता मतदाताओं के पास होता है, पर त्रसदी है कि राजनीतिक नेता सोचते हैं कि यह उनके पास है. कई तरीकों से, मतदाता ने राजनीतिज्ञों को उनके अपने ही खेल में पीटना शुरू कर दिया है. वह महत्वाकांक्षी नेताओं में रस लेता है. वह राजनीतिक रैलियों में जाता है. मनमोहक भाषणों को सराहता है. अंतहीन वादों को सुनता है. वह देखता है कि किस तरह गंठबंधन बनाये जाते हैं. वह राजनीतिक मौकापरस्तों को उनकी सिद्धांतविहीन चुस्ती-फुरती के लिए बधाई देता है. वह मतदाताओं को लुभाने में जाति और संप्रदाय के खुल्लमखुल्ला इस्तेमाल को देखता है. लेकिन यह सब करते हुए, वह जानता है कि सच क्या है. वह जानता है कि उसके लिए क्या अच्छा है, उसके जीवन स्तर को बेहतर करने के लिए किसने काम किया है, कौन उसके साथ खड़ा होगा, और कौन वास्तव में उसके और उसके भले के लिए बोलता है. और जब उसके वोट डालने का वक्त आता है, तो वह इसी के मुताबिक वोट देता है.

साठ साल से ज्यादा समय से हो रहे लोकतांत्रिक चुनावों के बाद, यह सोचना मूर्खता होगी कि मतदाता अवसरवादी नेताओं के इशारे पर नाचनेवाली नासमझ कठपुतली होता है. मतदाता की समझदारी का अपमान करना अभी एक बड़ी गलती है. अफसोस है कि कुछ सुनने का इंतजार किये बिना, एक रैली से दूसरी रैली में फुदकनेवाले राजनीतिक नेता इस बड़े सच को भूल जाते हैं.

(अंगरेजी से अनूदित)

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