।। रवीश कुमार ।।
संपादक, एनडीटीवी इंडिया
तो नरेंद्र मोदी इसलिए कांग्रेस खत्म करना चाहते हैं, ताकि बची-खुची कांग्रेस से अपने लिए उम्मीदवार चुन सकें. नरेंद्र मोदी भाजपा को कार्यकर्ताओं की पार्टी बताने में काफी गर्व करते हैं, लेकिन ऐसा क्या हो गया कि कार्यकर्ताओं की इस पार्टी में उम्मीदवार के लिए नेता नहीं हैं. उनके गुजरात में कांग्रेस से आये विधायक तक को लोकसभा के टिकट दिये गये हैं.
हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और महाराष्ट्र की हालत भी यही है. चुनाव के वक्त भाजपा हर दोपहरी शान से प्रदर्शित करती है कि फलाने आ रहे हैं, ढिमकाने आ रहे हैं. कई बार यह भी लगता है कि यह प्रदर्शन से ज्यादा जरूरत है. आखिर पिछले एक साल से सघन चुनाव प्रचार में लगी भाजपा को अपने नेताओं की उपेक्षा की जरूरत क्यों है? क्यों नरेंद्र मोदी को स्वर्ण जातियों के संगठन के नेताओं को भाजपा में शामिल कराना पड़ रहा है.
जब मोदी लहर है, तो कोई भी मोदी के नाम पर जीत सकता है. फिर इसका फायदा उन लोगों को क्यों न मिले, जो पार्टी में अपना सब गंवा कर राजनीति करते रहे. इसका फायदा उस एनसीपी और कांग्रेस से आये नेताओं को क्यों मिले, जिसे मोदी भ्रष्टाचार की जननी कहते हैं. मोदी इतनी जल्दी में क्यों हैं. उनकी चुनावी तैयारियों और संसाधनों के जो मिथक गढ़े गये, वे धराशायी होते क्यों दिख रहे हैं? इन सब बातों पर नरेंद्र मोदी की कोई प्रतिक्रि या भी नहीं आती. वे पत्रकारों के सवालों का सामना भी नहीं करते हैं. वरना एक सवाल तो बनता है कि अखिल भारतीय लहर पर सवार मोदी से पार्टी के गिनती के तीन-चार नेता नाराज क्यों हैं?
पार्टी के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह का टिकट काट दिया गया. उनके बेटे मानवेंद्र ने बीच चुनाव में एक महीने की मेडिकल छुट्टी मांगी है. मानवेंद्र जैसलमेर से उम्मीदवार हैं. मुरली मनोहर जोशी और कलराज मिश्र को वहां क्यों भेजा गया, जहां से वे नहीं चाहते थे. भागलपुर के अश्विनी चौबे को बक्सर भेजा जाता है और बुजुर्ग नेता लालमुनी चौबे का टिकट काटा जाता है. जबकि अश्विनी चौबे बक्सर जाना भी नहीं चाहते हैं. आक्र ामक नेता गिरिराज सिंह भी किसी तरह नवादा चले ही गये. अहमदाबाद पूर्व से ब्राह्मण नेता की पहचान रखनेवाले हरिन पाठक का टिकट काटा जाता है और उनकी जगह एक और ब्राह्मण और अभिनेता परेश रावल को टिकट दिया जाता है.
भाजपा में दरार पड़ गयी है. यह भाजपा और संघ के बीच खींचतान का नतीजा है. मोदी खेमे ने आडवाणी की नाराजगी को यह कह कर प्रचारित किया कि वे मोदी की राह में रोड़ा बन रहे हैं. प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. मोदी बनना चाहें, तो गलत नहीं. आडवाणी बनना चाहें, तो कैसे गलत? लेकिन क्या जसवंत सिंह, हरिन पाठक या मुरली मनोहर जोशी भी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं? फिर राजनाथ सिंह के बारे में भी तो यही कहा जाता है, तो उनके साथ ऐसा क्यों नहीं? यशंवत सिन्हा ने किन्हीं अज्ञात कारणों से किनारा कर लिया. उनके बेटे जयंत सिन्हा चुनाव मैदान में हैं. भाजपा को यह नहीं दिखता, मगर चिदंबरम का न लड़ना रोज दिखता है. सुषमा स्वराज खुल कर कह रही हैं कि चुनाव समिति से बाहर जसवंत सिंह के बारे में फैसला हुआ. वे दुखी हैं.
क्या भाजपा में सिर्फ महत्वकांक्षा की लड़ाई चल रही है. एक हद तक हां. मगर यह लड़ाई उससे भी आगे की लगती है. सुषमा और आडवाणी, मोदी की शैली के खिलाफ प्रतिकार कर रहे हैं. कई लोगों को लगा था कि दिल्ली आकर नरेंद्र मोदी अलग नेता होंगे. कई घटनाओं से ऐसा लगता है कि मोदी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को भी गुजरात भाजपा समझते हैं. कुछ तो है, जिससे लगता है कि वे अपने विरोधियों का सफाया चुनाव से पहले ही कर रहे हैं. विरोध करने या आहत बुजुर्ग नेताओं की संख्या ही कितनी है? अगर लहर है, तो ये पांच-छह भी जीत सकते हैं. अगर यह पीढ़ियों का बदलाव हो रहा है, तो क्या भाजपा ने 70-75 साल के उम्मीदवारों को टिकट नहीं दिये. साफ है, पीढ़ियों के बदलाव के नाम पर कुछ नेताओं को ठिकाने लगाया जा रहा है.
दूसरी तरह से देखें, तो मोदी विरोधियों के लिए कोई जगह नहीं. भाजपा में वही रहेगा, जो सिर्फ मोदी-मोदी करेगा. जसवंत सिंह खुल कर कह रहे हैं कि भाजपा असली और नकली भाजपा में बंट गयी है. वह मोदी की भाजपा को नकली बता रहे हैं. निर्दलीय परचा भी भर दिया है. क्या भाजपा एक व्यक्ति पार्टी हो गयी है. जसवंत पार्टी छोड़ कर जा रहे हैं. उनका बेटा पिता के अपमान को कैसे सह सकता है. आखिर कांग्रेस से आये कर्नल सोनाराम राजस्थान के कितने बड़े नेता हैं, जिनको टिकट देने के लिए जसवंत सिंह का टिकट काटा गया. राजस्थान के जानकार कहते हैं कि बाड़मेर से जसवंत सिंह के जीतने की खास मजबूत स्थिति नहीं है.
भले ही जसवंत का मोदी जैसा जनाधार न हो, मगर राजनीति में हर बात जनाधार से तय नहीं होती. हर बात जीत से भी तय नहीं होती है. राजनीति में जीत एक सुखद पड़ाव भर है. सारे सवालों का जवाब नहीं.
मोदी चुप ही रहेंगे. वे सिर्फ रैलियों में बोलते हैं. साल भर से कड़ी मेहनत कर उन्होंने खुद को राजनीतिक ब्रांड बनाने की कोशिश की है. आजकल के नेता खुद को ब्रांड क्यों बनाते हैं. क्योंकि बड़े ब्रांड की चीजें खरीदते समय आप यह नहीं पूछते कि यह माल चलेगा कि नहीं. आपको महंगा खरीद कर अच्छा लगेगा. ब्रांड और शो रूम का माहौल आपको मोल-भाव की अनुमति नहीं देता. लेकिन, जब आप 20 रु पये की बनियान खरीदेंगे, तो 20 बार पूछेंगे कि यह चलेगी कि नहीं. इसीलिए दुनिया भर के नेता अरबों रु पये प्रचार में फूंक कर खुद को ब्रांड बना रहे हैं. पार्टी के भीतर मोदी एक ब्रांड बन गये हैं. जिसके सामने दो चार नाराज भी हो जायें, तो कोई फर्क नहीं पड़ता. हर-हर मोदी, घर-घर मोदी के नारे पर झूम रहे कार्यकर्ताओं को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि कुछ लोगों के साथ क्या हो रहा है. इसीलिए भाजपा में अंदरूनी बागियों की हालत खराब है और बाहर से आये बागियों की मौज.