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पलायन और मानव तस्करी से जूझता पाकुड़

पाकुड़ रेलवे स्टेशन पर आप किसी भी दिन चले जायें, आपको कई ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपने सिर पर उम्मीदों की एक भारी गठरी लिए रोजगार की तलाश में किसी और शहर के लिए रवाना हो रहे होते हैं. अपना घर छोड़कर दूसरे शहर में काम की तलाश में चले जाना, एक भयावह घटना है.

पाकुड़, राजन राज. अपने गांव, शहर, जंगल को छोड़ कर किसी दूसरे शहर में काम की तलाश में चले जाना, एक भयावह घटना है. यह एक ऐसी क्रिया है, जहां कोई व्यक्ति, औरत या बच्चे अपने सबसे प्रिय स्थान को छोड़ कर किसी अनजाने-सी जगह पर एक बेहतर कल को तलाशने का प्रयास करते हैं. पाकुड़ रेलवे स्टेशन पर आप किसी भी दिन चले जायें, आपको कई ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपने सिर पर उम्मीदों की एक भारी गठरी लिए रोजगार की तलाश में किसी और शहर के लिए रवाना हो रहे होते हैं. मेरे निजी जीवन में दो ऐसी घटनाएं हैं, जिसका जिक्र करते हुए पलायन की इस क्रूर परिस्थिति को उकेरने का प्रयास करना काफ़ी जरूरी जान पड़ता है.

साल 2019 की बात होगी, मैं दिल्ली के संजय वन इलाके के पास एक चाय की दुकान पर चाय पी रहा था. मैंने देखा कि एक औरत अपने दो बच्चों के साथ पैदल जा रही थी. पहली नजर में ही मुझे अहसास हो गया था कि वह आदिवासी समुदाय से हैं, लेकिन जब वह पास आए तो उनके बच्चों को मैंने बात करते हुए सुना, जो पाकुड़ के आस-पास के इलाकों की तरह ही संथाली भाषा में बात कर रहे थे. अचानक से मैंने उन बच्चों से अपनी टूटी-फूटी संथाली भाषा में पूछा कि कैसे हो? जवाब आया अडि मौज (अच्छे हैं). फिर मैंने उनकी मां से पूछा कि यहां कहां रहते हो आप लोग और क्या करते हो. जवाब वही मिला जिसकी मुझे अपेक्षा थी, इस इलाके में वह कुछ दिन से किसी कंसट्रेक्शन साइट पर अपने पति के साथ मजदूरी का काम करती हैं और इससे पहले वह नोएडा में थे और वहां भी वह यही काम करते थे.

दूसरी घटना साल 2021 की है. यह भी दिल्ली से ही जुड़ा है. तब मैंने सिंगारसी के पास की एक पहाड़िया बच्ची को अमड़ापाड़ा पुलिस और एक एनजीओ की सहायता से उसके घर तक पहुंचाने में कामयाब रहा था. काफी जद्दोजहद के बाद जब वह लड़की घर पहुंची तो कुछ महीने बाद मैंने उसे कॉल कर के पूछा कि गांव वापस आकर कैसा लग रहा है तो उसका जवाब था कि दिल्ली का वह घर ही सही था, जहां मैं काम करती थी, कम से कम वहां ठीक से खाना तो मिल ही जाता था.

यह भले ही मेरे निजी जीवन से जुड़ी दो घटनाएं हैं, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि हालात ऐसे हैं कि बेहतर कल की तलाश में आपको पाकुड़ जिले के लोगों के साथ असम के चाय बगानों से लेकर कश्मीर, अहमदाबाद, चेन्नई, बेंगलुरु और मुंबई जैसे बड़े शहरों में आसानी से मुलाकात हो जायेगी. ऐसे लोगों की संख्या हजारों में है और ऐसे लोगों की संख्या हजारों में क्यों है, इसकी जवाबदेही शायद अभी तक हम तय करने में सफल नहीं हो पाए हैं. ऐसे में एक मूल प्रश्न उठता है कि क्या हमने इसके बारे में सोचना छोड़ दिया या फिर हमारे पास अब इस समस्या का सामना करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं?

अगर पिछले दो-तीन सालों की बात की जाए तो कारण साफ दिख सकता है, जिसमें हम पिछले कुछ सालों में आई धान की खेती में कमी, पत्थर खदानों का बंद होना और कई अन्य कई कारण देखने को मिल सकते हैं. साथ ही हालिया कारणों के मद्देनजर यह भी कहा जा सकता है कि वैध पत्थर खदानों की आड़ में चल रहे अवैध पत्थर के खादानों का बंद होना एक सकारात्मक ख़बर ज़रूर थी लेकन इस काम से जुड़े छोटे मजदूरों की मजदूरी की व्यवस्था करने के लिए सरकार के पास एक प्लान ज़रूर होना चाहिए था.

पालयन में हैं कई कारण

पलयान के लिए अक्सर तीन-चार ऐसी चीजें होती हैं जो सबसे प्रमुख हैं, जिसमें रोजगार, खराब खेती की व्यवस्था, शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था, सूखा इत्यादि कारण होते हैं. इसके अलावा ह्यूमन ट्रैफिकिंग के जरिये भी हजारों लोगों को भी शहरों में बेच दिया जाता है. अब सबसे पहली समस्या रोजगार पर आते हैं. भारत की बात करें या फिर पाकुड़ जिले की, मनरेगा एक ऐसा उपाय है, जो गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे लोगों के लिए आय का प्रमुख साधन होता है. हालांकि अगर पाकुड़ में मनरेगा की स्थिति को देखा जाये तो जिले में वित्तीय वर्ष 2022-23 में सिर्फ़ 1584 परिवारों को 100 दिन का काम उपलब्ध हो पाया था, जबकि जिले के तकरीबन 1 लाख 95 हजार परिवार मनरेगा से जुड़े हुए हैं.

पाकुड़ के आस-पास सैकड़ों पत्थर के खदानों के बंद होने के बाद मनरेगा शायद छोटे मजदूरों की मदद कर सकता था लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. दूसरी समस्या की बात जाए तो हमें पता है कि खेती के लिए अब सिर्फ बारिश पर आश्रित होना काफी मुश्किल हो गया है. ऐसे में कृत्रिम सिंचाई की उपलब्धता की कमी लोगों को खेती से दूर और अन्य राज्यों के शहरों के नज़दीक लेकर चली जाती है. हालांकि हाल में ही बिरसा इरिगेशन स्कीम के तहत जिले भर में तकरीबन 3120 कूपों की योजना को जमीन पर उतारने का प्रयास किया जा रहा है. अगर इस योजना को सिंचाई की दूरदृष्टता के साथ जमीन पर उतारा जाता है तो कहीं न कहीं यह पलायन को रोकने में एक महत्वपूर्ण बिंदू साबित हो सकता है.

उसके अलावा अगर शिक्षा और स्वास्थ्य की बात की जाए तो जिले के पूर्वी क्षेत्र में रह रहे लोग बंगाल और पश्चिमी क्षेत्र में रह रहे लोग दुमका जाने का प्रयास करते हैं. शिक्षा के क्षेत्र में अभी भी पाकुड़ क्यों पिछड़ा है, इसका जवाब सिर्फ़ सरकार या प्रशासन नहीं बल्कि हमें ख़ुद से भी ज़रूर करना चाहिए. हालांकि जिस राज्य के तक़रीबन 6000 से अधिक स्कूल एक शिक्षक के बदौलत चल रहा हो तो हम वहां शैक्षणिक रूप से एक पिछड़े हुए जिले की परिकल्पना काफ़ी आसानी से कर सकते हैं.

पुलिस की रिपोर्ट में मानव तस्करी के मामले कम

वहीं, अगर मानव तस्करी की बात की जाये तो दो तरह की तस्वीर उभर कर आती है. सबसे पहला तथ्य तो यह है कि मानव तस्करी की जितनी घटनाएं होती हैं, उसमें से काफी कम घटनाओं को पुलिस में रिपोर्ट किया जाता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले पांच साल में झारखंड में लगभग 1600 केस दर्ज किए गए. हालांकि एक खबर यह भी आई थी कि पन्ना लाल महतो नामक एक व्यक्ति 5000 लड़कियों की मानव तस्करी कर चुका है. इसका मतलब है कि तस्करी होने के बाद भी लोग इसकी रिपोर्ट पुलिस में नहीं करते, जो एक गंभीर समस्या है. राज्य भर में इस तरह के जघन्य अपराध अपने पैर फैला रहे हैं, उससे पाकुड़ भी अछूता नहीं रहा है. पिछली महीने ही एक खबर आयी थी कि पाकुड़-साहिबगंज की 11 लड़कियों को बेंगलुरु से रेस्क्यू किया गया है.

कुल मिला कर जब तक हम इन समस्याओं को जमीनी स्तर से ठीक नहीं करेंगे, तब तक हम अपने लोगों को शहर में भटकते हुए देखेंगे, जहां वह भले ही एक बेहतर कल की तलाश में जाते हैं लेकिन ज्यादातर लोगों को सिर्फ निराशा ही मिलती है. पिछले साल मुख्यमंत्री ने प्रवासी मजदूरों के लिए जिला स्तर पर 10 लाख रुपये का कोष बनाने का निर्देश दिया था. यह एक अच्छी पहल थी. इसके अलावा भी प्रवासी मजदूरों की स्किल मैपिंग सहित अन्य परियोजनाओं को चलाने का प्रयास चल रहा है. साथ ही कोविड के समय जब मुख्यमंत्री ने प्रवासी मजदूरों को हवाई जहाज से झारखंड वापस बुलाया था, तो यह बात साफ झलक रही थी कि मुख्यमंत्री कहीं न कहीं प्रवासी मजदूरों को लेकर काफी सकारात्मक सोच रखते हैं लेकिन फिर वही सवाल खड़ा हो जाता है कि आखिर उन मजदूरों को अपने राज्य को छोड़ कर जाने की नौबत ही क्यों आती है.

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