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विस्थापन की व्यथा : अब हमारा क्या होगा, राम जाने………

गोरखालैंड आंदोलन ने अपनों के बीच ही लकीरें खींच दी हैं. जो गोरखालैंड की मांग के साथ नहीं है, उसके लिए पहाड़ पर रहना नामुमकिन हो गया है. सबसे ज्यादा मुश्किल में तो तृणमूल समर्थक और ममता सरकार द्वारा पहाड़ पर गठित विभिन्न विकास बोर्डों के प्रतिनिधि हैं. अगर गोरखालैंड का समर्थन करें तो पार्टी […]

गोरखालैंड आंदोलन ने अपनों के बीच ही लकीरें खींच दी हैं. जो गोरखालैंड की मांग के साथ नहीं है, उसके लिए पहाड़ पर रहना नामुमकिन हो गया है. सबसे ज्यादा मुश्किल में तो तृणमूल समर्थक और ममता सरकार द्वारा पहाड़ पर गठित विभिन्न विकास बोर्डों के प्रतिनिधि हैं. अगर गोरखालैंड का समर्थन करें तो पार्टी से जायें और समर्थन न करें तो पहाड़ छोड़ें. दार्जिलिंग, कालिम्पोंग, कर्सियांग, मिरिक क्षेत्र से खदेड़े गये सैकड़ों तृणमूल समर्थकों ने सिलीगुड़ी और समतल में शरण ले रखी है. सिलीगुड़ी के खालपाड़ा स्थित एक भवन में शरण लिये ऐसे ही लोगों से विस्थापन की व्यथा जानी प्रभात खबर के प्रतिनिधि ने. आज पढ़ें ‘गोरखालैंड आंदोलनः अपनों ने ठुकराया, गैरों ने गले लगाया’ की अंतिम किस्त.
सिलीगुड़ी. अलग राज्य गोरखालैंड की मांग को लेकर पहाड़ पर जारी हिंसक आंदोलन की दर्दनाक कहानी को देवकुमार मुखिया भी अपने जेहन में समटे हुए हैं. पहाड़ के सिंगरिथान बस्ती निवासी देवकुमार को भी पहाड़ पर तृणमूल कांग्रेस (तृकां) का कार्यकर्ता होने का खामियाजा भोगना पड़ रहा है. इन दिनों वह सिलीगुड़ी में शरणार्थी जिंदगी काटने को विवश हैं.

पहाड़ पर अपने पैतृक गांव वापस जाने की आकांक्षा और हिंसक आंदोलन की टिस लिए देव कुमार बुझे मन से कहते हैं ‘अब हमारा क्या होगा, राम जाने.’ इतनी जिल्लत भरी जिंदगी इससे पहले कभी नहीं हुई. पहाड़ ही देव कुमार का सबकुछ होते हुए भी अब वहां पर उनका कुछ भी नहीं है. मोरचा के कथित हिंसक आंदोलनकारियों ने पहाड़ से उनका सबकुछ छीन लिया. उनका कहना है कि गोरखालैंड आंदोलन उन्होंने 1986 में भी देखी थी. लेकिन वह आंदोलन मोरचा आंदोलनकारियों की तरह इतना हिंसक नहीं था. गोरखालैंड की मांग को लेकर उस आंदोलन में वह भी सरकार के विरुद्ध लड़ाई लड़े थे. बाद में गोरामुमो के कमजोर पड़ने और विमल गुरुंग की अगुवायी में गोरखालैंड के मुद्दे पर तेजी से नयी पार्टी गोरखा जनमुक्ति मोरचा (गोजमुमो) के मजबूत होने पर वह भी मोरचा में शामिल हो गये. केंद्र और राज्य सरकार की पहल पर 2011 में जीटीए के गठित होने के बाद म????ोरचा में बदलाव आ गया.

मोरचा अपने नीति-सिद्धांतों से पथ भ्रष्ट हो गयी और पहाड़ पर विकास के नाम पर जीटीए संचालक और मोरचा नेता अपना बैंक बैलेंश और पॉकेट का विकास करने लगे. इतना ही नहीं पहाड़ की भोली-भाली जनता का जितना बुरा हाल जीटीए गठित होने के बाद हुआ उतना इससे पहले कभी भी किसी के शासन में नहीं हुआ. इतना सबकुछ होते हुए भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहाड़ के विकास के लिए कभी भी पीछे नहीं हटी. श्री मुखिया का कहना है कि ममता ने गोरखा समुदाय को अपनी पहचान दिलाने व भाषा-संस्कृति का विकास करने के लिए 15 विभिन्न विकास बोर्डों का गठन किया और पहाड़ का चहुमुखी विकास किया.

वहीं, जीटीए और मोरचा ने मिलकर ममता के सहयोग का दुरुपयोग किया. पहाड़ पर मोरचा की धांधली और ज्यादतियों को देखते हुए उन्होंने भी मोरचा छोड़कर तृकां का दामन थाम लिया. तृकां में शामिल होने के बाद से ही पहाड़ पर उनकी जिंदगी नरकीय बननी शुरु हो गयी. मोरचा के हिंसक आंदोलनकारियों के वजह से ही वह सिलीगुड़ी में तकरीबन डेढ़ महीने से शरणार्थी जीवन जीने को विवश हैं. उनका कहना है कि अब मोरचा गोरखालैंड के नाम पर सारी हदे पार कर रहा है. जो पहाड़ के उज्जवल भविष्य के लिए काफी खतरनाक है. श्री मुखिया का कहना है कि पहाड़ से विस्थापित हुए उनके जैसे सैकड़ों पहाड़वासी हैं जो सिलीगुड़ी व आसपास में गुप्त ठिकानों पर तृकां के सहयोग से शरणार्थी जीवन गुजार रहे हैं. हम सबों की एक ही चिंता है कि आगे की जिंदगी कैसे गुजरेगी, अब क्या दोबारा पहाड़ पर अपने पैतृक गांव हम लौट पायेंगे. सुलगता पहाड़ आखिर कब शांत होगा.

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