कोलकाता. केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने मेडिकल काउंसिल आॅफ इंडिया के जरिए इंडिया मेडिकल काउंसिल एक्ट में कुछ सुधारों का प्रस्ताव रखा है ताकि मेडिकल ग्रेजुएट बनने के लिए नेशनल एग्ज़िट टेस्ट को लागू करवाया जा सके. एमबीबीएस के सभी छात्रों के लिए यह सांझा एग्ज़िट टेस्ट मेडिकल पेशे के हित में नहीं और ना ही समाज के लिए.
ये विचार आइएमए के नेशनल प्रेसिडेंट एवं एचसीएफआई के अध्यक्ष पद्मश्री डॉ केके अग्रवाल और आइएमए के महासचिव डाॅ आरएन टंडन ने रखे. इस संबंध में डाॅ अग्रवाल ने कहा कि अगर यह सुधार लागू हुए तो भारतीय मेडिकल ग्रेजुएट्स और विदेशी मेडिकल ग्रेजुएट्स में भेदभाव पैदा कर देगा. उन्होंने पूछा कि सरकार दो अलग-अलग परीक्षाएं लेने की बजाय सबके लिए सांझी अंतिम एमबीबीएस परीक्षा क्यों नहीं लागू कर देती.
नेक्स्ट लागू करना सरकार द्वारा मेडिकल काॅलेजों के आधारभूत ढांचे की कमी, अकादमिक सुविधाओं की कमी और मेडिकल अध्यापकों की कमी जैसी कड़वी सच्चाइयों से मुंह फेरने का बहाना भर है.
इस बारे में विचार देते हुए आइएमए के नेशनल प्रेसिडेंट इलेक्ट डाॅ रवि वानखेडकर और एक्शन कमेटी के चेयरमैन डाॅ आरवी असोकन ने कहा कि एमसीआई के पास इतनी क्षमता हैं कि हर मेडिकल यूनिवर्सिटी और काॅलेज की एमबीबीएस परीक्षाओं के स्तर की जांच कर सके.
फिर एमबीबीएस पास कर लेने के बाद एक और परीक्षा लेने का क्या औचित्य है, समझ नहीं आता. इस बारे में अपनी राय रखते हुए आइएमए, पश्चिम बंगाल के प्रदेश अध्यक्ष डाॅ पीयूष कांति राय और प्रदेश सचिव डाॅ शांतनु सेन ने कहा कि आइएमसी एक्ट में संशोधन होने से चीन या रूस से एमबीबीएस की डिग्री लेनेवाला कोई भी तीन से छह महीने का डिप्लोमा करके स्क्रीनिंग परीक्षा को बायपास कर देगा और भारत में प्रैक्ट्सि करने के लिए खुद को रजिस्टर करवा लेगा. कोलकाता शाखा के प्रेसिडेंट डाॅ निर्मल माझी और महासचिव डाॅ प्रशांत कुमार भट्टाचार्य ने कहा कि अगर फाइनल परीक्षा और इंटर्नशिप राष्ट्रीय स्तर पर समरूपता से शुरू नहीं होते और नीट एमबीबीएस की परीक्षा के एक महीने के अंदर नहीं होती तो मेडिकल ग्रेजुएट्स वृहद आंदाेलन करेंगे.