कोलकाता. योग, तप, जप, दान आदि सत्कर्म करने से सब कुछ (सिद्धियां और शक्तियां) मिल जाता है तब भगवान की कृपा की क्या जरूरत. फल तो हमें कर्म का ही प्राप्त होता है पर कर्म फल नहीं दे सकता. इसे यों समझे, रोटी तो आटे से ही बनेगी पर आटा रोटी नहीं बन सकता. जब हमारे योग, जप, तप व व्रत आदि सत्कर्म को भगवान स्वीकारते हैं तो हमें फल देते हैं. भगवान को केवल प्रेमी ही मांग सकते हैं. राजा मनु ने जीवन के अंतिम समय में सोच लिया कि जीवन तो मेरा ऐसे ही बीत गया. विषयों से वैराग्य हुआ ही नहीं, हम करें क्या. भगवान को पाने के लिए मनु और शतरूपा जंगल में गये. वहां ऋषि- मुनियों ने राजा-रानी का स्वागत किया और तीर्थों के दर्शन कराये, इससे उनका जीवन बदल गया. वे भगवान का दर्शन करने के लिए आतुर हो उठे और एकनिष्ठ भाव से भगवान का भजन करने लगे. भगवान ने उन्हें दर्शन दिया और बोले, तुम क्या चाहते हो. तो उन्होंने बड़े प्रेम के साथ कहा कि आप जैसा ही मुझे पुत्र चाहिए. भगवान मुस्कुराए और बोले, मेरे जैसा कोई दूसरा तो नहीं हो सकता इसलिए मुझे ही पुत्र के रूप में आपके घर आना होगा. जीवन में यदि प्रेम है तो भगवान घर में आते हैं. यह प्रेम की महिमा है कि परमपिता परमेश्वर बालक के रूप में जन्म लेते हैं. ये बातें संगीत कला मंदिर ट्रस्ट के तत्वावधान में रामकथा पर प्रवचन करते हुए स्वामी राजेश्वरानंद महाराज ने कला मंदिर सभागार में कहीं. प्रवचन करते हुए महाराज जी ने कहा कि जीत अभिमान और हार भगवान से जोड़ती है. यदि विश्वामित्र राक्षसों से हार नहीं जाते तो भगवान राम से नहीं मिल पाते.
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