कोलकाता : ईश्वर को प्राप्त करने की प्रक्रिया है भक्ति. इस बात को स्पष्ट रुप से समझ लेने की जरुरत है कि हमने भक्ति को केवल क्रिया कांड में मर्यादित कर दिया है. हम रोज सुबह टीका-चंदन करें, आरती करें, प्रसाद लगायें, यह भक्ति नहीं है. ये उद्गार पूज्य श्री भूपेंद्रभाई पंड्या ने श्रीहरि सत्संग समिति की ओर से वनवासी क्षेत्रों में शिक्षा, आरोग्य, विकास, जागरण, संस्कार एवं आध्यात्मिक चेतना हेतु शेक्सपीयर सरणी स्थित कला मंदिर प्रेक्षागृह में आयोजित तीन दिवसीय गीता ज्ञानयज्ञ के अंतर्गत दूसरे दिन ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग पर व्याख्यान करते हुए व्यक्त किये.
भक्ति योग पर व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा कि भक्ति में मुख्य हेतु है प्रेम, जिसकी भक्ति करते हो वो प्रसन्न होना चाहिए. उसकी प्रसन्नता के लिए चाहे जो करना पड़े. यह याद रखना चाहिए कि भक्ति में हमारी प्रसन्नता मुख्य नहीं, जिसकी भक्ति की जा रही है उसकी प्रसन्नता मुख्य है और उनको प्रसन्न देखकर हम प्रसन्न हों यह हमारी प्रसन्नता है. इसे भक्ति कहते हैं. अतः हमें भक्ति करनी है तो प्रभु के प्रति हममें परम प्रेम होना चाहिए और उनकी इच्छा क्या है?
यह जानना जरुरी है लेकिन हम जो भक्ति कर रहे हैं वो अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कर रहे हैं. हम इतनी माला जप रहे हैं, हमारा यह काम हो जाये. हम इतने पाठ कर रहे हैं हमारा वो काम हो जाये, यह तो हम अपना काम निकलवा रहे हैं उनसे. सोचिए! उनको प्रसन्नता मिले ऐसा कोई काम किया है हमने. भक्ति में सेवा का भाव होना जरुरी है, जिसकी भक्ति करें उसकी सेवा जरुरी है. जब तक सेवा का भाव नहीं होगा भक्ति नहीं हो सकती. लोग सेवा नहीं करते, ऐसा नहीं है लेकिन वो सेवा भक्ति नहीं बन सकती क्योंकि उस सेवा से भी उनको कुछ अपेक्षाएं रहती है. उस सेवा में प्रभु नहीं दिखते. सेवा करके सम्मान, प्रतिष्ठा और वाहवाही चाहिए. यह चाहत वो सेवा नहीं हो सकती जो भक्ति के लिए चाहिए. भक्ति के लिए तो निष्काम सेवा की आवश्यकता है.