देश की आजादी के पूर्व अंग्रेजों के शासनकाल में ही 1907 में पार्वत्य क्षेत्र के संगठन दार्जिलिंग हिलमेंस एसोसिएशन का गठन कर इस क्षेत्र को स्वायत्तशासन दिये जाने की मांग की गई थी. उस समय की ब्रिटिश सरकार ने इस क्षेत्र को आंशिक रुप से एक्स्क्लूडेड एरिया के बतौर मान्यता देने का प्रस्ताव लिया था. हालांकि राजनैतिक विरोध के चलते वह प्रस्ताव लागू नहीं किया जा सका. योजना के मुताबिक दार्जिलिंग के पार्वत्य क्षेत्र को पूर्वोत्तर के जनजातीय क्षेत्रों को मिलाकर नार्थ ईस्टर्न हिमालयन हिल प्रोविंस के गठन का प्रस्ताव था. लेकिन इस प्रस्ताव का अविभाजित सीपीआई ने कड़ा विरोध किया था. यहां तक कि पश्चिम बंगाल की पूर्ववर्ती वाममोर्चा सरकार के मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने भी माना है कि ऐतिहासिक रुप से पार्वत्य क्षेत्र सिक्किम का भू-भाग रहा है.
तत्कालीन संयुक्त भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी ने तो दार्जिलिंग और कालिम्पोंग, कर्सियांग के साथ दक्षिण सिक्किम और नेपाल को मिलाकर पृथक गणतंत्र के ढांचे में गोरखास्थान राष्ट्र के गठन का भी प्रस्ताव दिया था. हालांकि बाद में उस नीति का खुद कम्यूनिस्ट पार्टी में ही घोर विरोध हुआ और बाद में तो सीपीआई दो दलों में विभक्त तक हो गया. कम्यूनिस्ट पार्टी के अलावा अखिल भारतीय गोरखा लीग ने भी बरसों तक गोरखा प्रांत की मांग को लेकर आंदोलन किया. लेकिन वह आंदोलन ज्यादा प्रभावशाली नहीं रहा और वह संसदीय राजनीति के मकड़जाल में फंसकर रह गया. गोरखालैंड नामक अलग राज्य को लेकर सबसे पहले गंभीर प्रयास गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोरचा (जीएनएलएफ) के संस्थापक दिवंगत सुभाष घीसिंग ने किया. वह अस्सी का दशक था. उस समय असम और मेघालय में विदेशी घुसपैठ का मुद्दा गरम था.
सबसे पहले बंगाली समुदाय के असम से निष्कासन की लहर के बाद मेघालय में पहली बार नेपाली मूल के लोगों को वहां से बड़े पैमाने पर हटाने की मुहिम शुरु हुई. काफी तादाद में निर्वासित लोगों ने दार्जिलिंग में आकर शरण ली. तब पूर्व सैनिक सुभाष घीसिंग लेखन कार्य करते थे. उस समय तक उनके कई उपन्यास प्रकाशित भी हो चुके थे. उसी माहौल में दार्जिलिंग में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) की स्थापना की गई. शुरुआत में इस दल का उद्देश्य एक पृथक राष्ट्र गोरखालैंड की स्थापना था. इतिहासकार शिव चटर्जी के अनुसार इसके लिये सुभाष घीसिंग नेपाल के राजदरबार भी गये थे. उन्होंने गोरखालैंड निर्माण के लिये संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप करवाने का अनुरोध राजदरबार से किया था. हालांकि इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली. बाद में जीएनएलएफ का लक्ष्य बंगाल से अलग राज्य का गठन बन गया. उस समय पहाड़ पर उग्र आंदोलन ने पूरे देश को चौंका दिया था.
शिव चटर्जी के अनुसार सुभाष घीसिंग ने आंदोलन के शुरुआती दौर में बयान दिया कि दार्जिलिंग जिले का पार्वत्य क्षेत्र और संलग्न तराई और डुवार्स क्षेत्र नो मेंस लैंड है यानी इस क्षेत्र की वैधता पर ही उन्होंने सवाल उठाये. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि पार्वत्य क्षेत्र को राजनीतिक साजिश के तहत बंगाल के शासकों ने पश्चिम बंगाल में मिला लिया. इस व्यवस्था को अन्यायपूर्ण बताते हुए उन्होंने भारत नेपाल के बीच सुगौली की संधि-1950 को ही रद किये जाने की मांग की. जीएनएलएफ की ओर से पार्वत्य क्षेत्र के विभिन्न इलाकों में भारत नेपाल की संधि की प्रतियों को जलाया भी गया. इस वजह से बंगाल की सरकार ने इस आंदोलन को राष्ट्रविरोधी करार दिया. हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इस आंदोलन को राष्ट्र विरोधी मानने से इंकार कर दिया. उन्होंने स्पष्ट किया कि संविधान में संशोधन के जरिये गोरखाओं को स्वायत्तशासन नहीं दिया जा सकता है. जबकि परवर्ती काल में तत्कालीन वाममोरचा नीत राज्य सरकार गोरखा समुदाय को स्वायत्तशासन दिये जाने के समर्थन में आ गई.
1986 से लेकर 1988 तक चले जीएनएलएफ के उग्र व सशस्त्र आंदोलन में करीब 1200 लोगों की जानें चली गईं. जान गंवानों वालों में जीएनएलएफ और माकपा के कायकर्ताओं के अलावा पुलिसकर्मी भी थे. आखिर में वरिष्ठ पत्रकार एवं मध्यस्थ इंद्रजीत खुल्लर के प्रयास के बाद नई दिल्ली में 25 जुलाई 1988 को आयोजित त्रिपक्षीय वार्ता में दार्जिलिंग गोरखा पार्वत्य परिषद (डीजीएचसी) के गठन पर सहमति बनी.