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प्रवचन ::: यात्रा के दौरान चल ध्यानगत पचास वर्षों में यात्रा के इतने तीव्रगामी साधनों का विकास हुआ है कि हमारी ग्रहों की चेतना काफी विकसित हुई है. हमारे ग्रह में हजारों वायु-मार्ग बन गये हैं. शरीर में नाड़ियों के जाल की तरह सड़कों तथा रेल-मार्गों का समूचे संसार में फैलाव हुआ है. सागर के वक्ष पर अंतर्राष्ट्रीय जल-मार्गों का जाल बिछ गया है. पृथ्वी पर अब ऐसा कोई भी स्थान नहीं रहा जहां आसानी से न पहुंचा जा सके. यात्रा अब प्राचीन काल की तरह कष्टप्रद नहीं रही है.जो यात्रा प्राचीन काल में बहादुर तथा साहसियों का ही कार्य थी, उसने अब एक उद्योग का रूप ग्रहण कर लिया है तथा उसका प्रभाव दुनिया के सभी लोग अनुभव करने लगे हैं. संभवत: यात्राओं की इतनी अधिक वृद्धि का मूल कारण मानव की घुमक्कड़ प्रकृति है. किसी समय मनुष्य पर्वतों तथा जंगलों का निवासी था अथवा समुद्र तथा झीलों के किनारे या मरुस्थल में रहता था. आज एक बार पुन: इन निर्जन, शांत, एकांत स्थानों में लौटने से उसकी प्राचीन सुप्तप्राय: स्मृतियां जागृत होती हैं.

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