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हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद
सुरेश निराला आधुनिक हिंदी साहित्य में छायावादा के प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी उत्कृष्ट रचनाअों के माध्यम से संपूर्ण राष्ट्र को नयी चेतना दी. जयशंकर प्रसाद न केवल हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक हैं, बल्कि हिंदी के श्रेष्ठ कथाकार, नाटककार और निबंधकार भी हैं. प्रसाद जी की कालजयी रचना ‘कामायनी’ संपूर्ण हिंदी काव्य […]
सुरेश निराला
आधुनिक हिंदी साहित्य में छायावादा के प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी उत्कृष्ट रचनाअों के माध्यम से संपूर्ण राष्ट्र को नयी चेतना दी. जयशंकर प्रसाद न केवल हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक हैं, बल्कि हिंदी के श्रेष्ठ कथाकार, नाटककार और निबंधकार भी हैं.
प्रसाद जी की कालजयी रचना ‘कामायनी’ संपूर्ण हिंदी काव्य की अनुपम कृति है, जिसमें मानव जीवन के अंतर्विरोधों, संघर्ष और व्याकुलता का उन्होंने बेहद गंभीर व भावपूर्ण चित्रण करने के साथ ही यथार्थ व मानवीय मूल्यों को नया आयाम भी दिया. ‘कामायनी’ काव्य खंड जहां उन्हें महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित करता है, वहीं कथा, नाटक व निबंध लेखन के क्षेत्र में भी वे एक बेहद गंभीर साहित्यकार के रूप में स्थापित हैं.
महज 47 साल के अपने अल्प जीवनकाल में जयशंकर प्रसाद ने कविता और कहानी के क्षेत्र में समान रूप से वृहद रचनाएं की. उनके काव्य संग्रह ‘लहर’ में एक कविता की ये पंक्तियां हैं – छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएं आज कहूं? क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूं?
30 जनवरी सन 1989 ई में बनारस के प्रसिद्ध व्यवसायी परिवार सुंघनी साहू (वैश्य कुल) के देवी प्रसाद जी के पुत्र के रूप में जन्म लेनेवाले जयशंकर प्रसाद ने प्रतिकूल पारिवारिक और व्यावसायिक दबावों के बावजूद साहित्य रचना को अपना संसार चुना और जीवन के तमाम झंझावतों को झेलते हुए इसमें डूबते चले गये.
हिंदी साहित्य के इतिहास की इस महान विभूति ने बहुत ही कम उम्र में 15 नवंबर, 1937 ई को इस संसार से विदा ले लिया. इस तरह प्रसाद जी के अवसान के साथ हिंदी का एक युग समाप्त हो गया. परंतु प्रसाद जी का साहित्य आज 72 वर्षों बाद भी संपूर्ण समाज व राष्ट्र को आलोकित कर रहा है.
जयशंकर प्रसाद का पुश्तैनी मकान बनारस के सराय गोवर्धन मोहल्ले में आज भी जर्जर अवस्था में मौजूद है. इस पुराने मकान के एक बड़े परिसर में प्रसाद जी का प्रिय शिव मंदिर है.
यहां के पुजारी जी बताते हैं कि यहीं बैठ कर उन्होंने ‘कामयनी’ लिखी थी. प्रसाद जी की एकमात्र संतान 83 वर्षीय रत्नशंकर प्रसाद अभी जीवित हैं. उनके छह बेटे हैं, जिनकी कई संतान वंशज के रूप में हैं मगर वे सभी इस महान विभूति की विशिष्टता से अनभिज्ञ जैसे हैं. अब न वह वैभव है और न ही चमक-दमक. साहित्यकार प्रसाद जी का न कोई उत्तराधिकारी है और न ही उनकी विरासत को सहेजने-संवारनेवाला. सच तो यह है कि इस महान विभूति के परिवार को पूछनेवाला भी कोई नहीं है.
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