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झारखंड के विकास, हालात और अर्थव्यवस्था में सुधार पर मंथन
इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट का कार्यक्रम प्रभात खबर, रांची िववि व सिदो-कान्हू मुरमू िववि के सहयोग से आयोजन कांके के विश्वा सभागार में इनक्लूसिव एंड सस्टनेबल डेवलपमेंट इन झारखंड : चैलेंज एंड अपोरच्यूनिटिज विषय पर अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस में शिरकत करने देश-दुनिया के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री आये हैं. झारखंड के विकास पर केंद्रित आयोजन में राज्य की […]
इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट का कार्यक्रम
प्रभात खबर, रांची िववि व सिदो-कान्हू मुरमू िववि के सहयोग से आयोजन
कांके के विश्वा सभागार में इनक्लूसिव एंड सस्टनेबल डेवलपमेंट इन झारखंड : चैलेंज एंड अपोरच्यूनिटिज विषय पर अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस में शिरकत करने देश-दुनिया के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री आये हैं. झारखंड के विकास पर केंद्रित आयोजन में राज्य की अर्थव्यवस्था पर मंथन चल रहा है. प्रभात खबर ने झारखंड के हालात, व्यवस्था व सुधार के तरीकों पर इन अर्थशास्त्रियों से बात की. प्रस्तुत है इसके अंश :
राज्य में गरीबी कम तो रही है, लेकिन गति अच्छी नहीं
डॉ रिंकू मुरगई, वर्ल्ड बैंक की लीड इकोनॉमिस्ट
वर्ल्ड बैंक की लीड इकोनॉमिस्ट डॉ रिंकू मुरगई की स्कूली शिक्षा झारखंड से हुई है. बोकारो जिले के गोमिया से डॉ मुरगई ने केजी से क्लास सात तक की पढ़ाई की है. देश-दुनिया की आर्थिक परिस्थिति पर पकड़ रखनेवाली डॉ मुरगई झारखंड में शिक्षा की स्थिति पर चिंता जताती हैं. वह कहती हैं : राज्य में स्कूल जानेवाले बच्चों की संख्या जरूर बढ़ रही है. पिछले तीन साल में यह स्थिति और सुधरी है. लोग स्कूल जाना चाह रहे हैं. सर्वे
बताते हैं कि स्कूलों में उपस्थिति तो बढ़ रही है, लेकिन गुणवत्ता काफी खराब है.इसमें कई राज्यों की तुलना में झारखंड काफी नीचे है.उन्होंने बताया कि झारखंड में रोजगार का सृजन जितना होना चाहिए था, नहीं हो रहा है. कामकाजी महिलाओं की संख्या घट रही है. यह चिंता की बात है. ऐसा दूसरे प्रदेशों में भी हो रहा है, लेकिन यहां कुछ ज्यादा है. दैनिक मजदूर (कैजुअल जॉब) बन रहे हैं. इससे जीवन स्तर में सुधार तो होता है, लेकिन बदलाव नहीं होता है. ऐसे लोग मध्यम श्रेणी में नहीं आ पाते हैं. इस कारण राज्य में गरीबी कम तो रही है, लेकिन गति अच्छी नहीं है. 2012 के बाद कुछ बदलाव के संकेत मिल रहे हैं.
डॉ मुरगई ने कहा कि 2005 से 2012 के दौरान के एनएसएस के आकड़ों के अध्ययन से पता चलता है कि पुरुष कामगारों की संख्या बढ़ी है. महिलाओं की घटी है. कृषि के क्षेत्र में रोजगार में करीब तीन फीसदी की कमी आयी है. निर्माण के क्षेत्र में करीब आठ फीसदी की वृद्धि हुई है. 1994 में कृषि और गैर कृषि के क्षेत्र में रोजगार करनेवालों का अनुपात 68 और 32 था. 2002 में इसमें बहुत बदलाव नहीं हुआ. यह अनुपात 62 और 38 हो गया. लेकिन, 2012-15 में यह 50-50 हो गया है.
नीति निर्धारित करते समय महिलाओं का ध्यान जरूरी
डॉ जीमोल उनी, निदेशक, इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट आनंद
डॉ जीमोल उनी झारखंड की बेहतर अर्थव्यवस्था के लिए महिलाओं की भागीदारी जरूरी बताती हैं. वह महिलाओं में उद्यमशीलता के विकास को देश-दुनिया के लिए जरूरी मानती हैं. डॉ उनी कहती हैं : महिला उद्यमशीलता के मामले में भारत काफी पिछड़ा है.
झारखंड राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी काफी नीचे है. वर्तमान परिस्थितियों में नीति निर्धारित करते समय महिलाओं का ध्यान रखना बहुत जरूरी है. महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के लिए उन्हें स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना समूचे समाज का उत्थान कर सकता है.
ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में काफी बढ़िया काम किया है. झारखंड ने पूरे देश में तीसरा स्थान पाया है. इसके जरिये महिलाओं की उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के लिए भी काम किया जाना चाहिए.
ग्रामीण परिवेश की महिलाओं के कौशल को प्रशिक्षण की जरूरत है. महिलाओं की उद्यमिता को प्रशिक्षित करने के लिए उनको शिक्षित करने की आवश्यकता है. झारखंड में अशिक्षित या अल्प शिक्षित महिलाओं की संख्या बहुत ज्यादा है. उन्होंने कहा : शिक्षा आत्मविश्वास पैदा करती है. राज्य की महिलाओं को आत्मविश्वास की ही जरूरत है. उन्हें नॉलेज अपग्रेड करना होगा. प्रशिक्षण के बाद महिलाओं को उत्पादन के लिए प्रेरित करते हुए बाजार उपलब्ध कराना एक चैलेंज की तरह होगा. इस वजह से नीति निर्धारण में महिलाओं की सहभागिता और नीति तैयार करते समय उनको याद रखा जाना निहायत ही जरूरी है.
झारखंड में आर्थिक असंतुलन शिक्षा में जरूरी है गुणवत्ता
एसआर हाशिम, अध्यक्ष, आइएचडी
यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन (यूपीएससी) के पूर्व चेयरमैन सह इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट (आइएचडी) के अध्यक्ष एसआर हाशिम का मानना है कि झारखंड आर्थिक असंतुलन वाला राज्य है. इस कारण इसके विकास के लिए अलग-अलग प्लानिंग की जरूरत है. उन्होंने कहा : झारखंड पुराने समय से खनिज संपदाओं से परिपूर्ण राज्य रहा है. इस कारण यहां कई बड़े-बड़े उद्योग लगे. इस कारण वैसे इलाकों की समृद्धि बढ़ी, जहां उद्योग धंधे लगे. इसका एक नुकसान दिख रहा है कि आदिवासियों की संख्या 50% से घट कर 29% हो गयी है.
इसका कारण है कि आदिवासी आज भी रिमोट एरिया में रहते हैं. यही कारण है, झारखंड में अलग-अलग जिलों में रहनेवालों की दुनिया अलग-अलग है. यहां रहनेवाले आदिवासियों में आज भी गरीबी है. आदिवासियों में मातृत्व मृत्यु दर अधिक है. कुपोषण भी है. बच्चों की स्थिति भी अच्छी नहीं है. इसका एक कारण यह भी है कि कृषि पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया. सिंचाई के साधन नहीं विकसित किये गये. शिक्षा पर जोर नहीं दिया गया. आज भी गरीबी उन्मूलन और स्वास्थ्य संबंधी स्कीम केवल शहरों में दिखाई देती हैं. ग्रामीण इलाके आज भी अछूते हैं.
झारखंड की आर्थिक स्थिति कैसे सुधर सकती है? डॉ हासिम बताते हैं कि शिक्षा से स्थिति बदल सकती है. वैसे इलाकों के लिए अलग से योजना चलनी चाहिए, जहां रोजगार कम हैं. शिक्षा में गुणवत्ता होनी चाहिए. इस राज्य के साथ सबसे अच्छी स्थिति यह है कि यहां पैसे की कमी नहीं है. सरप्लस बजट वाला स्टेट है. इसका फायदा उठाना चाहिए. गरीबों पर ज्यादा खर्च करना चाहिए.
आदिवासियों काे िवस्थापित
कर िवकास संभव नहीं
डॉ वर्जिनीयस खाखा, निदेशक, टीस
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस (टीस) के निदेशक डॉ वर्जिनीयस खाखा ने कहा है कि झारखंड व देश में आदिवासियों का समुचित विकास नहीं हो पाया है. सरकारी कार्यक्रमों की वजह से आदिवासियों का पलायन ही हुआ है. वे जल, जंगल और जमीन के अधिकार से वंचित हो गये हैं. उन्होंने कहा : आदिवासी विकास के सभी मानकों में पिछड़ गये हैं. तय मानकों में आदिवासियों की स्थिति सुधरी नहीं है. आदिवासियों के लिए 15 वर्ष तक प्रक्षेत्र विकास (सेक्टोरल डेवलपमेंट) की योजना बनानी चाहिए. उन्हें उनके भौगोलिक क्षेत्र से विस्थापित कर विकास संभव नहीं है.
झारखंड में 26 प्रतिशत आदिवासियों की आबादी है, पर जनजातीय उप योजना के आधार पर क्या कभी सरकार ने बजट का प्रावधान इनके विकास के लिए किया, यह सोचनेवाली बात है. इसी का नतीजा है कि झारखंड से बड़े शहरों में जनजातीय बच्चियों का पलायन हो रहा है. वे वहां घरेलू नौकरों का काम कर रही हैं. यहां शिक्षा का अलख सरकार ने नहीं जगाया है.
वहीं उत्तर पूर्वी राज्यों की स्थिति अलग है. वहां पर शिक्षा अधिक है. इससे वहां के लोग और झारखंड के लोगों में काफी असमानताएं हैं. श्री खाखा ने कहा : आदिवासी दोहरे शासन का दंश झेल रहे हैं. ब्रिटिश हुकूमत की ओर से थोपे गये नियम, कानून उनके लिए बोझ बन गये हैं, वहीं राज्यों के नौकरशाह उनकी बुनियादी समस्याओं को नहीं समझ पा रहे हैं. 1950 के बाद से कारखाने, बड़े डैम और अन्य औद्योगिकीकरण प्रोजेक्ट से आदिवासी ही अधिक प्रभावित हुए हैं. उनकी जमीन भी समय-समय पर हस्तांतरित हुई है. सरकार ने निष्पक्षता के साथ कभी उनके बारे में नहीं सोचा और न ही उन्हें वैधानिक और कानूनी तौर पर संरक्षित करने की बातें कहीं गयीं. जो भी नीतियां बनी, वह प्रभावकारी नहीं साबित हुई.
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