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हत्यारे दुष्कर्मी को फांसी दो

– तलवार व डंडा लेकर सड़क पर उतरी महिलाएं, युवतियां – पुलिस के खिलाफ लगाये नारे – पंडरा बाजार में ट्रकों से नहीं उतरने दिया सामान – लालपुर में बंद समर्थक पुलिस से उलङो, दुकानें करायी बंद – बड़गाईं में भी पुलिस से भिड़ंत रांची : डोरंडा के दरजी मोहल्ले में छह साल की बच्ची […]

– तलवार व डंडा लेकर सड़क पर उतरी महिलाएं, युवतियां
– पुलिस के खिलाफ लगाये नारे
– पंडरा बाजार में ट्रकों से नहीं उतरने दिया सामान
– लालपुर में बंद समर्थक पुलिस से उलङो, दुकानें करायी बंद
– बड़गाईं में भी पुलिस से भिड़ंत
रांची : डोरंडा के दरजी मोहल्ले में छह साल की बच्ची से दुष्कर्म व हत्या के खिलाफ शनिवार को रांची बंद रही. दुकान-प्रतिष्ठान बंद रहे. व्यावसायिक वाहन नहीं चले. लोगों ने चौक-चौराहे को जाम कर विरोध प्रदर्शन किया. पुलिस-प्रशासन के खिलाफ नारे लगाये. कहा कि आरोपी को फांसी की सजा मिले.

तलवार व डंडा लेकर सड़क पर उतरी महिलाओं व युवतियों ने तो यहां तक कहा कि पुलिस कड़ी कार्रवाई करने में असमर्थ है, तो आरोपी को उनके हवाले किया जाये, वे लोग खुद आरोपी को सजा देंगे. राजधानी की बहू- बेटियों की आबरू पहले से असुरक्षित है. पुलिस उन्हें सुरक्षा नहीं दे पा रही है. अब मासूम बच्चियों का जीना भी मुश्किल हो गया है. इसलिए आरोपी को फांसी की सजा मिलनी ही चाहिए, ताकि भविष्य में कोई ऐसी हरकत करने की हिम्मत न करे.

शहर बंद करानेवालों में विभिन्न संगठनों और राजनीतिक पार्टियों के नेता और कार्यकर्ता भी शामिल थे. गुस्साये लोगों ने चौक-चौराहों पर टायर जला कर व बैरिकेडिंग कर सड़क जाम की. दुकानें बंद करवा दी. तोड़फोड़ की. डोरंडा, लालपुर चौक, अल्बर्ट एक्का चौक, डेली मार्केट, अपर बाजार, रातू रोड और सुजाता चौक के पास जम कर हंगामा किया.

लोगों ने दो बार डोरंडा थाना घेरने का प्रयास किया. कई स्थानों पर ऑटो व दूसरे वाहनों के शीशे तोड़ डाले. राजेंद्र चौक से आगे किसी को नहीं जाने दिया. यहां धनबाद डीसी की गाड़ी भी फंसी रही.

आइजी की गाड़ी को घेरा

डोरंडा में आक्रोशित लोगों ने आइजी रैंक के एक अधिकारी की गाड़ी को घेर लिया. हमला करने का प्रयास किया. लेकिन आइजी के चालक ने कार को पीछे की ओर मोड़ लिया और आइजी को वहां से सुरक्षित निकालने में कामयाब रहा.

पुलिस बनी रही मूकदर्शक

विभिन्न इलाकों में आक्रोशित लोगों ने जम कर हंगामा मचाया. पुलिसकर्मियों को खदेड़ दिया. चौक-चौराहों पर तैनात पुलिसकर्मी बंद समर्थकों पर कार्रवाई करने से बचते रहे. कई महिलाएं हाथ में तलवार लेकर निकली थीं. इन्होंने जबरन दुकानें बंद करायी. लेकिन पुलिस इन्हें रोकने के बजाय मूकदर्शक बनी रही.

– डोरंडा के गली-मोहल्लों में भी बैरेकेडिंग कर राहगीरों को रोका
बंद में शामिल दल, संगठन
कांग्रेस, भाजपा, झामुमो, झाविमो, भाकपा, जदयू, झाजमयू समेत अन्य व डोरंडा के लोग

रोड जाम, तोड़फोड़

डोरंडा, तुलसी चौक, राजेंद्र चौक, डोरंडा कॉलेज, हिनू, बिरसा चौक, अल्बर्ट एक्का चौक, कांटा टोली चौक, हेसाग चौक पर प्रदर्शन बिरसा चौक में ऑटो में तोड़फोड़, कई जगह वाहनों के शीशे तोड़ेजयराम रमेश को मार्ग बदलना पड़ा : सुबह 10 बजे एजी मोड़ के पास केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश का काफिला रोक दिया. उन्हें मेकॉन कॉलोनी होते हुए एयरपोर्ट जाना पड़ा.

प्रदर्शन-बंद का यह तरीका सही है?

गुरुवार को डोरंडा में छह वर्ष की अबोध बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गयी. अम्मी-अब्बू से जिद कर गुड़िया-खिलौनों से खेलने की उम्र थी उसकी. घर आंगन में चहकने की उम्र थी. मां के आंचल में पलने-बढ़ने की उम्र थी. जिसने भी यह कुकृत्य किया, वह आदमी की देह में भेड़िया है.

इस पाश्विक घटना से समाज व्यथित है. उद्वेलित है. आखिर ऐसी घटना करनेवाले विकृत मानसिकतावालों का क्या इलाज है? पूरे इलाके में मातम है. समाज के इस पतन से बुजुर्गो को काठ मार गया है. जिस दिन यह घटना हुई, बात बिगड़ सकती थी. डोरंडा के दरजी मुहल्ले के अमन पसंद लोगों ने संभाला.

सामाजिक दायित्वबोध वाले आगे आये. मुहल्ले के बूढ़े-बुजुर्गो ने युवाओं को समझाया. पुलिस अपना काम कर रही है. हमें उन्हें काम करने देना चाहिए. ऐसे ही संवेदनशील लोग समाज को रास्ता दिखाते हैं. बेचैन करनेवाले सवालों को हल करने की ओर ले जाते हैं.

घटना के दिन हंगामा होता, शांति भंग होती, तो पुलिस दरिंदों तक पहुंचने के बजाय शांति बहाल करने में जुटी होती.

शुक्रवार की देर शाम ‘ शनिवार को राजधानी बंद रहेगी ’ की घोषणा की गयी. बंद की घोषणा करने कोई संगठन आगे नहीं आया. कुछ युवकों ने शाम को जुलूस निकाला, हाथ में डंडा लेकर घूम-घूम कर कहा कि रांची बंद रहेगी. जिस मुहल्ले की बच्ची थी, उस मुहल्ले में बंद में शामिल होने को लेकर देर रात तक बैठक होती रही.

शहर भ्रम में था, आखिर बंद की घोषणा हो गयी, लेकिन बंद आयोजकों की जानकारी नहीं मिली. इस बंद का दूसरा पहलू भी था. शहर में बंद की खबर राजनीतिक दल के रहनुमाओं के कान तक पहुंची, तो माइलेज लेने के लिए समर्थन कर दिया. इन दलों से पूछने पर कि किसने बंद कराया है, जवाब था, मालूम नहीं, लेकिन बंद का समर्थन रहेगा.
दरअसल समाज के सवाल इन राजनीतिक दलों के एजेंडे में नहीं हैं. केवल वोट बैंक की चिंता है. शनिवार को राजधानी बंद भी रही.

बंद कराने युवा-बच्चे सड़क पर निकले, आक्रोशित थे. हाथ में तलवार, बरछा और डंडा लेकर प्रदर्शन किया. क्या ऐसे प्रदर्शन जायज हैं? आइजी, थाना प्रभारी और पुलिसकर्मियों को खदेड़ा गया. एक केंद्रीय मंत्री को दूसरे रास्ते से हवाई अड्डा जाना पड़ा. क्या वाहनों के शीशे तोड़ने, दुकानों में तोड़-फोड़, राहगीरों को मारने-भगाने से ऐसे कुकृत्य पर लगाम लगेगी? क्या इन्हीं तरीकों से समाज उठ खड़ा हो सकता है? क्या यही तरीके जन दबाव बनायेंगे? अगर लोगों को यह सब करने की छूट मिल जाये, तो व्यवस्था अराजक हो जायेगी?

आंदोलन करना लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन शनिवार की बंदी की जवाबदेही कौन लेगा? समाज में सुरक्षा व न्याय की गारंटी पुलिस को करनी है, कानून-व्यवस्था की जवाबदेही पुलिस की है, लेकिन पुलिस को भी काम करने की आजादी मिलनी चाहिए. क्या यह जायज है कि घटना की जांच-पड़ताल के लिए पुलिस किसी को पूछताछ के लिए बुलाती हो, हिरासत में लेती हो, तो लोग थाना घेरने पहुंच जायें, आरोपी को छुड़ाने चले जायें?

इस घटना में यह भी हुआ, हालांकि थानेदार के समझाने से स्थानीय लोग लौट गये. एक बात और, इस घटना के लिए पुलिस कैसे दोषी है? क्या पुलिस के सामने यह घटना हुई? अगर कोई किसी को बहला-फुसला कर ले जाये, तो इसमें पुलिस क्या कर सकती है? हां, उसे सूचना रहती और उसने कोई कदम नहीं उठाया होता, तो पुलिस पर सवाल उठाये जा सकते थे.

ऐसी घटनाओं में डंडा-तलवार लेकर कोई कारगर रास्ता नहीं निकल सकता, ऐसे कुकृत्यों के खिलाफ कठोर कानून की आवश्यकता है. और कानून पुलिस नहीं बनाती. कानून बनाती हैं संसद व विधानसभा. ये जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की है. इनके प्रतिनिधि चुन कर संसद व विधानसभा जाते हैं.

प्रदर्शन करनेवाले लोगों को राजनीतिक दलों से सवाल करना चाहिए कि ऐसे कानून अब तक क्यों नहीं बने. राजनीतिक दलों को ही सोचना होगा कि जिस कदर समाज का पतन हुआ है, पुराने कानून और उसकी पेचीदगियां काम नहीं आ रही हैं, ऐसे हालात में क्या किया जाये. आज समाज को यह भी सोचना होगा कि ऐसे दरिंदों को किस वातावरण और आबो-हवा में फलने-फूलने का मौका मिल रहा है.

सामाजिक संस्कार क्यों लुप्त हो रहे हैं? मूल्यबोध और संस्कार की जड़ें मजबूत करनेवाली पहली पाठशाला परिवार की भूमिका क्या हो गयी है? परिवार का ताना-बाना क्यों बिखर रहा है? आध्यात्मिक-सात्विक बोध से दूर समाज कहां भटक रहा है? हुल्लड़बाजी वाले प्रदर्शनों और राजनीति से अलग समाज को अपना रास्ता खुद तय करना होगा.
– आनंद मोहन –

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