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पलामू में फिर अकाल जैसे हालात
चार साल से सुखाड़, खेती-बारी चाैपट अब गांवाें में भी पानी का संकट अविनाश मेदिनीनगर : पलामू में पिछले चार साल से सूखा पड़ रहा है. खेती-बारी चाैपट हाे गयी है. अब गांवाें में भी पानी का संकट शुरू हाे गया है. पिछले 15 वर्षाें (2007 काे छाेड़ कर) में यहां सामान्य (1275 मिली) से […]
चार साल से सुखाड़, खेती-बारी चाैपट अब गांवाें में भी पानी का संकट
अविनाश
मेदिनीनगर : पलामू में पिछले चार साल से सूखा पड़ रहा है. खेती-बारी चाैपट हाे गयी है. अब गांवाें में भी पानी का संकट शुरू हाे गया है. पिछले 15 वर्षाें (2007 काे छाेड़ कर) में यहां सामान्य (1275 मिली) से कम बारिश हुई है. जलस्तर तेजी से नीचे जा रहा है. 700 से 800 फीट पर पानी नहीं मिल रहा है.
गांवों में भी टैंकर से पानी मंगाया जा रहा है. वर्ष 1966-67 व 1991-92 में पलामू में भीषण अकाल पड़ा था. उस समय आम आदमी के साथ मवेशियों के चारा-पानी का संकट हो गया था. कमोबेश वैसी ही स्थिति आज बन गयी है. पलामू में खेती मॉनसून पर ही निर्भर है. यहां पिछले 15 वर्षों से पर्याप्त बारिश हीं नहीं हुई है. ऐसे में जो लोग खेती-बारी पर आश्रित हैं, वह मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. अब गांवों में भी मेदिनीनगर से जार का पानी जा रहा है. इससे स्थिति को समझा जा सकता है.
आज की स्थिति पहले से ज्यादा भयावह : 1966-67 के अकाल को जिन लोगों ने देखा है, उनकी नजर में आज की स्थिति पहले से ज्यादा भयावह है. गाड़ीखास गांव के बिहारी महतो की मानें, तो पहले इस तरह की स्थिति उत्पन्न होने पर ज्यादा संवेदनशीलता दिखायी जाती थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अकाल के दौरान यहां आयी थीं.
उस दौरान मजदूरों को रोजगार देने के लिए बांध का काम चल रहा था. श्रीमती गांधी ने खुद वहां जाकर मजदूरों से बात की थी.
खेत है पर साधन नहीं, करें क्या
पाटन का अंगरा गांव. अबादी करीब 1300. करीब 10 एकड़ भूमि खेती योग्य है. लेकिन सिंचाई का कोई साधन नहीं. किसान चन्नी उरांव कहते हैं कि उनलोगों के जीने का आधार खेती है. पानी हो नहीं रहा है, खेती हो तो कैसे. साल-दर साल सुखाड़- अकाल पड़ रहा है. मवेशियों के लिए पानी कहां से आये, यह भी संकट है. गांवों में जो तालाब हैं, वे सूख गये हैं. चापानल उतना ही पानी देता है, जिससे किसी तरह आदमी का जीवन बचे. मवेशियों के लिए पानी आये कहां से. लालो उरांव कहते हैं कि यदि सिंचाई की व्यवस्था होती, तो स्थिति बदल सकती थी.
कंदा-गेठी ही सहारा
सतबरवा की रबदा पंचायत के सलैया गांव के छोटकी परहिया टोला में आदिम जनजाति वर्ग के लोगों को सरकार ने जमीन दी थी. वह मेहनत भी करते थे, पर पानी नहीं होने के कारण खेती छोड़नी पड़ी. अब ये लोग अनाज के लिए सरकार की व्यवस्था पर ही आश्रित हैं. अनाज मिलने में देर हुई, तो कंदा-गेठी ही सहारा है.
नदी में भी बाेरिंग फेल
पड़वा के लोहड़ा गांव के किसान श्रीकांत मिश्रा का कहना है कि संकट सिर्फ अनाज का ही नहीं है, अब पानी का हो गया है. सामर्थ्यवान किसान बोरिंग करा कर पटवन करा लेते थे. इस साल नदी में भी बोरिंग फेल गयी है. दुर्गावती नदी में जिन किसानों ने बोरिंग करायी थी, उनकी भी बोरिंग सूख गयी.
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