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100 खानों से ब्लू स्टोन का हो रहा अवैध खनन

कोडरमा : लोकाई इंदरवा वन क्षेत्र के आठ हेक्टेयर में चल रहा धंधा इंदरवा गांव से लौट कर 4जीवेश jivesh.singh@prabhatkhabar.in कोडरमा-डोमचांच मुख्य पथ पर जिला मुख्यालय से कुछ किलोमीटर की दूरी पर इंदरवा गांव के पास सड़क के किनारे है पंचायत भवन. उससे कुछ ही दूरी पर अबरख की एक फैक्टरी भी है, जहां बड़े-बड़े […]

कोडरमा : लोकाई इंदरवा वन क्षेत्र के आठ हेक्टेयर में चल रहा धंधा
इंदरवा गांव से लौट कर 4जीवेश
jivesh.singh@prabhatkhabar.in
कोडरमा-डोमचांच मुख्य पथ पर जिला मुख्यालय से कुछ किलोमीटर की दूरी पर इंदरवा गांव के पास सड़क के किनारे है पंचायत भवन. उससे कुछ ही दूरी पर अबरख की एक फैक्टरी भी है, जहां बड़े-बड़े पदाधिकारियों का आना-जाना लगा रहता है. दूसरी ओर पंचायत भवन भी गांव सरकार के अधिकारियों से दिनभर गुलजार रहता है.
इससे महज कुछ सौ मीटर की दूरी पर लगा है वन विभाग का एक बड़ा बोर्ड. बोर्ड पर अवैध उत्खनन पर कार्रवाई अौर दंड से संबंधित बातें लिखी हुई हैं. इसी बोर्ड के पास से शुरू होता है कीमती ब्लू स्टोन का अवैध उत्खनन क्षेत्र. यहां लोकाई-इंदरवा वन्य प्राणी आश्रयणी क्षेत्र के लगभग (प्लॉट संख्या 319, 320) आठ हेक्टेयर में 100 से अधिक अवैध खदानें हैं. इन खदानों में घुसने से पहले इसी बोर्ड के किनारे बैठ आगे की रणनीति तय करते हैं गांववाले.
खास बात यह कि यह बोर्ड अवैध उत्खनन करनेवालों के लिए चेतावनी या भय पैदा करनेवाला नहीं, बल्कि एक सामान्य स्टैंड बन कर रह गया है. वर्षों से यहां आसपास के गांवों के सैकड़ों लोग एक साथ अहले सुबह से दोपहर बाद तक कीमती ब्लू पत्थर निकालने में लगे रहते हैं. एक हजार से लेकर 70 हजार रुपये किलो बिकनेवाले इस पत्थर का इस्तेमाल गहनों व रत्न के रूप में होता है. इसकी मांग पूरे देश में, पर सबसे ज्यादा जयपुर में है.
रोज लाखों का कीमती पत्थर यहां से निकलता है, लेकिन सरकार को कुछ नहीं मिलता. गांव के लोग भी बहुत लाभान्वित नहीं हैं. पहले बिचौलियों के माध्यम से इसे बेचा जाता था, पर अब बाहर के व्यवसायी सीधे खनन क्षेत्र में आकर माल पसंद करते हैं. कुछ स्थानीय होटलों से व्यवसाय करते हैं. 15 साल से ज्यादा समय से चल रहे इस अवैध धंधे की खबर सबको है, पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका.
दस्तावेजों के अनुसार अवैध उत्खनन का पहला मामला 1991 में सामने आया था. 1993 में प्रभावित इलाकों में 144 भी लगायी गयी. इसको लेकर वन विभाग ने अब तक 457 मामले दर्ज किये हैं. समय-समय पर हुई गिरफ्तारियों को देखें, तो अब तक 57 लोग पकड़े गये, पर नतीजा जीरो है. पिछले साल (2016) जिला प्रशासन ने बड़ी कार्रवाई का निर्णय किया, पर जबरदस्त विरोध (विरोध करनेवालों में सत्ता व विपक्ष भी शामिल) के कारण कुछ नहीं हो सका. जानकारों के अनुसार तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने खनन क्षेत्र को वन क्षेत्र से निकालने संबंधी निर्देश दिया था. अवैध खनन क्षेत्र को माइनिंग जोन के रूप में विकसित करना था. इससे लोगों को रोजगार व सरकार को राजस्व मिलता और चोरी भी रुकती, लेकिन हुआ कुछ नहीं.
फैक्टरी लगाये सरकार : ग्रामीण
वहीं दूसरी ओर लोकाई व इंदरवा पंचायत के दर्जनों गांवों के लोगों का दावा है कि उनके पास रोजगार का कोई साधन नहीं, इस कारण वे अवैध उत्खनन करेंगे. गांव की महिला व बच्चे भी इसमें लगे हुए हैं. उनका यह भी कहना है कि सरकार इस पर रोक लगाना चाहती है, तो ब्लू पत्थर से संबंधित फैक्टरी लगाये,यहां सरकारी खुदाई शुरू करे, जिसमें गांववाले रोजगार पायेंगे. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो वे जान देने और लेने से नहीं हिचकेंगे.
हर जगह है हवा मशीन, जेनसेट
पहाड़ में जगह-जगह तीन से पांच फीट चौड़ी सुरंग खोदी गयी है. हर एक की गहराई अलग-अलग है. इसमें घुसने के लिए लकड़ी की सीढ़ी और बल्ली का सहारा लेते हैं ग्रामीण. सुरंग में सांस लेने में दिक्कत न हो, इस कारण अॉक्सीजन की व्यवस्था के लिए जगह-जगह मशीनें लगायी गयी हैं. ग्रामीण इसे हवा मशीन कहते हैं. इसके अलावा हर खदान के लिए अलग जेनसेट की व्यवस्था है. कई जगह सौर ऊर्जा का भी सहारा है. इसके प्लेट जगह-जगह दिख जायेंगे. अंदर से पत्थर टोकरी के सहारे बाहर निकाला जाता है.
बिचौलिये मालामाल
जानकारों के अनुसार यहां अवैध खनन तीन तरह से होता है. एक तो गांववाले खुद ही समूह में खोदते, निकालते और बेचते हैं. इसमें जो पैसे मिलते हैं, वे सब में बराबर बंटता है. दूसरी स्थिति में खदान का मालिक भाड़े पर ग्रामीणों को रखता है. पत्थर निकले या नहीं रोज की मजदूरी मजदूरों को दे दी जाती है. तीसरे तरीके में बिचौलिया या खदान मालिक खदान के लिए जनरेटर और अन्य साधन गांववालों को देता है और पत्थर निकलने पर उसमें अपना हिस्सा लेता है. तीनों ही तरीके में बिचौलियों का बोलबाला होता है. क्योंकि वही बेचवाने व साहबों को सेट करने का महत्वपूर्ण माध्यम है.
रोज 10 रुपये पर पहरेदारी
सभी खदानों के बाहर जेनरेटर, हवा मशीन, मोटरसाइकिल से लेकर कई अन्य मशीनें अौर सामान पड़े हुए रहते हैं. इनकी सुरक्षा के लिए हर जगह झोंपड़ी में एक पहरेदार रहता है.
पहरेदारी करनेवाले एक बुजुर्ग ने बताया कि उसे रोज 10 रुपये और दो टाइम खाना खदान मालिक देता है. इसके अलावा बेकार पड़े पत्थरों से भी ब्लू पत्थर निकालनेवाले यहां लगे रहते हैं. सबके चले जाने के बाद वे बेकार पत्थरों काे जमा कर उसमें से ब्लू पत्थर निकालते हैं. ऐसे लोग भी रोज 500-1000 रुपये कमा लेते हैं.
सीएम स्तर पर दो बैठकें, नतीजा कुछ नहीं
जानकारी के अनुसार इस मुद्दे पर 15 जुलाई 2003 को उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल के तत्कालीन आयुक्त एसडी शर्मा ने बैठक की, जो बेनतीजा रही. पुन: 30 जुलाई 2003 को तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने बैठक की. उन्होंने इस इलाके को माइनिंग जोन के रूप में विकसित करने की बात कही. सीएम ने चमकीले पत्थर को लेकर खनन विभाग से सर्वे कराने को कहा. वन सचिव व प्रधान मुख्य वन संरक्षक को भी निर्देश था कि उक्त क्षेत्र को खनन के लिए डिनोटिफाई करने की प्रक्रिया शुरू की जाये. पुन: सात अक्तूबर 2010 को तत्कालीन मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में झारखंड राज्य वन्य जीव बोर्ड की बैठक हुई.
इसमें उक्त इलाके को वन क्षेत्र से हटाने के लिए नियमानुसार कार्रवाई करने को वन विभाग के बड़े अधिकारी को अधिकृत किया गया. पर कुछ नहीं हुआ. पुन: इस मुद्दे पर 2014 में रेंजर की अगुवाई में बैठक हुई, पर ग्रामीणों ने स्पष्ट कहा कि जब तक रोजगार की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं होगी, न खनन बंद होगा और न ही क्षेत्र में डोजरिंग होने दिया जायेगा.
पुन: 2015 के अंत में तत्कालीन उपायुक्त छवि रंजन ने प्रशासन व वन विभाग की संयुक्त टीम बना कर कार्रवाई की पहल की. इलाके में प्रचार-प्रसार किया गया. ग्रामीणों को सरकारी योजनाओं से जोड़ने का प्रयास हुआ, पर डोजरिंग के नाम पर लोग विरोध में उतर आये और कार्रवाई नहीं हुई. आसपास के सभी गांवों के लोग बच्चों समेत धरने पर बैठ गये. नेता भी उनके समर्थन में आगे आ गये. तनाव इतना बढ़ा कि प्रशासन को पीछे हटना पड़ा. इससे पहले एकीकृत बिहार में भी कई बार कागजी कार्रवाई हुई, पर नतीजा सिफर रहा है.
छापेमारी करने गये, तो गोली चली, हुई पिटाई
बीच-बीच में अवैध खनन के खिलाफ कार्रवाई की कोशिश हुई, पर नतीजा कुछ नहीं निकला. तीन मार्च 2002 को छापामारी करने गयी टीम पर अवैध खनन में लगे लोगों ने पथराव किया. छापामारी दल के कई सदस्य गंभीर रूप से घायल हो गये. इस मामले को लेकर कोडरमा थाने में प्राथमिकी दर्ज हुई.
पुन: 23 जून 2002 को सशस्त्र बल के साथ वन संरक्षक, हजारीबाग अंचल के नेतृत्व में अवैध खनन स्थल पर छापामारी की गयी. कई औजार व सयंत्र जब्त किये गये, पर लौटने के दौरान उग्र भीड़ ने हमला कर दिया. सशस्त्र बल से राइफल छीनने का प्रयास हुआ. पुलिस को गोलियां चलानी पड़ी. पथराव में कई जवान व वनकर्मियों को चोटें आयीं. बाद में भी कोशिश की गयी, पर नतीजा नहीं निकला.
सर, रोज जीते-मरते हैं
ब्लू स्टोन निकालनेवाले एक लड़के ने कहा कि जब खुदाई कर खदान से निकलते हैं, तो लगता है कि नया जीवन मिला है. कब कौन मर जायेगा, कोई नहीं जानता. पूछने पर कि क्यों यह काम करते हैं, उसका कहना था कि जिले में कोई रोजगार नहीं, भूख से मरने से बेहतर है कुछ करना. कई बार लोग दब कर मर जाते हैं, या फिर अंदर में अॉक्सीजन की कमी से या ब्लड प्रेसर बढ़ने से मौत हो जाती है, तो कोई पूछने भी नहीं जाता, पर मजबूरी है. जीना है, तो रोज मरना ही पड़ेगा.
सरकारीकरण ही उपाय
जानकारों के अनुसार वर्षों से अवैध खुदाई के अभ्यस्त गांव के लोग अब इससे अलग नहीं हट सकते. पहले यहां लाल पत्थर भी निकलता था, उस दौरान भी अवैध खुदाई कर लोग निकाल कर बेच रहे थे, अब भी बेच रहे. अब ऐसे लोग इतनी बड़ी संख्या में संगठित हो गये हैं कि उन्हें हटा पाना थोड़ा मुश्किल है. उनके अनुसार इलाके को वन क्षेत्र से बाहर निकाल कर इसका सरकारीकरण हो, तभी इस पर रोक संभव है.
(साथ में कोडरमा से विकास, गौतम व तसवीर विजय की)
मुख्यमंत्री के दो निर्देश भी हुए बेकार, अब तक करोड़ों का स्टोन हुआ है चोरी
खनन रोकने की पहल होते ही मरने-मारने पर उतर जाते हैं लोग
सरकार को राजस्व का घाटा, बिचौलियों की चांदी
इलाके को वन क्षेत्र से हटाना व माइनिंग जोन में विकसित करना ही है उपाय

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