हर वाद्य यंत्र देता है संदेशआदिवासी समाज अपनी परंपरा और संस्कृति से सघनता के साथ जुड़ा हुआ है. इनकी रीति-रीवाज, रहन-सहन व संस्कृति अलग है. प्रकृतिप्रेमी यह समाज दस्तूरों को शिद्दत से मानता है. हां, बदलते जमाने के साथ समाज में कुछ नयी चीजें जुड़ती जा रही हैं और पुरानी चीजें किनारे भी हो रही हैं. नृत्य-संगीत के प्रेमी इस समाज में वाद्य यंत्रों का भी खास स्थान है. मौका और दस्तूर के अनुसार वाद्य यंत्र के प्रयोग की यहां परंपरा रही है. सार्वजनिक मौकों पर बजाये जाने वाले कुछ वाद्य यंत्र तो चलन में हैं, लेकिन कुछ बेहतरीन वाद्य यंत्र संरक्षण के अभाव में विलुप्ति के कगार पर पहुंच गये हैं. कुछ कम प्रचलित और बेहरीन वाद्य यंत्रों पर पेश है लाइफ @ जमशेदपुर की यह रिपोर्ट…हर शनिवार को होता था त्योहार जैसा माहौल शहर के कई गांवों में पहले हर शनिवार को त्योहार जैसा माहौल होता था. लोग एक जगह एकत्र होकर खुशियां मनाते थे. शहर के पास स्थित जोनरागोड़ा गांव निवासी सालखन बताते हैं कि हर शनिवार को गांव में ही नृत्य-संगीत के कार्यक्रम होते थे. लेकिन, समय गुजरने के साथ आज रोजाना होने वाले आयोजन बंद हो गये हैं. अब केवल त्योहारों में ही लोग जुटते हैं. साथ ही नयी पीढ़ी के व्यस्त होने के कारण भी ऐसा हुआ है. उद्देश्यपक होते हैं वाद्य यंत्रहर वाद्य यंत्र की अलग पहचान है. साथ ही वह किसी न किसी उद्देश्य से भी जुड़ा है. शिकार पर जाने के दौरान साकुआ बजाने का चलन है. शादी, त्योहार व खास मौकों पर किस्म-किस्म के वाद्य यंत्रों को बजाया जाता है. आदिवासी समुदाय के लोग बताते हैं कि इन पारंपरिक वाद्य यंत्र को बजाने वाले आज कम हुए हैं. इसका कारण है कि नयी पीढ़ी इन यंत्रों से जुड़ नहीं पा रही है. वाद्य यंत्र व उनकी खासियत साकुआ : शिकार पर्व में इस वाद्य यंत्र का काफी योगदान है. जब भी ग्रामीण शिकार पर्व के लिए निकलते हैं, तो साकुआ जरूर बजाते हैं. इसे नील गाय के सींग से तैयार किया गया है. इसकी आवाज लोगों में जोश भरती है. आज भी गांव में यदि इसे केवल बजा दिया जाये, तो ग्रामीण एकत्रित हो जाएंगे. इसकी आवाज रोमांच भरती है. चौड़चुड़ी : इस वाद्य यंत्र को रेगड़ा भी कहा जाता है. इसे तैयार करने के लिए चमड़े व लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है. लगभग सभी त्योहार व खास मौकों, जैसे शादी व शिकार पर जाने के दौरान इसे बजाया जाता है. इसकी तेज आवाज भी लोगों में जोश भरती है. तिरियो : यह सामान्य बांसुरी से यह अलग है. इसे बजाने का तरीका भी अलग है. इसे तिरिछा बजाया जाता है. अलग-अलग ध्वनि निकालने के अलग-अलग तिरियो का इस्तेमाल किया जाता है. तिरियो की ध्वनि कफी मधुर और आकर्षक होती है. बानाम : वायलिन जैसे दिखायी देने वाले इस वाद्य यंत्र को ठीक उसी प्रकार बजाया जाता है. एक समय था जब यह आदिवासी समुदाय के हर घर में पाया जाता था, लेकिन समय के साथ इस वाद्य यंत्र को बजाने वालों में कमी आयी है. इसे गुलाछी पेड़ की लकड़ी, चमड़े व स्टील आदि सामान से तैयार किया जाता है. सुरमयी धुन के कारण आज भी यह लोकप्रिय है. टमाक : विशाल नगाड़े जैसा दिखने वाले टमाक की खासियत अलग है. इसे तैयार करने के लिए लकड़ी व चमड़े का इस्तेमाल किया गया है. इसकी आवाज काफी गंभीर और गगनभेदी होती है. यह काफी दूर तक सुनायी दे सकती है. ——————नाम : नूना मांझी, तिलकागढ़वाद्य यंत्र : बानामसंरक्षित कर रहे हैं संस्कृति व कला को 27 वर्षीय नूना मांझी बताते हैं- मैं बचपन से ही बानाम बजाता आ रहा हूं. जब मैं छोटा था तो पिता रामसाई मांझी इसे बजाया करते थे. मैं उनसे इसे बजाना सीखता था. मुझे लगता है कि इसे बजाने से न केवल मैं अपनी संस्कृति से जुड़ा हुआ हूं, बल्कि इसके संरक्षण में योगदान भी दे रहा हूं. इसे सोहराय, बाहा (सरहुल), दसाय (अक्टूबर के महीने में), रिंजा (गोम्हा व रक्षाबंधन) व करम ढोंग पर बजाया जाता है. ———–नाम : कायलू मार्डी, जोनरागोड़ावाद्य यंत्र : तिरियोसाल भर गाया जाता है लोगड़, बजाया जाता है तिरियो55 वर्षीय कायलू मार्डी काफी कम उम्र से ही तिरियो बजा रहे हैं. कायलू बताते हैं- पहले खेत-खलिहान में गाय-भैंस चराने के दौरान मैं अक्सर अपने साथ तिरियो ले लिया करता था और खाली समय में बजाता था. इस वाद्य यंत्र को हम संथाली पारंपरिक गीतों के साथ, शादी, दौंग, लोगड़ी, सोहराय (काली पूजा) के दौरान बजाते हैं. लोगड़ को वर्ष भर गाया जाता है. ऐसे में इस वाद्य यंत्र को भी हम लोग वर्ष भर यूं ही बजाते हैं. इसे बजाने का तरीका मैंने अपने पूर्वजों से सीखा. युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे भी इस कला के संरक्षण में आगे आयें. ————-नाम : सालखन सोरेन, करनडीहवाद्य यंत्र : साकुआशिकार पर जाते हैं, तो बजते हैं साकुआ सालखन सोरेन बताते हैं- हमारे पूर्वज शिकार पर जाने के दौरान साकुआ बजाते थे. आज भी लोग जब भी शिकार पर जाते हैं, तो इसे जरूर बजाते हैं. इसे बजाना व बनाना, दोनों मैंने बचपन में ही सीख लिया था. इस वाद्य यंत्र का जुड़ाव हमारी रीति-रीवाज से है. साकुआ को बाहा पर्व के दौरान भी बजाया जाता है. आज भी युवा इन वाद्य यंत्रों को बजाते हैं, लेकिन कम. ——————-नाम : पिरू मुर्मू, जोनरागोड़ावाद्य यंत्र : साकुआदूर तक सुनायी देती है टमाक की आवाज पिरू मुर्मू बताते हैं- मैं टमाक कई वर्षों से बजाता आ रहा हूं. जब भी गांव में कोई त्योहार होता है या खुशी का मौका आता है, लोग इसे बजाते हैं. बाहा पर्व में भी इसे बजाते हैं. इस वाद्य यंत्र की धुन पर युवक-युवतियां नृत्य करते हैं. इसे सामान्य लोग तैयार नहीं कर पाते. इसकी आवाज दूर तक सुनायी देती है.
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हर वाद्य यंत्र देता है संदेश
हर वाद्य यंत्र देता है संदेशआदिवासी समाज अपनी परंपरा और संस्कृति से सघनता के साथ जुड़ा हुआ है. इनकी रीति-रीवाज, रहन-सहन व संस्कृति अलग है. प्रकृतिप्रेमी यह समाज दस्तूरों को शिद्दत से मानता है. हां, बदलते जमाने के साथ समाज में कुछ नयी चीजें जुड़ती जा रही हैं और पुरानी चीजें किनारे भी हो रही […]
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