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रोजाना काटे जा रहे हैं कीमती पेड़
रवींद्र कुमार सिंह हजारीबाग : झारखंड के चर्चित हजारीबाग वन्यप्राणी आश्रयणी का अस्तित्व खतरे में है. यहां तेजी से लकड़ी की कटाई व तस्करी हो रही है. वन की सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार अधिकारियों की लापरवाही और वन संरक्षण कानून का खुलेआम उल्लंघन से यह स्थिति उत्पन्न हुई है. अगले कुछ वर्षों तक सिलसिला जारी […]
रवींद्र कुमार सिंह
हजारीबाग : झारखंड के चर्चित हजारीबाग वन्यप्राणी आश्रयणी का अस्तित्व खतरे में है. यहां तेजी से लकड़ी की कटाई व तस्करी हो रही है. वन की सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार अधिकारियों की लापरवाही और वन संरक्षण कानून का खुलेआम उल्लंघन से यह स्थिति उत्पन्न हुई है. अगले कुछ वर्षों तक सिलसिला जारी रहा, तो इस पार्क का अस्तित्व पूरी तरह समाप्त हो जायेगा. पार्क में रहनेवाले जीव जंतु भी विलुप्त हो जायेंगे. लकड़ी तस्कर इतने बेखौफ हैं कि वे दिन में भी लकड़ियां काट रहे हैं. सखुआ जैसी कीमती लकड़ियों के मोटे-मोटे पेड़ों को दिन में ही काट कर झाड़ियों में छिपा देते हैं. उसके बाद रात के अंधेरे में लकड़ियों को ठिकाना लगाया जाता है. अन्य कीमती लकड़ियों के पतले हरे पेड़ों को भी काटा जा रहा है. कटे पेड़ों को तो दिन में ही बैलगाड़ी पर लाद कर ले जाया जाता है.
पार्क का पुराना है इतिहास: नेशनल पार्क के नाम से मशहूर हजारीबाग वन्यप्राणी आश्रयणी का इतिहास काफी पुराना है. इस जंगल पर कभी रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह का आधिपत्य था.
इसमें बनाये गये टाइगर ट्रैप में बाघों को फंसाया जाता था. पार्क के अंदर टाइगर ट्रैप, बाघमारा डैम, धमधमा मांद, पोखरिया खाल, बहिमर गेट, पोखरिया गेट, टावर नंबर सात और 11 आदि महत्वपूर्ण स्थल है. इसे वर्ष 1976 में वाइल्ड लाइफ सेंच्यूरी घोषित किया गया था.
वन क्षेत्र में बड़े पैमाने पर लकड़ी तस्करों की सक्रियता बढ़ने के बाद भी वन विभाग के अधिकारी कार्रवाई नहीं कर रहे हैं. विभाग की लापरवाही के कारण लकड़ी तस्कर पूरी तरह हावी हैं. बताया जाता है कि पिछले दो वर्षों से पेड़ों की कटाई में काफी तेजी आयी है. पिछले दो सालों में वन विभाग की ओर से की गयी कानूनी कार्रवाई के आंकड़े पर गौर करें, तो पता चलता है कि विभाग अपनी जिम्मेदारी की खानापूर्ति कर रहा है. वर्ष 2015- 16 में लकड़ी काटने के मामले में 23 केस दर्ज कराये गये, जिसमें मात्र तीन लोग जेल भेजे गये. वर्ष 2016- 17 में अबतक 15 केस दर्ज हुए. इन मामलों में भी मात्र तीन लोग ही जेल भेजे गये.
इस पार्क की सुरक्षा के लिए 72 इको समितियां बनायी गयी है. एक समिति में 20 से अधिक सदस्य हैं. इन समितियों के सचिव वन विभाग के अधिकारी होते हैं, लेकिन ये समितियां भी जंगल की कटाई रोकने में असफल साबित हो रहीं हैं, जिससे इनके गठन पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं. तस्करों की दबंगई व विभागीय अधिकारियों की लापरवाही के कारण स्थानीय लोग पार्क को पहुंचायी जा रही क्षति के सवाल पर मुंह खोलने से परहेज करते हैं , लेकिन दबी जुबान से यह स्वीकार करते हैं कि इस पार्क से काटे जानेवाले पेड़ों की लकड़ियों से बने फर्नीचर की बिक्री स्थानीय बाजार में हो रही है.
कुछ बड़े तस्कर फरजी कागजातबनवाकर कीमती लकड़ियों को पड़ोसी राज्य बिहार के बाजारों में भी ले जाकर बेच रहे हैं. बताया तो यह भी जाता है कि जिले में करीब 50 अवैध आरा मशीनें हैं, जहां जंगल से काटी गई लकड़ियां पहुंचती हैं. वहां से लकड़ियों को बाहर भेजा जाता है. इस वन्य क्षेत्र से बाघ जैसे दुर्लभ प्राणी विलुप्त होते जा रहे हैं. जो जीव जंतु बचे हैं, उनका जीवन भी खतरे में है. यदि इस ऐतिहासिक पार्क को लकड़ी तस्करो से बचाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गयी, तो आनेवाले समय में यह पार्क इतिहास बनकर रह जायेगा.
लकड़ी की कटाई रोकने को लेकर लगातार प्रयास जारी है. काटी गयी लकड़ियां को जब्त कर दोषियों पर केस भी किया जा रहा है. कई लोगों को जेल भी भेजा गया है. कर्मचारियों की काफी कमी है, इससे भी परेशानियां होती हैं. 36 सिपाही की जगह मात्र तीन सिपाही है. तीन फॉर॓स्टर की जगह एक ही है.
गोपाल चंद्रा,रेंज ऑफिसर
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