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गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल है डुमरी की सार्वजनिक दुर्गा पूजा
डुमरी के सार्वजनिक दुर्गा मंदिर में 216 वर्षों से दुर्गा पूजा मनायी जा रही है. यहां की पूजा एक ओर जहां सांप्रदायिक सौहार्द का अनुपम उदाहरण है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन से भी जुड़ा है. डुमरी : डुमरी के सार्वजनिक दुर्गा मंदिर की पूजा का ऐतिहासिक महत्व है. इससे इलाके […]
डुमरी के सार्वजनिक दुर्गा मंदिर में 216 वर्षों से दुर्गा पूजा मनायी जा रही है. यहां की पूजा एक ओर जहां सांप्रदायिक सौहार्द का अनुपम उदाहरण है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन से भी जुड़ा है.
डुमरी : डुमरी के सार्वजनिक दुर्गा मंदिर की पूजा का ऐतिहासिक महत्व है. इससे इलाके के लोगों की विशेष आस्था जुड़ी है. डुमरी थाना के समीप स्थित मंदिर में 1801 में पहली बार दुर्गा पूजा हुई थी. डुमरी के तत्कालीन जमींदार डीहू भगत ने अपने जमीन पर खपरैल के मकान में पूजा की शुरू की. उस समय बगोदर, तोपचांची व नावाडीह प्रखंड में दुर्गा पूजा नहीं होती थी. इसलिए इन प्रखंडों से लोग पैदल या बैलगाड़ी से पूजा करने के लिए डुमरी आते थे़
सांप्रदायिक सौहार्द का उदाहरण है यह पूजा : यह पूजा गंगा-जमुनी तहजीब को प्रदर्शित करता है. यहां दुर्गा मंदिर और मस्जिद के बीच एक घर का फासला है.
करीब डेढ़ सौ वर्षों से यहां मंदिर में भजन और मस्जिद में अजान साथ-साथ होते आ रहा है. इसके बाद भी कभी भी डुमरी में दोनों समुदाय के बीच के रिश्ते में कोई खटास नहीं देखी गयी. दोनों समुदाय के लोग एक-दूसरे की भावना का सम्मान करते हैं. स्थानीय लोगों को सांप्रदायिक सौहार्द की यह परंपरा विरासत में मिली है. इसके पीछे भी एक गौरवशाली इतिहास है.
दारोगा निसार अहमद की पहल पर बना पक्का भवन
तत्कालीन जमींदार डीहू भगत पूजा शुरू करने के कुछ वर्षों के बाद इसकी जिम्मेदारी स्थानीय लोगों को दे दी. 1867 में डुमरी थाना के तत्कालीन दारोगा निसार हुसैन ने जनता के सहयोग से दुर्गा मंदिर के खपरैल भवन को पक्के भवन में बदल दिया.
यहीं से शुरू हुई सांप्रदायिक सौहार्द की अनुपम परंपरा. दुर्गा मंदिर के भवन के निर्माण के बाद स्थानीय लोगों ने आर्थिक सहयोग कर दारोगा निसार हुसैन के नेतृत्व में मंदिर के बगल में मस्जिद का निर्माण कराया. मस्जिद के लिए जमीन की व्यवस्था जमींदार परिवार ने ही की.
गांधी जी से प्रभावित हो बंद हुई बलि प्रथा
मंदिर में शुरू में बलि प्रधान पूजा होती थी. पहले भैंसा और बाद में बकरे की बलि दी जाने लगी. महात्मा गांधी के अहिंसक सत्याग्रह के कारण वैष्णवी पद्धति से पूजा की मांग उठने लगी, लेकिन कोई पूजा पद्धति में बदलाव के लिए आगे नहीं बढ़ रहा था.
किंवदंती के अनुसार उस समय जमींदार परिवार की एक महिला सदस्य को स्वप्न में दुर्गा माता ने बलि प्रधान पूजा के स्थान पर वैष्णवी पूजा करने को कहा. इसके बाद जमींदार सहित स्थानीय लोगों ने पूजा पद्धति बदलने का फैसला लिया, लेकिन स्थानीय पंडितों ने वैष्णवी पूजा कराने से इनकार कर दिया. इसके बाद चंदनकियारी से पंडित बुला कर मंदिर में वैष्णवी पद्धति से पूजा शुरू की गयी. इसके बाद से यह परंपरा जारी है और चंदनकियारी के पंडित ही यहां पूजा करते हैं.
सौहार्द की प्रतीक है बरगंडा की दुर्गा पूजा
डुमरी. प्रखंड के उग्रवाद प्रभावित उत्तराखंड क्षेत्र के बरगंडा गांव की दुर्गा पूजा सांप्रदायिक सौहार्द की अनुपम मिसाल है. मुस्लिम बहुल वाले इस गांव के सार्वजनिक दुर्गा मंडप में दोनों समुदाय के लोगों की सहभागिता दुर्गा पूजा में देखने को मिलती है. करीब चार दशक पहले गांव में दुर्गा पूजा की शुरुआत सुखदेव जायसवाल व परमेश्वर जायसवाल ने की थी.
इसके बाद से इस परिवार के लोग प्रति वर्ष दुर्गा पूजा करते आ रहे है़ं. दुर्गा पूजा में हिंदुओं के साथ ही मुस्लिम समुदाय की सक्रिय भागीदारी की परंपरा आज भी कायम है. प्रतिमा विसर्जन के दौरान मां की प्रतिमा को कंधे पर निकालने की परंपरा आज भी कायम है. दोनों समुदाय के लोग विसर्जन के दौरान कंधे पर प्रतिमा उठाते हैं. यह मंदिर आसपास के कई गांवों के लोगों के लिए आस्था का केंद्र है. मान्यता है कि इस मंदिर में दुर्गा पूजा के मौके पर जो भक्त सच्चे मन से पूजा करते हैं, मां उनकी इच्छा पूरी करती है.
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