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झारखंड के आंबेडकर थे बिनोद बिहारी महतो

धनबाद : बिनोद बिहारी महतो एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक संस्था थे. शोषण के खिलाफ अनवरत संघर्ष करने वाले अद्वितीय व्यक्ति. उन्होंने कभी भी सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया. इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा. चुनावों में लगातार हारते रहे. लेकिन उनके मन में असहाय जनों के प्रति वेदना कम नहीं हुई और मन […]

धनबाद : बिनोद बिहारी महतो एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक संस्था थे. शोषण के खिलाफ अनवरत संघर्ष करने वाले अद्वितीय व्यक्ति. उन्होंने कभी भी सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया. इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा. चुनावों में लगातार हारते रहे.
लेकिन उनके मन में असहाय जनों के प्रति वेदना कम नहीं हुई और मन से कभी नहीं हारे. समाजसेवा और जनगोलबंदी की राजनीति को समानांतर रूप से आगे बढ़ाया. वह जिस जाति से जन्म लिये, उस कुड़मी समाज में अशिक्षा, बाल विवाह दहेज प्रथा काफी हावी थी.
शिवाजी समाज का गठन कर जहां एक ओर सामाजिक आंदोलन को एक मुहिम का रूप दिया, वहीं झारखंड क्षेत्र को आंतरिक उपनिवेश बना कर रखनेवाले माफिया और रंगदारों के प्रति धारदार आंदोलन किया. गुलाम भारत में वंचित जमात के प्रति जो दर्द संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडर में था, वही दर्द उपनिवेश बने रत्नगर्भा दक्षिण बिहार (झारखंड क्षेत्र) के वंचित समाज के प्रति बिनोद बाबू का था.
डॉ आंबेडकर ने शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो का नारा देकर दलित समाज की जिस तरह आंखें खोली, ठीक उसी तरह पढ़ो और लड़ो का नारा देकर बिनोद बाबू उत्पीड़ित वर्ग की ‘आवाज’ बने. शिवाजी समाज के संगठन के कारण उनकी जाति समाज में कई सुधार हुए. उसके बाद बिनोद बाबू को लगा कि यहां के लोगों को शिक्षित किया जाना चाहिए.
वकालत के पैसे से बिना कोई सरकारी सहायता लिये उन्होंने झारखंड क्षेत्र के अलावा बंगाल, ओड़िशा के पिछड़े क्षेत्रों में दर्जनों शिक्षण संस्थान खोले. सारे संस्थान आज फल-फूल रहे हैं. प्रखर मार्क्सवादी चिंतक एके राय, आदिवासी समाज में उस समय काफी लोकप्रिय हुए शिबू सोरेन के साथ मिल कर उन्होंने सामाजिक आंदोलन को राजनीतिक रूप देने के लिए ही झामुमो का गठन किया.
बिनोद बाबू वैचारिक रूप से साम्यवादी रहे. उनके मन में था कि बिना समाजवादी-साम्यवादी सोच के शोषण मुक्त झारखंड का गठन नहीं किया जा सकता है. इस बात को लेकर दिशोम गुरु के साथ कई बार मतांतर हुआ, लेकिन वह झुके नहीं, वह रुके नहीं.
दोतरफा शोषण के खिलाफ करना पड़ा संघर्ष
झारखंड अलग राज्य की मांग के लिए लोगों को एकजुट कर जहां वह क्षेत्र को उपनिवेश समझने वाली ताकतों की आंखों का कांटा बने रहे, वहीं ग्रामीण क्षेत्र की प्रतिक्रियावादी शक्ति भी उनके खिलाफ रही.
इतना ही नहीं उन्हें सामाजिक व राजनीतिक रूप से असम्मानित करने में भी पीछे नहीं छोड़ा. जब-जब चुनाव हुआ ऐसी ताकतों ने अलग राज्य के विरोधी दलों के उम्मीदवार को मदद की और बिनोद बाबू को हराया.
लेकिन धुन के पक्के गुदड़ी के लाल संघर्ष से पीछे नहीं हटे. कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. कोलियरी क्षेत्रों में कामगारों को एकजुट कर प्रबंधन के खिलाफ और ग्रामीण इलाकों में शोषितों को गोलबंद कर समानांतर संघर्ष किया. इसका लाभ गरीबों को मिला. अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति जिस वर्ग को उन्होंने जागरूक किया, उस वर्ग ने तीन बार विधायक और एक बार उन्हें सांसद बनाया.
उनके विधायक या सांसद बनने से उनके सम्मान में जो इजाफा हुआ वह अलग बात है, लेकिन वंचितों, पीड़ितों की वह आवाज बन कर उभरे. गांव-गांव में नेता पैदा किया. कई सांसद-विधायक बिनोद बाबू के समर्थन से बने. हालात एेसे हो गये कि बिना बिनोद बाबू का नाम लिये गांव की राजनीति करनेवालों की मुश्किलें बढ़ गयीं. आजादी के बाद आंबेडकर के प्रति द्वेष रखने वालों के बीच जिस तरह वह अधिक पूजनीय हो गये. वही स्थिति अलग झारखंड राज्य के बाद बिनोद बाबू की हुई.
जिस माफिया, सांप्रदायिक व पूंजीवादी शक्ति के खिलाफ बिनोद बाबू लगातार संघर्षरत रहे, वही शक्ति आज सबसे अधिक बिनोद बाबू अमर रहे का नारा लगा रही है. उनके लिए यह मजबूरी हो गयी है.
क्योंकि विरोधी ताकतों को यह मालूम हो गया है कि बिनोद बाबू को सम्मान दिये बगैर उन्हें मानने वाले बहुसंख्यक समाज को अपने पक्ष में नहीं किया जा सकता है. आज जब वह नहीं है, तब लग रहा है कि उस लौहपुरुष का आंदोलन सही था. वास्तविक में वह क्रांति के अग्रदूत थे.

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