– दर्शक-
उन्होंने वहां की तसवीर ली और धरना देनेवालों का आवाहन सुना कि भ्रष्ट अधिकारियों के चेहरे पर कालिख पोतने चलो. एक छायाकार के रूप में स्वाभाविक रूप से दोनों फोटोग्राफरों ने उस धरना को कैमरे में कैद करने की कोशिश की. बाद में यह काम करनेवालों ने अपने नाम से विभिन्न अखबारों में प्रेस विज्ञप्ति जारी की. यह चोरी-छिपे नहीं हुआ. बाकायदे सार्वजनिक घोषणा के साथ. पर अभियुक्त बनाये गये छायाकार, क्योंकि छायाकार निहत्थे और सबसे आसान शिकार हैं.
पर क्या यह सवाल पूछा जा सकता है कि किस कानून के तहत ये छायाकार अभियुक्त बनाये गये हैं? जिस जगह श्री अजमेरा के मुंह में कालिख पोती गयी, वहां जिले के सभी आला अफसर, पुलिस फोर्स और उनके हरकारे मौजूद थे. क्या यह सवाल नहीं पूछा जा सकता है कि क्यों राजसत्ता के सारे नुमाइंदे अपने एक अफसर की रक्षा आंदोलनकारियों से नहीं कर सके? कर्तव्य न पालन करने का दोषी कौन है?
अपनी विफलता छिपाने के लिए कमजोर और निहत्थे लोगों को परेशान करना, पुलिस-प्रशासन का परिचित हथकंडा है. श्री अजमेरा प्रभात खबर कार्यालय में एक सांसद और अनेक लोगों के सामने इस घटना के लिए अपने कुछ सहकर्मियों को दोषी बता चुके हैं. अपने सहकर्मी सहायक कलक्टरों को उन्होंने भूमि माफिया का संरक्षक और करोड़ों रुपये की हेराफेरी का दोषी बताया है. यह बड़ा गंभीर मामला है, क्या पुलिस ने उनसे जिरह कर ब्योरा पता किया है कि ये कौन हैं? पुलिस यह कभी नहीं करेगी, क्योंकि वे अभियुक्त सत्ता-व्यवस्था के पोषक हैं?
अगर पुलिस अफसरों में नैतिक ताकत है, तो वे श्री अजमेरा से उन अफसरों के नाम पूछे, जिनकी शह पर श्री अजमेरा के अनुसार यह षड़यंत्र किया गया? उन्हें अभियुक्त बनाये और सींखचों के पीछे डाले.क्या पुलिस के अफसर इन दो घटनाओं के बारे में जानते हैं?
(1) 1977 में कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री थे. बड़हिया में छात्रों पर पुलिस ज्यादती की जांच करने गये. वहां पहले से कुछ छात्रों ने पत्रकारों-छायाकारों को आमंत्रित कर रखा था कि वे श्री ठाकुर का विरोध करेंगे. श्री ठाकुर के वहां पहुंचते ही छात्रों ने उनके कपड़े फाड़ना आरंभ कर दिया. छायाकारों ने तसवीरें लीं. पूरे देश में इस घटना का वर्णन और तसवीरें छपीं.
श्री ठाकुर महान राजनेता थे. उन्होंने निहत्थे छायाकारों पर आक्रमण नहीं कराया, न छायाकार-पत्रकार अभियुक्त बनाये गये. उन्होंने पुलिस के बड़े अफसरों से पूछा कि जिस षडयंत्र का पता दो-तीन दिनों में छायाकारों-पत्रकारों को था, उसे आप या आपकी खुफिया पुलिस नहीं जान सकी. आप अपनी काबिलियत खुद तय कर लीजिए?
(2) 1987-88 के दौरान भागवत झा आजाद राज्य के मुख्यमंत्री थे. जहानाबाद के एक गांव में हुए नरसंहार की घटना की जांच के लिए वहां गये. इंडियन पीपुल्स फ्रंट के कार्यकर्ताओं ने पत्रकारों-छायाकारों को पहले ही बता दिया था कि वे श्री आजाद का विरोध करेंगे. पुलिस-प्रशासन की पूरी चौकसी के बाद उनके मुंह पर कालिख पोती गयी. छायाकारों ने तसवीरें लीं और पत्रकारों ने आंखों देखी रपटें लिखीं.
वहां भी छायाकार-पत्रकार अभियुक्त नहीं बनाये गये. हां, पुलिस या खुफिया पुलिस की कार्यशैली की चर्चा या पूछताछ जरूर हुई.
यह सवाल तो रांची पुलिस या श्री अजमेरा से पूछा जाना चाहिए कि एक अफसर जब अपराधिक काम करता है या उसके पूरे सबूत अखबारों में छपते हैं, तब उसके खिलाफ क्यों कोई कार्रवाई नहीं होती? क्यों नहीं वह अभियुक्त बनाया जाता है?
अगर कानून आपके हाथ में है, तो कुछ समय के लिए आप निहत्थे लोगों को परेशान कर सकते हैं. पर उसका परिणाम क्या होता है? आज सभी संस्थाएं जनता की निगाह में अन्याय का केंद्र बन गयी हैं. प्रशासन या पुलिस के ऐसे अन्यायपूर्ण काम से जो लोक आक्रोश धीरे-धीरे पैदा होती है, उसकी आंच बड़ी तेज होती है. उससे एक अस्थिर, अराजक और हिंसक समाज जन्मता है. बिहार के कस्बे-कस्बे में ऐसी अराजक स्थिति प्रशासन और पुलिस के सौजन्य से पैदा हो रही है.
पुलिस अधिकारी क्या यह मामूली तथ्य भी नहीं जानते कि घटनाओं का अंदेशा जहां-जहां होता है, वहां-वहां फोटोग्राफर-पत्रकार पहुंचते हैं. क्या इसका अर्थ यह है कि वे अपराध करते हैं? अगर रांची पुलिस की मानसिकता काम करे, तो छह दिसंबर के अयोध्या प्रकरण, हत्या, अपराध, लूट-डकैती आदि वारदातों के अभियुक्त पूरे देश में पत्रकार और फोटोग्राफर ही होंगे.