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इन लोगों ने लगातार इस बुनियादी सवाल को उठाया. अंतत: इस लोक मुद्दे की गंभीरता को देखते हुए प्रभात खबर ने (दिनांक 2.1.92) माननीय उच्च न्यायालय से मदद की फरियाद की. उल्लेखनीय है कि सम्माननीय मुख्य न्यायाधीश इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर तत्काल कार्रवाई की (मामला संख्या 28/92 (आर). उक्त पत्र को लोक याचिका के रूप में स्वीकृत किया. पटना में ही उच्च न्यायालय में इसकी सुनवाई हुई (देखें प्रभात खबर 16 जनवरी, 17 जनवरी 92). न्यायालय के अनुसार 30 जनवरी तक कांके डैम से पेयजल की जांच कर रिपोर्ट न्यायालय को दी जानेवाली है.
दूषित जलापूर्ति से रांची में पेट की बीमारी या अन्य बीमारियां छह लाख लोगों के बीच फैल सकती हैं या फैल रही हैं, फिर भी लोक जागरण का प्रयास नहीं होता. आज समाज, प्रशासन जिस स्थिति में पहुंच गये हैं, वहां कोई चमत्कार की अपेक्षा करना गलत है. प्रशासन अगर लापरवाही के कारण भयंकर चूक करता है, तो लोक जागरण के माध्यम से उसे सही तौर-तरीके से काम करने के लिए कहा जा सकता है.
लोक जागरण का यह काम राजनीतिक दल और प्रबुद्ध लोग करते हैं. प्राय: सभी राजनीतिक दलों की स्थिति यह है कि दलगत हित या निजी लाभ के लिए ही वे मुद्दे उठाते हैं. मुद्दा उठाने का भी उनके पास एक घटिया और घिसा औजार है, बंद, गाली-गलौज, अमर्यादित आचरण और धरना-प्रदर्शन. यह आयोजित करनेवालों को यह नहीं मालूम कि इन औजारों के प्रति लोगों में घोर अनास्था पैदा हो गयी है. इस कारण सही मुद्दे के लिए भी अगर ये हथियार आजमाये जाते हैं, तो लोग इसे पाखंड और धूर्तता कहते हैं.
गौर करने की बात है कि भाजपा ने गायत्री देवी की हत्या के खिलाफ बंद के लिए एक सात्विक-साहसिक प्रयास किया, पर उस जुलूस में उपलब्ध तथ्यों के अनुसार हत्यारे भी शामिल थे. यह दोषारोपण का नहीं, आत्मनिरीक्षण का मामला है. कोई दूध का धुला नहीं है, न कांग्रेस, न जनता दल, न सजपा और न दूसरे संगठन. हमारे जन प्रतिनिधि समझते हैं कि प्रशासन के पुरजों को महज गाली-गलौज से ही ठीक किया जा सकता है.
यह सही है कि अधिसंख्य नौकरशाह भ्रष्ट, अकर्मण्य और कामचोर हैं, पर सभी ऐसे ही नहीं हैं. यह फर्क करना होगा. दूसरा ये नौकरशाह विदेश से नहीं आये, हमारे ही घरों के व्यक्ति हैं. जैसे हम हैं, वैसे वे हैं. आज निजी जीवन में हम निजी लाभ के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, पर सार्वजनिक रूप से अपना चेहरा ऐसा बनाते हैं, मानो हमसे बड़ा ईमानदार, कर्तव्य परायण कोई दूसरा है ही नहीं.
ऐसी स्थिति में सामूहिक संकल्प से ही जड़ता टूटती है. आवश्यक है कि शहर के प्रबुद्ध राजनेता (चाहे किसी भी दल के हों) बौद्धिक, एक साथ (सभी मतभेद भुला कर) बैठें और सोचें कि रांची में पेयजल की यह स्थिति क्यों है?सड़के खंडहर क्यों हैं? एचइसी क्यों संकट में है? आदिवासियों, रिक्शाचालकों और समाज में हाशिये पर गुजर-बसर करनेवालों के लिए क्यों नहीं कुछ हो रहा है? रांची विश्वविद्यालय के अध्यापक बगैर वेतन कब तक काम करेंगे? विश्वविद्यालय पठन-पाठन का केंद्र क्यों नहीं रहा? रांची से व्यवसायी-उद्योगपति क्यों जा रहे हैं?
इनके जाने से जो बेरोजगार हो रहे हैं, उनकी दुनिया कौन आबाद कर रहा है? दूसरे राज्यों के विकास के मुकाबले बिहार लगातार क्यों पिछड़ रहा है? अगर हर दल के लोग और चौकस बुद्धिजीवी आगे आते हैं, तो वे अपराधी, जो आज कमोबेश हर दल में अमरबेल की तरह छाये हैं, कमजोर होंगे और पीछे छूट जायेंगे. इस प्रक्रिया से ही राजनीति, प्रशासन, शिक्षा जगत, बौद्धिक और पत्रकारिता में नये सोच-संकल्प पैदा होंगे. लेकिन इसके लिए हमें अपना पूर्वाग्रह छोड़ना होगा. खंडन-मंडन की दृष्टि त्यागनी होगी, तभी यह संभव है.