-दर्शक-
छात्र रवि कुमार चौधरी की मां हैं. आशा चौधरी. रवि कुमार की दो दिनों पहले रांची के सबसे व्यस्त चौराहे पर हत्या कर दी गयी. रवि की हत्या के बाद उसकी मां आशा चौधरी टूट चुकी हैं. उनकी मन स्थिति क्या होगी और भविष्य में वह इस घटना से कैसे प्रभावित रहेंगी?
पांच जनवरी को अरगोड़ा थाना क्षेत्र के 22 वर्षीय प्रतिभाशाली युवक राजेश अग्रवाल की हत्या कर दी गयी. तीन टुकड़ों में उसका शव मिला. राजेश के मां-बाप की क्या स्थिति होगी?दिसंबर के आरंभ में सेल के एक युवा अधिकारी पीके सिंह की हत्या कर दी गयी. पीके सिंह की पत्नी एवं छोटी बच्ची किस हालत में हैं? उनके मां-बाप किस मन स्थिति से गुजर रहे हैं?
और महज रांची की इन्हीं तीन घटनाओं को नहीं, अपने आसपास की सारी घटनाओं को याद रखना चाहिए. बलात्कार, रंगदारी, डकैती, हत्या, लूट से प्रभावित, तनाव, द्वेष, घृणा नफरत के शिकार ऐसे लोगों को याद रखिये. ये लोग हमारे-आपके बीच के हैं या किसी न किसी रूप में हमारे अपने अंग हैं. इनके संसार भविष्य को दुखमय बनानेवालों के दिल भी शायद इनकी स्थिति देख कर पसीज जायें. स्वभाविक मौत सगे-संबंधियों को पीड़ा देती हैं. असामयिक मौत और कम उम्र में हत्या तो उनका संसार ही अंधकारमय बना देती है.
फिर भी ऐसी हत्याओं के प्रति कहीं सार्वजनिक बेचैनी नहीं है. मान लें कि इन प्रभावित परिवारों के लिए सहानुभूति, संवेदना और बेचैनी नहीं है. फिर भी इस आत्मकेंद्रित समाज में अपने हित-स्वार्थ के लिए तो बेचैनी होनी ही चाहिए. निजी स्वार्थ के लिए लोग बड़ी-बड़ी कुरबनी देने के लिए तैयार रहते हैं. इन सामाजिक बुनावट-माहौल में कब कौन व्यक्ति या परिवार रवि की मां या राजेश अग्रवाल के मां-बाप या पीके सिंह की पत्नी-बच्ची या मां-बाप की स्थिति में पहुंच जाये. यह कोई नहीं जानता, इसलिए अपने-अपने निजी स्वार्थ में इन सबको या ऐसी वारदातों के शिकार लोगों को याद रखना जरूरी है.
याद किस तरह? आप हम मिल कर कैसा माहौल बना सकते हैं कि इस तरह की घटनाएं न हों. ऐसी घटनाओं के बाद तात्कालिक आक्रोश में सड़क जाम-घेराव, आंदोलन जैसी चीजे होती हैं. इनसे अब कुछ नहीं निकलनेवाला प्रशासन, पुलिस और राजनीति से उम्मीद न रखिए. इनकी अदूरदर्शिता, कार्यसंस्कृति और नासमझी का ही परिणाम हैं. यह माहौल, घर और समाज के स्वस्थ संस्कार पुनर्जीवित किये जायें. बच्चे आरंभ से ही समूह का हिस्सा बनें.
आत्मकेंद्रित मां-बाप, उन्हें संकुचित, अनुदार और दूसरों के प्रति अशिष्ट न बनायें. यह काम घर में ही संभव है. वह ‘घर’, जो कथित आधुनिकता और उपभोक्तावाद की बाढ़ में बिखर रहा है. उस घर को बचाना जरूरी है. संयुक्त परिवार के रिश्तों को जिंदा रखना जरूरी है. इन्हीं घरेलू संस्कारों की नींव पर सामाजिक संस्कार के बीज अंकुरेंगे. सामाजिक संस्कार बनें, जो ईर्ष्या, द्वेष, नफरत, लोभ पर आधारित न हों. हर धर्म के गुरु-पंडित गली-मोहल्लों में अपने-अपने धर्म की स्वस्थ चीजें लोगों को बतायें. जैसे पहले प्रति समाप्त गांवों में प्रवचन होता था. सामाजिक सरोकार औरसामाजिक बोध बैदा किये जायें.
अन्यथा यह दमघोंटू प्रतिस्पर्धा, हिंसा की भावना और निजी स्वार्थ की बाढ़ कहा पहुंचा देगी, कोई नहीं जानता. राजनीतिक दलों, राजनीतिज्ञों के लिए वे मुद्दे नहीं हैं. क्योंकि वे वोट और लाश की राजनीति करते हैं. निजी कैरियर धन बढ़ाने के लिए हर काम करते हैं. फिर भी आप इनसे उम्मीद पालते हैं?