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आंदोलनकारी छात्रों को चाहिए नैतिक समर्थन

-दर्शक- जमशेदपुर ‘को-ऑपरेटिव कॉलेज’ के छात्रों से भविष्य के प्रति उम्मीद बंधती है. भविष्य मुट्ठी में कैस करनेवालों के खिलाफ वहां के छात्रों ने लड़ाई छेड़ी है. यह चिनगारी बरास्ता चाईबासा-रांची भी पहुंच रही है. इन युवा साथियों को समाज के हर तबके से भरपूर समर्थन मिलना चाहिए, क्योंकि इस ठहरे-सड़े और दुर्गंधित जल को […]

-दर्शक-

जमशेदपुर ‘को-ऑपरेटिव कॉलेज’ के छात्रों से भविष्य के प्रति उम्मीद बंधती है. भविष्य मुट्ठी में कैस करनेवालों के खिलाफ वहां के छात्रों ने लड़ाई छेड़ी है. यह चिनगारी बरास्ता चाईबासा-रांची भी पहुंच रही है. इन युवा साथियों को समाज के हर तबके से भरपूर समर्थन मिलना चाहिए, क्योंकि इस ठहरे-सड़े और दुर्गंधित जल को स्वच्छ, निर्मल और पावन बनाने की ऊर्जा इन्हीं छात्रों में है. ‘भारत छोड़ो’ के पच्चीसवें वर्ष के अवसर पर अगर छात्र अपना भविष्य तबाह करनेवालों के खिलाफ बगावत की मुद्रा अपनाते हैं. तो इससे नये छोटानागपुर, नये बिहार और नये देश के सृजन की संभावनाएं नजर आती हैं. ’42 हो या ’74, युवा शक्ति ने ही सड़ांध और स्वार्थ की राजनीति के खिलाफ विद्रोह किया था.

अगर गुजरात के मोरबी इंजीनियरिंग कॉलेज के एक मेस से 1974 में शुरू हुआ आंदोलन (बिहार आंदोलन ( गुजरात आंदोलन) देशव्यापी बन सकता है, तो को-ऑपरेटिव कॉलेज के छात्रों की सही मांगों में वह ऊर्जा है, जो इस सड़े-गले माहौल को छिन्न-भिन्न कर सकती है. गौर करने की बात है कि इन छात्रों पर क्यों पुलिस लाठी भांज रही है,प्रशासन की भृकुटी तन रही है और विश्वविद्यालय के जरखरीद गुलाम इधर-उधर मुंह छुपा रहे हैं, छात्रों की मांग शत-प्रतिशत जायज और सही है, आश्चर्य तो यह है कि इन बुनियादी और सही चीजों के प्रति छात्रों में यह आक्रोश विलंब से क्यों उभरा?

दुनिया के किसी देश में, कोई भी जिंदा कौम-युवाशक्ति यह बेइंसाफी एक दिन सहन नहीं कर सकती, पर यहां दशकों से छात्रों का भविष्य तबाह किया जा रहा है. छात्र चाहते हैं कि (1) कुलपति कार्यालय में बैठे (टिप्पणी : कुलपति महोदय संवेदनशील बुद्धिजीवी हैं. उनका मन अगर दिल्ली, पटना या राजनीति में रमता है, तो वह क्यों छात्रों के भविष्य से खेल रहे हैं? उन्हें स्वत: पदत्याग करना चाहिए), 2. छात्र चाहते हैं कि जिन कक्षाओं की परीक्षाएं हो चुकी हैं, उनके परीक्षाफल निकले, (3) परीक्षाओं में अंक देने में जो धांधली हो रही है, वह बंद हो, (4) जमशेदपुर में रांची विश्वविद्यालय की एक उपशाखा-कार्यालय खुले.

इनमें से कौन सी मांग ऐसी है, जिसके लिए छात्रों पर लाठीं बरसायी जा रही है? जिस विश्वविद्यालय के कुलपति छात्रों से मिलने में कतराते हैं, उन्हें क्या नैतिक अधिकार है उस कुरसी पर चिपके रहने का? जो छात्रों के भविष्य से खेल रहे हैं, वे अधिकारी, राजकोष (जनता का पैसा) की बदौलत लाखों रुपये का पेट्रोल फूंक रहे हैं. यह अक्षम्य सामाजिक अपराध है. इस आंदोलन को गतिशील-जीवंत बनाने के लिए छात्रों को सुनियोजित ढंग से काम करना होगा.

(1) रांची विश्वविद्यालय के क्षेत्र में आनेवाले सभी कॉलेजों के छात्रों का प्रतिनिधित्व करनेवाली छात्र संघर्ष समिति गठित हो. (2) इस संघर्ष समिति में पेशेवर नेताओं को दर किनार किया जाये. (3) हर बड़े दल के छात्र संगठनों की इसमें सहभागिता हो (4) यह संघर्ष समिति बुनियादी कार्यक्रम बनाये (5) पहले चरण में जन-जागरण अभियान हर शहर-गली, मोहल्ले में आरंभ हो. इसमें पांच-पांच छात्र-छात्राओं की टोलियां घर-घर घूमकर लोगों को रांची विश्वविद्यालय की स्थिति बताये. (6) इस अभियान में अभिभावकों को बताया जाये कि वे कौन से कारण हैं कि दो वर्ष का पाठ्यक्रम चार वर्ष में पूरा होता है.

क्यों वे अपना जेवर-गहना बेचकर छात्रों को पढ़ाते हैं फिर भी बच्चों का भविष्य चौपट होता है. क्यों आज बिहार से बाहर, बिहार की शिक्षा के प्रति लोगों में हेय भाव पैदा हो गया है. क्यों बिहार के अभिभावक अपने बच्चों को बाहर भेजते हैं आदि-आदि. (7) यह समिति विश्वविद्यालय- कॉलेज के उन बहुसंख्यक अध्यापकों का सहयोग ले, जिसकी दुनिया आज भी पठन-पाठन तक सीमित है. पर उन्हें वेतन भी नहीं मिल रहा है. वह कौन सी व्यवस्था है, जिसमें ढाई लाख रुपये पेट्रोल पर फूंके जाते हैं, पर एक ईमानदार अध्यापक के घर में दो जून का चूल्हा मुश्किल से जलता है. (8) अध्यापकों- अभिभावकों को भी अरण्य रोदन छोड़कर इन छात्रों को हर संभव मदद करनी होगी. (9) यह माहौल बनाने के बाद पूर्ण अहिंसक तौर-तरीके से विश्वविद्यालय के जिम्मेदार अफसरानों के सामाजिक बहिष्कार की मांग होगी चाहिए. (10) कुलपति, प्रतिकुलपति के घरों-आवासों के आगे निहत्थे-अहिंसक छात्र जत्थे में दस दिनों तक घेर कर बैठे रहें. भविष्य से खेलनेवालों को घूमने-मौज करने की आजादी नहीं मिलनी चाहिए.

जार्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा था कि नयी राह वो बनाते हैं, जो ईश्वर और राजा की परंपरागत सत्ता मानने से इनकार करते हैं. सुरुचि के नाम पर असमानता पैदा करनेवाले लोकाचार को धक्का देते हैं और तरुणों के मन को इन सबके खिलाफ विद्रोह करने के लिए झकझोरता है? यह रास्ता कंटकाकीर्ण है, पर विकल्प क्या है? अपने अकर्मों से दुनिया को बदसूरत बताना इस जीवन धर्म के खिलाफ है.

धीरेंद्र मजूमदार कहा करते थे, जो परंपरागत रास्ते को छोड़कर नये रास्ते की तलाश में निकलते हैं, उन्हें नौ जन्म (उत्सुकता, परंपरागत लोकाचार का भय, सत्व की परीक्षा, असहकार, आकर्षण, लालच, विरोध, उपेक्षा, स्वीकार) लेने पड़ते हैं, तब कहीं रास्ते की ओर उन्मुख होने की परिस्थिति बनती है.’इन युवा साथियों-छात्रों के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, पर बदलाव का संकल्प लेने पर एक नयी दुनिया गढ़ने की अनंत संभावनाएं हैं.

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